इस चुनाव में गन्ने का कसैलापन कौन चखेगा ?

LokSabha Election 2019: चुनावी घमासान में आरोप प्रत्यारोप का दौर तेज है। पाकिस्तान से लेकर आसमान को मुद्दा बनाया जा रहा है। लेकिन नेताओं की चुनावी रैलियों और पोस्टरों से किसानों के मुद्दे गायब हैं, गांव से जुड़े मुद्दे गायब हैं। गांव कनेक्शन अपनी सीरीज इलेक्शन कनेक्शन के जरिए आपसे जुड़े इन्हीं मुद्दों को प्रमुखता से उठाएगा।

Update: 2019-04-07 05:02 GMT

मिथिलेश दुबे/रणविजय सिंह

लखनऊ। गन्ना तो वैसे अपनी मिठास के लिए जाना जाता है, लेकिन इस लोकसभा चुनाव 2019 में यह राजनीति पार्टियों के लिए कसैला भी साबित हो सकता है। ऐसे में सवाल यह भी है कि गन्ने को सीढ़ी बनाकर राजनीति चमकाने वाले लोगों में से गन्ने का कसैलापन किसके हिस्से आयेगा।

पिछले साल उत्तर प्रदेश की कैराना सीट पर जब भाजपा की हार हुई थी तब अखबार और चैनलों पर एक हेडिंग "हार गया जिन्ना, जीत गया गन्ना"। भारत में गन्ने की सबसे ज्यादा पैदावार उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में होती है। इन दोनों प्रदेशों पर नजर डालें तो कुल 60 से ज्यादा ऐसी लोकसभा सीटें हैं जहां की प्रमुख फसल गन्ना है और यहां के लाखों के किसान अपनी सरकारों से नाराज हैं। कहीं मुद्दा कर्ज है तो कहीं समय पर भुगतान न होना।

शुरुआत उत्तर प्रदेश से करते हैं। पिछले दिनों खबरों में प्रदेश के गन्ना किसानों का बकाया खूब छाया रहा। क्या कांग्रेस, क्या बसपा, सभी भाजपा की योगी सरकार को घेरा। दबाव में आई सरकार ने फौरी राहत देने की पहल भी शुरू की। प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने वादा किया था कि अगर प्रदेश में उनकी सरकार आयी तो गन्ना किसानों का भुगतान 14 दिनों के अंदर हो जायेगा। बस यही वादा उनके गले की फांस बनता दिख रहा।

मायावती के इस ट्वीट के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी बसपा को घेरा और ट्विटर पर लिखा.....

मुजफ्फरनगर के बागोवाली गांव के किसान इनाम बताते हैं, ''पहले पेमेंट का हिसाब-किताब बहुत खराब था। आठ महीने-साल भर इंतजार करने के बाद कहीं पेमेंट आता था। ऐसे में किसान इस दौरान कर्ज में डूब जाता था। राज्य में नई सरकार आने के बाद पेमेंट में कुछ सुधार हुआ है, पर अभी बहुत काम करना बाकी है। मेरा18 जनवरी तक का पेमेंट आ गया है। अगर इसे 14 दिन के हिसाब से देखें तो यह उसके आस पास भी नहीं है।''

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इनाम की तरह ही मुजफ्फरनगर के कुटबी गांव के ऋषिपाल सिंह बताते हैं, ''पेमेंट में सुधार हुआ है। अब करीब-करीब दो महीने में पेमेंट आ जाता हैं, लेकिन अलग-अलग चीनी मिल का अलग-अलग हिसाब है। मेरा तितावी चीनी मिल से 18 जनवरी तक का पेमेंट आ गया है। वहीं, शामली के चीनी मिल का हिसाब अलग है। वहां कई लोग का नवंबर तक का पेमेंट बकाया है। ऐसे में चुनाव में यह मुद्दा होना जरूरी है।'' मुजफ्फरनगर में कुल आठ चीनी मिले हैं। इनमें से पेमेंट के मामले में शामली मिल का हाल सबसे बुरा है।

