आरसीईपी के बाद क्या खरीदेंगे विदेशों से और बेचेंगे क्या?

Update: 2019-10-30 07:16 GMT

भारत 16 देशों के मुक्त व्यापार समझौते में बंधने की प्रक्रिया के आखिरी पड़ाव पर है। आरसीईपी यानी रीजनल कोम्प्रेहेंसिवे इकनोमिक पार्टनरशिप नाम के इस व्यापार समझौते को समझने परखने की सरकारी प्रक्रिया पूरी होती दिख रही है। देशभर में तमाम राजनीतिक, औद्योगिक और किसान संगठनों ने इस समझौते के खिलाफ अपना विरोध भी दर्ज करा दिया है। यह पहली बार है कि बुद्धिजीवी या विशेषज्ञ वर्ग के आलावा आमतौर पर सरकार के समर्थन में दिखने वाली कुछ संस्थाएं और कुछ केंद्रीय मंत्री भी इस करार से होने वाले खतरों के बारे में चेता रहे हैं। लिहाजा अब समझना यह है कि इस समझौते को लेकर इतनी आशंकाएं आखिर हैं क्यों? साथ साथ यह भी एक बार फिर दोहरा लेना चाहिए कि आरसीईपी नाम की यह अंतरराष्ट्रीय भागीदारी है क्या? इस समझौते का आगा पीछा देखने का यही आखिरी मौका है।

आरसीईपी 16 देशों के बीच में होने वाला एक ऐसा समझौता है जिसमें बंधने के बाद दूसरे देश भारत से उम्मीद लगा रहे हैं कि करीब 90 फीसद उत्पादों पर आयात शुल्क हट जाएं या बेहद कम कर दिया जाए। गौरतलब है कि इन 16 देशों की जनसँख्या दुनिया की कुल आबादी की 50 फीसद है। अगर आबादी के लिहाज़ से देखें तो भारत की तरफ से इतने बड़े बाजार से जुड़ने के फायदे का तर्क दिया जा सकता है। लेकिन बाकी देशों का इतना सारा माल भारत जैसे बड़े बाजार में खपाए जाने का खतरा भी उतना ही बड़ा है। बल्कि उससे भी ज्यादा बड़ा है। इसलिए इस समझौते पर बस इतना सा सवाल है कि क्या वाकई इस समझौते से भारत को नए बाजार मिल सकते हैं? या फिर इसके उलट अपने बाजारों का जो हिस्सा दुसरे देशों से अभी तक बचा कर रखा गया है वह दूसरे देशों के सस्ते उत्पादों के हाथ लग जाएगा?

अभी तक आयात शुल्क भारतीय बाजारों में घरेलू उत्पादकों को सुरक्षा दिए रखते थे। अब जब समझौते में बंधे बाकी देशों के उत्पादों पर आयात शुल्क कम या हट जायेगा तो अपने घरेलू उत्पादक चीन, जापान, कोरिया, न्यूजीलैण्ड आदि देशों के सस्ते माल से कैसे मुकाबला कर पाएंगे? यही चिंता कई लोगों को सता रही है।


ऐसी स्थिति में सरकार से कुछ अपेक्षाएं की जा सकती है। मसलन इन आशंकाओं को दूर करने के लिए सरल तरीके से देश को यह समझाए कि ऐसे कौन कौन से उत्पाद हैं जो भारत दूसरे देशों से सस्ते और ज्यादा मात्रा में बनाता है और इनके निर्यात से भारतीय उत्पादकों को खुले बाजारों का लाभ मिलेने की कितनी संभावना है?

अभी तक भारत का जो अनुभव रहा है उनमें ऐसे मुक्त व्यापार यानी फ्री ट्रेड समझौतों का लाभ ज्यादातर दुसरे देश उठा ले जाते हैं। इसका प्रमाण पिछले कुछ वर्षों में हमारा बढ़ता व्यापार घाटा है। ऐसे फ्री ट्रेड समझौते पहले भी होते रहे हैं। गौरतलब है कि आरसीईपी समझौते में शामिल 15 दूसरे देशों में से 13 देशों के साथ भारत का पहले से ही व्यापार घटा है। चीन, जापान, कोरिया और दूसरे कई आसियान देशों के साथ पुराने समझौतों के बाद भारत ने आयात ज्यादा किया और निर्यात कम। इससे व्यापार घाटा बढ़ता गया। इसलिए ऐसे किसी समझौते से पहले एक विश्लेषण इस बात का भी होना चाहिए कि भारत के पास जो उत्पाद अधिशेष मात्रा में हैं या दूसरे देशों के मुकाबले जिन वस्तुओं के उत्पादन की लागत भारत में कम हैं वैसे उत्पादों की मांग समझौते में शामिल दूसरे देशों में है भी या नहीं?

