संकट में कर्नाटक के कॉफी किसान, बाढ़, सूखे से परेशान होकर बागान बेच रहे या आत्महत्या कर रहे

Update: 2020-01-13 10:53 GMT
जलवायु परिवर्तन कॉफी किसानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। (फोटा- इंडियन एक्सप्रेस से साभार)

इस कड़ाके की ठंड में हमें गरमा-गरम कॉफी खूब भाती है। इसके लिए हम किसी रेंस्त्रा या कॉफी हाउस में 200-400 रुपए बड़ी आसानी से खर्च भी कर देते हैं, लेकिन क्या कभी कॉफी पीते समय हमने कॉफी की खेती करने वाले किसानों के बारे में सोचा है ? शायद आपका जवाब ना में ही आये। तो आपको बता दूं कि देश के सबसे बड़े कॉफी उत्पादक प्रदेश कर्नाटक के कॉफी किसान बढ़ती लागत, घटती आमदनी और जलवायु परिवर्तन से इतना परेशान हो चुके हैं कि वे अब या तो अपने बागान बेच रहे हैं या फिर मौत को गले लगा रहे हैं।

भारत में कच्ची कॉफी की कीमत 26 साल के सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुकी है। कर्नाटक के 1.5 लाख कॉफी उत्पादक और इससे जुड़े 15 लाख लोगों को सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। कर्नाटक ग्रोवर्स फेडरेशन की एक रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2001 से 2011 के बीच प्रदेश के 150 कॉफी किसान खुदकुशी कर चुके हैं।

वर्ष 1994 में अंतरराष्ट्रीय बाजारों में एक किलो कच्चे अरेबिका कॉफी की कीमत 147.87 अमरिकी सेंट (103.50 रुपए) थी जो इस समय 100.07 अमरिकी सेंट (70 रुपए) है। इसी तरह रोबस्टा की कीमत 1994 में 119.46 अमरिकी सेंट (83.62 रुपए) थी जो अब 73.98 अमरिकी सेंट (51.78 रुपए) है।

अंतरराष्ट्रीय बाजारों में साल दर साल कॉफी की कीमतें (सेंट में)। सोर्स- कॉफी बोर्ड ऑफ इंडिया

 भारत में अरेबिका और रोबस्टा (कॉफी की किस्में) की खेती ज्यादा होती है और दूसरे देशों में इन्हें पसंद किया जाता है। इन दोनों के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजारों में गिरने से भारत ही नहीं दुनियाभर के कॉफी किसान परेशान हैं।

"आठ साल पहले कॉफी की जो कीमत थी आज किसानों को उसका तीसरा हिस्सा भी बड़ी मुश्किल से मिल पा रहा है। किसानों को कॉफी के बदले इतने पैसे भी नहीं मिल पा रहे हैं कि उनकी लागत ही निकल जाये। जबकि रेंस्त्रा और कॉफी हाउस में मिलने वाली कॉफी की कीमत हर साल बढ़ती है। कीमत न मिलने से छोटे उत्पादक कॉफी की खेती से मुंह मोड़ रहे हैं। शहरों में रहने वाले कॉफी के शौकीनों को तो पता ही नहीं होगा कि उसकी खेती करने वाले किसान कितने संकट में हैं।" कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा बताते हैं।

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"अगर सरकार व्यवसाइयों का 80 हजार करोड़ रुपए माफ कर सकती है तो कॉफी किसानों का 8 हजार करोड़ रुपए क्यों माफ नहीं हो सकता।" देविंदर शर्मा आगे कहते हैं।

जिस एक कॉफी के लिए हम 200-400 रुपए खर्च कर देते हैं तो उसमें से कॉफी उत्पादकों को कितना पैसा मिलता है यह जानना भी जरूरी है। फाइनेंसियल टाइम्स की जुलाई 2019 में आई रिपोर्ट के अनुसार जब हम किसी रेस्त्रां या कॉफी हाउस में 200 रुपए की एक कप कॉफी पीते हैं तो किसानों को इसमें से एक रुपए से भी कम मिलता है।

1 P का मतलब है एक पैनी और एक पेनी एक सेंट के बराबर होता है। अगर एक अमेरिकी डॉलर की कीमत 70 रुपए है तो एक सेंट की कीमत 70 पैसे होगी। मतलब एक पैनी की कीमत हुई 70 पैसे। पैनी का उपयोग सिक्के के रूप में होता है। 