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उत्तर प्रदेश के 40 लोकसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां गन्ने की बंपर पैदावार होती है। ये मिलकर देश का 40 फीसदी से गन्ना उत्पादित करते हैं। इनमें से आठ सीटें ऐसी हैं जहां पहले चरण में ही मतदान होना है। लेकिन यहां के किसानों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इनका लगभग 10 हजार करोड़ रुपए का भुगतान रुका हुआ है (इंडियन एक्प्रेस की रिपोर्ट के अनुसार)। यह स्थिति तब है जब प्रदेश सरकार 14 दिनों में ही भुगतान करने का वादा करती है।

इन 40 में से 15 सीटें ऐसी हैं जो गन्ना बेल्ट के अंतर्गत आती हैं और पश्चिमी यूपी तो पूरे देश में गन्ने के लिए ही जाना जाता है। यहां की आठ सीटों पर लड़ाई का मुद्दा गन्ना भी होता है। यहां के लगभग 50 लाख परिवारों के दो करोड़ से ज्यादा वोटर गन्ने से होने वाली कमाई पर ही आश्रित हैं। लेकिन ये किसान परेशान हैं।


पश्चिमी यूपी में ही एक जिला है कैराना। फरवरी 2018 में भाजपा के सांसद हुकुम सिंह की मौत के बाद हुए यहां चुनाव में भाजपा को सीट गंवानी पड़ी थी। आरएलडी (राष्ट्रीय लोक दल) की प्रत्याशी तब्सुम बेगम ने भाजपा प्रत्याशी मृगांका सिंह हो हराया तो इसकी चर्चा पूरे देश में हुई। आरएलडी ने सपा और बसपा से गठबंधन किया था। इस जीत के बाद भाजपा पर तंज कसते हुए रालोद के नेता जयंत चौधरी ने कहा था कि "हार गया जिन्ना, जीत गया गन्ना"। इस चुनाव से कुछ दिनों पहले ही प्रदेश में मुखिया योगी आदित्यनाथ ने भाजपा की प्रत्याशी मृगांका सिंह के पक्ष में चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि गन्ना किसानों के लिए हम काम करेंगे, गन्ना हमारा मुद्दा है, लेकिन हम जिन्ना की फोटो भी नहीं लगने देंगे।

गन्ना का हाल भी कुछ प्याज की तरह है। इस पर बात हमेशा होती है लकिन जमीनी हकीकत उससे उलट दिखती है। भारत के दो बड़े प्रदेशों महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के उन क्षेत्रों के किसान जहां गन्ना पैदा होती है वे तमाम सरकारी वादों और कवायदों के बाद भी समय पर भुगतान न होने से हमेशा दुखी रहते हैं।

राष्ट्रीय किसान यूनियन संगठन के नेता अदित चौधरी कहते हैं कि किसानों की बात तो सब करते हैं लेकिन काम कोई कुछ नहीं करता। सभी पार्टियों का हाल एक जैसा ही है। 14 दिन में तो भुगतान किसी का हुआ ही नहीं।"

जब समय पर भुगतान नहीं होता तो किसानों पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है हमें बताया पश्चिमी यूपी के जिला मुजफ्फरनगर के गांव बागोवाली के युवा किसान आस मोहम्मद ने। आस मोहम्म्द गन्ने की खेती से इतना उचट गए कि उन्होंने इसकी खेती करनी ही बंद कर दी। वो कहते हैं, ''हमारे किसान भाई कहते हैं कि यह मुनाफे का सौदा है, मैं कहता हूं इससे घाटे का सौदा कुछ नहीं हो सकता।''

आस मोहम्मफद अपनी बात को समझाते हुए कहते हैं, ''मान लीजिए कोई दुकानदार है जो अपना सामान ग्राहक को उधार दे रहा है। उधार देने के बाद यह गारंटी नहीं कि उधार लेने वाला ग्राहक कब तक आपके पैसे देगा। ऐसे में दुकान पर तो असर होगा ही साथ ही दुकानदार भी मानस‍िक तनाव में रहेगा। यही हो रहा है। अभी दुकानदार है जो अपना सामान उधार में बेच रहा है और ग्राहक शुगर मिल है जो पेमेंट कब करेगा कुछ पता नहीं।''


