वाजपेयी जी और इस संपादक के बीच हुए इस पत्र व्यवहार को हर पत्रकार को पढ़ना चाहिए
करीब चार दशक तक भारतीय राजनीति के दिग्गज नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी का गुरुवार को 93 साल की उम्र में निधन हो गया। इस मौके पर उनसे जुड़ा एक दिलचस्प वाकया साझा कर रहे हैं कथाकार और पत्रकार आशुतोष भारद्वाज
आशुतोष भारद्वाज
अटल बिहारी वाजपेयी के कवि स्वभाव का अक्सर ज़िक्र होता है। वे एक उत्कृष्ट कवि भले न थे, हिंदी साहित्य के इतिहास में भले उनकी कोई बहुत उल्लेखनीय जगह नहीं बनेगी, लेकिन एक घटना साहित्य के प्रति उनकी दृष्टि और प्रेम को अच्छे से साबित करती है। वे उन दिनों भारत सरकार में विदेश मंत्री थे, कविताएँ भी लिखा करते थे। उन्होंने अपना एक गीत उस समय के प्रतिष्ठित हिंदी प्रकाशन 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में भेजा जिसके सम्पादक क़द्दावर लेखक मनोहर श्याम जोशी थे, जो वाजपेयी से नौ साल छोटे थे।
बात आयी-गयी हो गयी, यह गीत 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में नहीं छपा। वाजपेयी इंतज़ार करते रहे। आख़िर में उन्होंने पच्चीस अगस्त १९७७ को अपने अधिकारिक लेटरहेड पर एक ख़त सम्पादक को लिखा जो शायद किसी भी भारतीय केंद्रीय मंत्री का किसी संपादक को लिखा सबसे विरला ख़त रहा होगा।
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"प्रिय संपादक जी,
जयराम जी की…समाचार यह है कि कुछ दिन पहले मैंने एक अदद गीत आपकी सेवा में रवाना किया था। पता नहीं आपको मिला या नहीं…नीका लगे तो छाप लें नहीं तो रद्दी की टोकरी में फेंक दें। इस सम्बंध में एक कुंडली लिखी है —
क़ैदी कवि लटके हुए,
संपादक की मौज;
कविता 'हिंदुस्तान' में,
मन है कांजी हौज;
मन है कांजी हौज,
सब्र की सीमा टूटी;
तीखी हुई छपास,
करे क्या टूटी-फूटी;
कह क़ैदी कविराय,
कठिन कविता कर पाना;
लेकिन उससे कठिन,
कहीं कविता छपवाना!"
इसके बाद जोशीजी ने भी एक जवाबी चिट्ठी भेजी
"आदरणीय अटलजी महाराज,
आपकी शिकायती चिट्ठी मिली। इससे पहले कोई एक सज्जन टाइप की हुई एक कविता दस्ती दे गए थे कि अटलजी की है। न कोई ख़त, न कहीं दस्तखत…आपके पत्र से स्थिति स्पष्ट हुई और संबद्ध कविता पृष्ठ १५ पर प्रकाशित हुई। आपने एक कुंडली कही तो हमारा भी कवित्व जागा —
"कह जोशी कविराय
सुनो जी अटल बिहारी,
बिना पत्र के कविवर,
कविता मिली तिहारी;
कविता मिली तिहारी
साइन किंतु न पाया,
हमें लगा चमचा कोई,
ख़ुद ही लिख लाया;
कविता छपे आपकी
यह तो बड़ा सरल है,
टाले से कब टले, नाम
जब स्वयं अटल है।"
आज जब साहित्य और सत्ता का सम्बंध संकटग्रस्त है, सत्ता रचनाकार को निरर्थक समझती है, अगर लेखक पुरस्कार लौटाते हैं तो सत्ता उन पर तमाम आरोप लगाती है, ख़ुद साहित्य भी सत्ता के सामने लोट लगाता नज़र आता है, तमाम राजनेता प्रख्यात 'लिट फ़ेस्ट' के मुख्य सितारे बने होते हैं, यह याद कर आश्चर्य होता है कि बहुत समय नहीं बीता है जब देश के सर्वोच्च नेता साहित्य को बड़े आदर से बरतते थे। क्या आज कोई मंत्री है जो सम्पादक को इतना सम्मान देगा? अपनी कविता बड़े अदब से भिजवाएगा, उसके प्रकाशन की प्रतीक्षा करेगा? और अगर नहीं प्रकाशित होगी तो किसी चमचे से कहलवाने के बजाय ख़ुद ही सम्पादक को पत्र लिखेगा?
अटल और जोशी के बीच का पत्र-संवाद स्वतंत्र भारत की राजनीति का वह दुर्लभ लम्हा है जिसे वर्तमान पीढ़ी ने शायद हमेशा को खो दिया है। भारतीय इतिहास में सत्ता ने साहित्य को अमूमन बड़े अदब से बरता है। संस्कृत ग्रंथों में कवि को बड़ा महत्व दिया गया है, नाट्यशास्त्र में तो ख़ुद ब्रह्मा नाट्य विधा को पाँचवा वेद घोषित करते हैं। अनेक राजा कवियों को प्रश्रय दिया करते थे। कालिदास, बाणभट्ट इत्यादि महान रचनाकार राज्य कवि हुआ करते थे। यह परम्परा मुग़ल काल में भी कई जगह बनी रही थी।
मसलन दारा शिकोह ने उपनिषदों के अनुवाद फ़ारसी में करवाए थे। आज़ादी की लड़ाई साहित्यकार और राजनेता ने मिलकर लड़ी थी। टैगोर, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी इत्यादि रचनाकारों का गाँधी, सुभाष चंद्र बोस सरीखे नेता बड़ा सम्मान करते थे। नेहरु ने तो अज्ञेय के कविता संग्रह की भूमिका भी लिखी थी।
अस्सी के दशक के बाद लेकिन राजनीति के लिए साहित्य हेय होता गया। साहित्य राजनीति के लिए एक अनिवार्य नैतिक प्रश्न की तरह खड़ा रहता था। सत्ता साहित्य के आइने में अपनी विकृतियों को देखती थी। यह कह सकते हैं कि जिस क्षण भारतीय राजनीति ने साहित्य को दोयम दर्जे की चीज़ माना, राजनीति ने अपने यक्ष प्रश्न को खो दिया, निरंकुश होने की राह पर चल पड़ी।
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अटल और जोशी के इस संवाद को सत्ता और पत्रकारिता के वर्तमान सम्बंध से भी जोड़ कर देखा जा सकता है। आज सत्ता पत्रकार को फुसलाती, धमकाती है। तमाम क़िस्म के दबाब डालती है। तमाम पत्रकार सत्ता की आरती उतारते नज़र आते हैं। तमाम अख़बार और चैनल सत्ता के मुखपत्र बन जाने को तैयार खड़े रहते हैं, लेकिन एक समय ऐसा भी था जब भारत सरकार के विदेश मंत्री को अपनी रचना छपवाने के लिए सम्पादक से अनुरोध करना पड़ता था।
अटल बिहारी वाजपेयी की मृत्यु पर बहुत कुछ लिखा-कहा जाएगा, लेकिन उनके अनुयायियों को अगर इस नेता को वाक़ई स्मरण करना है तो उन्हें इस पत्र को आत्मसात करना चाहिए।वाजपेयी जी और इस संपादक के बीच पत्र व्यवहार हर पत्रकार को पढ़ना चाहिए।
(कथाकार और पत्रकार आशुतोष भारद्वाज इन दिनों भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फैलो हैं। माओवादी आंदोलन पर उनकी किताब कई भाषाओं में शीघ्र प्रकाश्य है।)