कर्नाटक के जिला कोडागु के मडिकेरी में रहने वाले 52 वर्षीय जबीर अशगर छोटे स्तर के कॉफी उत्पादक हैं। वे वर्ष 2017 तक 350 एकड़ में कॉफी की खेती करते थे, लेकिन वर्ष 2018 से वे 200 एकड़ में ही कॉफी उत्पादन कर रहे हैं। वे गांव कनेक्शन से फोन पर हुई बातचीत में कहते हैं, " मैं इस काम को छोड़ भी नहीं सकता। हम तीन पीढ़ी से यही (कॉफी उत्पादन) कर रहे हैं। ज्यादातर बागानों को लीज पर लिया था जिसे धीरे-धीरे कम कर रहा हूं। कभी बारिश होती है तो कभी सूखा पड़ जाता है। अब तो मजदूर भी नहीं मिलते। ज्यादातर मजदूर यहां से चले गये हैं।"

कॉफी बार्ड ऑफ इंडिया के अनुसार देश में लघु और मध्यम क्षेणी के कुल 2,20,885 कॉफी उत्पादक किसान हैं जिसमें अकेले कर्नाटक में 1.5 लाख से ज्यादा हैं और इसमें लगभग 98 फीसदी लघु किसान (छोटे स्तर पर कॉफी उत्पादन करने वाले किसान) हैं।


दिसंबर 2019 में कर्नाटक ग्रोवर्स फेडरेशन ने 'कॉफी स्टेटस 2019' के नाम से जारी अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि सूखा, ज्यादा बारिश और मजदूरों की कमी के कारण प्रदेश का कॉफी उत्पादन 40 फीसदी तक कम हो गया है। वर्ष 2002, 2005 और 2008, 2016 में जहां प्रदेश के किसान सूखे से जूझ रहे थे तो वहीं वर्ष 2006, 2007, 2008, 2018 और 2019 में हुई ज्यादा बारिश ने कॉफी बगानों को बर्बाद कर दिया।

खरीफ सीजन 2019 के दौरान कर्नाटक सरकार ने प्रदेश के 17 जिलों के 80 तालुका को बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र घोषित किया है। इनमें तीन कॉफी उत्पादक जिले कोडागु (तीन तालुका), हसान (3 तालुका) और चिकमंगलूर (4 तालुका) भी शामिल हैं, और यह तीन जिले देश में कुल पैदा होने वाले कॉफी का 70 फीसदी अकेले उत्पादन करते हैं।


कर्नाटक ग्रोवर्स फेडरेशन की रिपोर्ट के अनुसार बाढ़ के कारण इन तीन जिलों की 1,20,000 मिलियन टन कॉफी (33 से 50 फीसदी) बर्बाद हो गई जिसकी कुल कीमत लगभग 2,200 करोड़ रुपए तक आंकी गई है। वर्ष 2006, 2007, 2008, 2018 और 2019 में हुई भारी बारिश के कारण कॉफी के पौधों में सफेद तना बेधक जैसी बीमारी को गई जिस कारण 30 से 80 फीसदी तक कॉफी के पौधे खराब हो गये।

"मौसम ने हमें बर्बाद कर दिया है। जिस साल सूखा नहीं पड़ता तो इतनी बारिश हो जाती है कि पूरी फसल ही चौपट हो जाती है। इधर कुछ वर्षों से कीटों ने भी बहुत परेशान किया है। दवाओं का कितना भी छिड़काव कर लें, कोई उपाय काम नहीं आता। पैदावर घटती जा रही है।" जबीर अशगर आगे बताते हैं।


वर्ष 2000 से 2008 के बीच कर्नाटक में कॉफी का रकबा तो दो फीसदी बढ़ा लेकिन पैदावार में लगभग तीन फीसदी की गिरावट आई। वर्ष 2008 से 2018 के बीच स्थिति और बिगड़ गई। इन 10 वर्षों दौरान पैदावार 39 फीसदी तक कम हुई है और 0.6 फीसदी क्षेत्र भी घटा है। पैदावार में कमी का सीधा असर उत्पादकों पर पड़ता है।

कर्नाटक ग्रोवर्स फेडरेशन के यूएम तीर्थमल्लेश फोन पर गांव कनेक्शन से कहते हैं, " कॉफी उत्पादक कर्ज नहीं चुका पा रहे हैं। बागानों की देखभाल नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में वे कॉफी बागान बेचकर अपना कर्ज उतार रहे हैं। बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही हे। इस पूरे कारोबार से लगभग 25 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है। इसमें डेढ़ लाख कॉफी उत्पादक हैं। कॉफी किसान लगातार नुकसान उठा रहे हैं। लेबर अब यहां से छोड़कर जा रहे हैं क्योंकि उन्हें अब यह सेक्टर सुरक्षित नहीं लग रहा।"

प्रदेश के कॉफी बागानों को इस समय 80 हजार से ज्यादा मजदूरों की जरूरत है। काम घटने की वजह से मजदूरों की आय भी प्रभावित हुई है जिस कारण वे दूसरी जगहों पर जा रहे हैं।