आस मोहम्म बताते हैं, ''2016 में मेरी बहन की शादी हुई। उस वक्त मैंने अच्छा गन्ना लगाया था। सब मिल में गया था, लेकिन उसका पेमेंट सही समय पर नहीं हुआ। ऐसे में मुझे अपनी बहन की शादी के लिए कर्ज लेना पड़ा। उस कर्ज को चुकाने के लिए मैंने अपनी जमीन बेच दी। यहीं से मुझे बुरा लगा, जमीन बेचते हुए लगा कि अगर यह खेती करता रहा तो एक रोज सब बिक जाएगा। इस लिए मैंने गन्नेम की खेती बंद कर दी। अब मैं मसाले बनाने का काम करता हूं। गांव में ही छोटी से फैक्ट्री लगा रखी है, उससे 10 लोगों को काम भी मिला है और अपना खर्च भी चल रहा है। गन्ने की फसल करता तो मैं भी गन्ने की तरह कोल्हू में पिस रहा होता।''

गन्ना किसानों के समय से पेमेंट की मांग को लेकर भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) भी समय-समय पर आंदोलन करता रहा है। भाकियू की यूथ विंग के अध्यकक्ष गौरव टिकैत मानते हैं कि चुनाव का असल मुद्दा गन्ना। किसानों के पेमेंट में होने वाली देरी का ही है। वो कहते हैं, ''नेता और पार्टी वही अच्छी जो किसानों का सोचे। इस सरकार में स्थिति सुधरी है, लेकिन सरकारी चीनी मिलों की, प्राइवेट चीनी मिल अब भी पेमेंट देने में आना-कानी कर रहे हैं।"

गौरव टिकैत पेमेंट के लिए अपना एक फॉर्मूला भी बताते हैं। उनके मुताबिक, ''प्राइवेट चीनी मिल मालिकों के और भी कई कारोबार हैं। किसानों का पैसा उन कारोबार से लेकर दिया जाए़। क्योंकि जो प्रक्रिया अभी है वो किसी तरह से किसानों के लिए लाभकारी नहीं है। किसान अपनी मेहनत से उगायी फसल मिल में छोड़ आता है और फिर इंतजार करता है कि उसको पैसा मिलेगा। ऐसे में उसे कर्ज लेकर अपना परिवार पालना पड़ता है। इस प्रक्रि‍या को बदलना चाहिए और जो भी बकाया है वो मिल मालिकों के दूसरे उद्योगों से वसूलना चाहिए, ताकि किसानों का समय से पेमेंट हो सके।''

उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के बकाये पर प्रदेश के मंत्री सुरेश राणा ट्विटर पर अपने बयान में कहते हैं....

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पिछले दिनों इस्मा (इंडियन शुगर मिल) की एक रिपोर्ट के अनुसार देशभर की चीनी मिलों पर पहली अक्टूबर 2018 से शुरू हुए चालू पेराई सीजन 2018-19 (अक्टूबर से सितंबर) के मार्च अंत तक बकाया बढ़कर 20,000 करोड़ रुपए पार कर चुका है, जिसमें सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के किसानों का है। साल 2017-18 में देश में चीनी का रिकॉर्ड 3.25 करोड़ टन उत्पादन हुआ, जबकि सालाना घरेलू मांग महज 2.6 करोड़ टन थी। 2018-19 में चीनी का उत्पादन तीन करोड़ टन रहने का अनुमान है।

इस्मा ने यह आशंका भी जताई है कि भारत में चीनी के उत्पादन में गिरावट आ सकती है। इस्मा ने चीनी उत्पादन 3.05 करोड़ टन पर रहने की उम्मीद जताई है, जो उसके 3.55 करोड़ टन के पहले अग्रिम अनुमान की तुलना में बड़ी गिरावट है।

गन्ने की राजनीति में महाराष्ट्र भी मुख्य केंद्र रहा है। पश्चिमी महाराष्ट्र, गन्ना किसानों की भारी संख्या के साथ एक महत्वपूर्ण कृषि बेल्ट है। इसे एनसीपी प्रमुख शरद पवार का गढ़ भी माना जाता है। लेकिन एनडीए ने 2014 में पश्चिमी महाराष्ट्र में मजबूत बढ़त बनाई और एनसीपी के गढ़ में सेंध लगाते हुए अहमदनगर सहित क्षेत्र की 11 सीटों में से सात पर जीत हासिल की। लेकिन अब किसानों की नाराजगी को देखते हुए ऐसा कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र के गन्ना बेल्ट में में शरद पवार की वापसी हो सकती है। राज्य की कुल 48 लोकसभा सीटों में 15 पश्चिमी महाराष्ट्र में हैं।