इसी के साथ एक और पैमाना यह बनना चाहिए कि जो उत्पाद दुसरे देशों के पास अधिशेष यानी उनकी अपनी जरूरत से ज्यादा हैं या हमसे सस्ते दाम में उपलब्ध हैं उनकी मांग हमारे बाजार में कितनी है और क्या हमारे घरेलू उत्पादक उस मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं? क्‍योंकि अगर वह उत्पाद अपने देश में कम मात्रा में उपलब्ध हों तब तो ऐसे समझौते को जनता के लिए लाभदायक सिद्ध जरूर किया जा सकता हैं। क्योंकि तब जनता को वे चीज़ें सस्ते में मिलेंगी। लेकिन अगर भारतीय उत्पादक वही वस्तुएं घरेलू खपत की जरूरत के हिसाब से पर्याप्त मात्रा में पहले से बना रहे हैं तो दूसरे देशों का सस्ता माल घरेलू उत्पादकों के लिए देसी बाजार खत्म कर देगा। इन्ही आशंकाओं के कारण आरसीईपी समझौते से पहले व्यापारी और उत्पादक वर्ग चिंता और भय में है। समझौते के पहले ये चिंताएं दूर की जानी जरूरी हैं।


किसी भी द्विपक्षीय या बहुपक्षीय समझौते से पहले उस समझौते से जुड़े हितग्राहियों और व्यापारियों को लाभ हानि की जानकारी दिए जाने से आशंकाएं खत्म की जाती हैं। गौरतलब है कि एक या दो नहीं बल्कि कृषि, दूध, दवाइयां, ऑटोमोबाइल, रत्न आभूषण, स्टील, टेक्सटाइल जैसे कई क्षेत्र इस डर में हैं कि कहीं उनका अपना घरेलू बाजार न छिन जाए। वह भी उस मंदी के माहौल में जब अर्थव्यवस्था में तरलता बढाने के लिए घरेलू मांग बढाने के उपाय सोचे जा रहे हैं।

करार की गोपनीयता के आधार पर ज्यादा जानकारियां सामने नहीं आ पा रही हैं। लेकिन इस समझौते में शामिल उत्पादों की सूची देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि किन किन क्षेत्रों पर आयात शुल्क हटने या कम होने का असर पड़ सकता है। मसलन दुग्ध उत्पादक खासे नाराज़ नज़र आ रहे हैं। उनकी नाराज़गी वाजिब है। क्योंकि इस समय अपने देश में जरूरत के हिसाब से दूध का पर्याप्त उत्पादन हो रहा है। अब अगर न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे दुग्ध अधिशेष देशों के साथ इस क्षेत्र में शुल्क मुक्त व्यापार समझौता हो जाता है और अपना दुग्ध बाजार दूसरे देशों के लिए खोल दिया जाता है तो दुग्ध उत्पादन और डेरी व्यापार से जुड़े करोड़ों लोगों की आजीविका पर सीधा असर पड़ना तय है।

वैसे सबसे बड़ा संकट कृषि क्षेत्र के सामने है। इस समझौते के बाद लगभग सभी कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क कम या खत्म होने का अंदेशा जताया गया है। इस समय भारतीय किसान जिस मुफलिसी में है वह बाहरी प्रतिस्पर्धा का मुकाबला करने में कतई सक्षम नहीं है। दूसरे देशों में कृषि में जितना निवेश किया जाता है और जितनी सरकारी सब्सिडी दी जाती हैं उससे वहां के किसानों की उत्पादन लागत बहूत कम आती है। उन देशों में विकसित प्रौद्योगिकी के कारण प्रति हैक्टेयर उपज भी ज्यादा होती है भारतीय किसान उतने सस्ते उत्पादों का मुकाबला नहीं कर सकता। अगर सिर्फ नफे नुकसान के आधार पर सोचें तो बेशक भारत में घरेलू उत्पाद से ज्यादा सस्ते विदेशी कृषि उत्पाद उपलब्ध हो सकते हैं। लेकिन वैसी हालत में अपने देश की अधिसंख्य आबादी जो खेती किसानी में लगी है उसके लिए तो आजीविका का साधन तक नहीं बचेगा। ऐसे में एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में तो एकबारगी कृषि को आउटसोर्स यानि बाहरी उत्पादकों के हवाले किया जा सकता है लेकिन एक कल्याणकारी राज्य रूपी देश में इतनी बड़ी आबादी के लिए कोई वैकल्पिक रोजगार का साधन ढूंढे बगैर उनके उत्पाद का बाजार छिन जाना न अर्थशास्त्र के नजरिए से सही है और न ही मानवता के लिहाज़ से। 

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