कॉफी किसानों की स्थिति कैसे सुधरेगी इस बारे में तीर्थमल्लेश सरकार से मांग करते हुए कहते हैं, " कर्नाटक के कॉफी उत्पादकों पर 8000 करोड़ रुपए का कर्ज है, सरकर को इसे माफ करना चाहिए। साथ सरकार को यह तय करना चाहिए कि बीपीएल कार्ड धारकों को भी राशन के समय कॉफी वितरित किया जाये, सेना के लिए भी कोटा फिक्स हो। कई कॉफी उत्पादक देश जैसे वियतनाम, ब्राजील में बहुत कम दरों में ब्याज दिया जाता है लेकिन हमारे यहां यह 12 फीसदी है। केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करके इसे ज्यादा से ज्यादा से 3 फीसदी पर लाना चाहिए।"

वर्ष 2018-19 में एक एकड़ रोबस्टा कॉफी में आने वाली लागत और आमदनी का पूरा ब्योरा। सोर्स- कर्नाटक ग्रोवर्स फेडरेशन

बाजार की कीमतों में लगातार गिरावट और अनिश्चित मौसम के अलावा बढ़ती लागत ने किसानों का दुख और बढ़ाने का काम किया है। पिछले आठ वर्षों में लागत 2.6 गुना बढ़ी है। डीएपी, यूरिया, पोटाश, रॉक फॉस्फेट, सुफला जैसे उर्वरकों की कीमत 2011 में कुल मिलाकर 1560 पर बोरी के आसपास थी जो इस समय 4,030 रुपए हो गई है।

पोटेशियम क्लोराइड (MOP) जैसे उर्वरकों की कीमत वर्ष 2011 में 250 रुपए बोरी थी जो अब 945 रुपए बोरी है। पोटाश कॉफी के पौधों के लिए सबसे जरूरी उर्वरक है। इसी तरह डीएपी वर्ष 2011 में 500 रुपए प्रति बैग था जो अब 1,440 रुपए बैग है। यूरिया की कीमत जरूर इन आठ वर्षों में 15 रुपए कम हुई है। सुफला 290 रुपए बोरी से बढ़कर 1030 रुपए पहुंच चुका है।

वर्ष 2011 से वर्ष 2019 के बीच उर्रवरकों की बढ़ती कीमतें। 

कॉफी बोर्ड ऑफ इंडिया के सदस्य डॉ जीएस महाबला गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "अभी राहत देने के लिए हम किसानों को मुआवजा देने जा जरहे हैं। जिन किसानों की फसल भारी बारिश से खराब हुई है मार्च तक उन सभी की पहचान हो जायेगी। बोर्ड आगे की प्लानिंग भी कर रही है कि कैसे किसानों को नुकसान से बचाया जाये।"

वहीं कॉफी बोर्ड ऑफ इंडिया के पूर्व सदस्य डॉ प्रदीप एनके कहते हैं, " जिन किसानों ने कॉफी की खेती बंद कर दी है वे कम कीमतों में ही अपनी जमीन बेच रहे हैं और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए दूसरे काम की ओर रुख कर रहे हैं। कॉफी का व्यवसाय इस समय अर्थ संकट से जूझ रहा है। लागत बढ़ने के कारण कॉफी की कीमत बहुत नीचे चली गई है। यह सही समय है कि केंद्र और प्रदेश सरकार इस क्षेत्र के लिए जरूरी कदम उठाये। नहीं तो एक समय ऐसा भी आयेगा जब व्यवसाय से कुछ लोग ही जुड़े रहेंगे।"

कॉफी क्षेत्र का देश और प्रदेश की जीडीपी में महत्वपूर्ण योगदान है। कॉफी इंडस्ट्री कर्नाटक के कुल सकल घरेलू उत्पाद में 4 फीसदी की हिस्सेदार रखता है। देश में विदेशी मुद्रा लाने के मामले में भी इस इंडस्ट्री का खासा योगदान है। वर्ष 2017-18 में कॉफी निर्यात करके दूसरे देशों से 6165 करोड़ रुपए का कारोबार किया।

कॉफी से विदेशों से आने वाले पैसों का ब्योरा। सोर्स- कॉफी बोर्ड ऑफ इंडिया।

अंतरर्राष्ट्रीय कॉफी संगठन (इंटरनेशन कॉफी ऑर्गनाइजेशन) का अनुमान है कि दुनियाभर में लगभग 25 मिलियन किसान 60 देशों में कॉफी उगाते हैं, और इनमें से 90% से अधिक छोटे उत्पादक हैं और वर्तमान में उत्पादन की लागत से नीचे अपनी उपज को अच्छी तरह से बेचने के लिए मजबूर हैं। इसने उनमें से कई को गहरे कर्ज में धकेल दिया है और कुछ ने शहरों की ओर पलायन करने के लिए अपने खेतों को भी छोड़ दिया है।

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