2014 में स्वाभिमान शेतकरी संगठन (एसएसएस) एनडीए का हिस्सा था और इसके अध्यक्ष राजू शेट्टी ने हातकणगले क्षेत्र से चुनाव लड़ा था। लेकिन दो बार के सांसद शेट्टी अब यूपीए के साथ आ गये हैं। उनकी पार्टी हातकणगले और सांगली से चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस पुणे और सोलापुर से चुनाव लड़ रही है जबकि एनसीपी बाकी सात सीटों पर चुनाव लड़ रही है। जिस दिन राजू शेट्टी की पार्टी एनडीए अलग हुई थी उसी दिन उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी।

राजू शेट्टी कहते हैं "2014 के चुनावों के दौरान मोदी जी ने वादा किया था कि वह स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट को लागू करेंगे, लेकिन उन्होंने किसानों के साथ एक विश्वासघात किया है।"

राजू आगे कहते हैं कि चीनी के लिए न्यूनतम ब्रिक्री मूल्य 31 रुपए प्रति किलो तय है जबकि उत्पादन की लागत है 35 रुपए प्रति किलो आती है। सिर्फ महाराष्ट्र में गन्ना किसानों का करीब 5,000 करोड़ रु. बकाया है। किसान हताश और निराश होकर आत्महत्याएं कर रहे हैं।"

राजू आगे कहते हैं "महाराष्ट्र के गन्ना किसानों को चीनी मिलों से भुगतान में देरी हो रही है इससे राज्य के किसानों पर दोहरी मार पड़ी है। सूखे के चलते राज्य के किसानों को पहले ही आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था। इसलिए राज्य के किसान राज्स सरकार से नाराज हैं। राज्य की चीनी मिलों के पास नकदी की दिक्कत है जबकि पिछले दो साल से देश में चीनी का उत्पादन मांग से ज्यादा हो रहा है। केंद्र सरकार ने चीनी निर्यात को बढ़ावा देने के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाई।"

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गन्ना किसानों के हितों की लड़ाई लड़ रहे राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के संयोजक बीएम सिंह ने कहा कि उत्तर प्रदेश के करीब दो करोड़ गन्ना किसान है, जिनका बकाया चीनी मिलों पर है। इससे किसानों में रोष है जिसका खामियाजा राज्य की भाजपा सरकार के साथ अन्य दलों को भी उठाना होगा। उन्होंने बताया किसानों को हमेशा सरकारों ने मोहरा बनाया है, चाहे वह कांग्रेस की सरकार हो, बसपा या फिर सपा की। इसलिए इस बार लोकसभा चुनाव में किसानों ने नोटा का बटन दबाने का फैसला किया है। केंद्र हो या फिर राज्य सरकार गन्ना किसानों के नाम पर चीनी मिलों को फायदा पहुंचा रही हैं।

सरकार ने क्या किया

केंद्र सरकार ने 8 मार्च 2019 को चीनी मिलों को 10 हजार करोड़ रुपए के सॉफ्ट लोन प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। इससे पहले जून 2018 में भी 4,400 करोड़ का सॉफ्ट लोन देने की बात हुई थी। सरकार का कहना था इन पैसों से कम्पनियां एथेनॉल का उत्पादन बढ़ाएंगी ताकि किसानों के बकाये का भुगतान समय पर हो सके। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र सरकारें भी कंपनियों को समय-समय पर सॉफ्ट लोन देती रही हैं।

केंद्र सरकार ने हाल ही में चीनी उद्योग के आग्रह पर चीनी के न्यूनतम बिक्री मूल्य दो रुपये प्रति किलो बढ़ाकर 31 रुपए किलो कर दिया था। इसके आलावा सितंबर 2018 में एथेनोल का भाव भी बढ़ाया गया था। बावजूद इसके किसानों का बकाया लगातार बढ़ रहा है।

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