जेकब पूरी तरह भारतीय थे

Update: 2016-01-25 05:30 GMT
गाँव कनेक्शन, संवाद, शेखर गुप्ता

यहभारतीय सैन्य इतिहास के विरोधाभासों में से एक है कि जिन अभियानों में हमारा प्रदर्शन खराब रहा (वर्ष 1962 में चीन और वर्ष 1965 में पाकिस्तान के साथ जंग) उन्हें दस्तावेजों में बेहतर ढंग से दर्ज किया गया है, बजाय सन् 1971 के उस अभियान के जिसमें हमें सीधी विजय प्राप्त हुई। सेना ने सन् 1971 के अभियान को 'ऑपरेशन कैक्टस लिली' का नाम दिया था। मैं इसका अर्थ नहीं बता सकता लेकिन शायद इसका अर्थ रहा होगा पूर्व में सख्त आक्रामक कार्रवाई जबकि पश्चिमी क्षेत्र को नाजुकी से संभालना। लेकिन इन दोनों ही क्षेत्रों के बारे में पर्याप्त नहीं लिखा गया है। शायद ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सैन्य निराशा की पीड़ा अधिक रचनात्मक आत्मावलोकन के लिए प्रेरित करती है या फिर शायद ब्रिटिश परंपरा ने उनको बेहतर लेखन की शैली विरासत में सौंपी थी। 

वर्ष 1971 की सबसे बड़ी कमी है सैम मानेकशॉ द्वारा कोई विवरण न लिखा जाना। लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, जिन्होंने पूर्वी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ के रूप में बांग्लादेश अभियान का नेतृत्व किया था, ने ऑपरेशन ब्लू स्टार और वर्ष 1984 में सिख नरसंहार के पहले तक लिखना शुरू नहीं करने का फैसला किया था। इन घटनाओं के बाद उन्होंने कुछ आलेख लिखे। उन्होंने रोली बुक्स से प्रकाशित 'द पंजाब स्टोरी' में एक खंड का लेखन किया। उस पुस्तक में एक खंड मैंने भी लिखा था। एयर चीफ मार्शल पीसी लाल ने हवाई अभियान का बेहद ईमानदार ब्योरा दिया। बहुत बाद में पीवीएस जगनमोहन और समीर चोपड़ा (दोनों हवाई जंग के विश्वस्तरीय इतिहासकार) ने बेहद निष्पक्ष और शानदार ढंग से इसे दस्तावेज में ढाला। जमीनी अभियान में यह काम वरिष्ठतम सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल जेएफआर जेकब ने किया, जो सन 1971 में पूर्वी कमान में मेजर जनरल के रैंक पर चीफ ऑफ स्टाफ थे और अपने जीओसी लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा के नायब भी। 

जैसा कि ऐसे मामलों में अक्सर होता है, 'सरेंडर इन ढाका' और 'ऑडिसी इन वार एंड पीस' नामक ये रचनाएं अपूर्ण नजर आती हैं। दरअसल ये दोनों किताबें व्यक्ति विशेष का नजरिया हैं जिनको कोई चुनौती नहीं दी जा सकती। जेकब या जैक (अपने दोस्तों से वह खुद को यही पुकारने को कहते थे। यहां तक कि 35 साल छोटा मैं भी उन्हें यही कहता था) बहुत पढ़े लिखे थे और तमाम मित्र उनकी सराहना करते थे। जैक का प्रशंसक होने के बावजूद मुझे भी लगता है कि उनके प्रेक्षण में मानेकशॉ अनुपस्थित जमींदार की तरह नजर आते हैं जबकि अरोड़ा बेहद नरम और दब्बू नहीं तो भी सहनशील दिखते हैं। लेकिन अगर किसी ने इस बात को चुनौती नहीं दी तो उनकी बात को नकारा नहीं जा सकता। वह अच्छे लेखक थे, उनकी स्मृति अच्छी थी और वह सम्मानित थे। 

गुजरते वक्त के साथ मैं उन्हें और करीब से जानता गया। नई दिल्ली के सोमविहार, पंजाब राजभवन या हमारे घर पर जब भी हम मिलते तो वह हमें दूसरे विश्वयुद्घ के अराकान से लेकर तेजगाँव (ढाका कैंट का तत्कालीन नाम) तक के किस्से सुनाते। उनकी यह शिकायत थी कि भारत सरकार ने कभी उनका सम्मान नहीं किया। वह अक्सर कहते, ''कोई सम्मान नहीं, कोई चक्र, कोई पद्म नहीं।" शायद यह दुख उनकी लेखनी में भी झलकता था। शायद यही वजह है कि 2012 में जब बांग्लादेश ने 90 वर्ष की उम्र में उनको राष्ट्रीय सम्मान दिया तो वह एक खास मौका बन गया था। मैंने उस वक्त 'वाक द टॉक शो' के लिए उनका साक्षात्कार भी लिया था। सेना के लिए उनके मन में सिर्फ  स्नेह और आभार ही था। भारत में उनका कोई परिवार नहीं था क्योंकि वह अविवाहित थे। सेना के कुछ जवानों ने उनकी देखरेख का जिम्मा संभाल रखा था। 

संभवत: हमारी पहली मुलाकात वर्ष 1991 में हुई थी। मैं खाड़ी युद्घ कवर कर इजरायल होते हुए आया था। वह भारत इजरायल रिश्तों के बेहद पक्षधर थे। उनके भाजपा में शामिल होने के बाद हम अक्सर मिलने लगे। मनोहर लाल सोढ़ी के मशविरे पर भाजपा में आए जैकब जल्द ही लालकृष्ण आडवाणी के पसंदीदा हो गए। एक बार मैंने उनसे पूछा था कि उन्होंने भाजपा को ही क्यों चुना, उन्होंने कहा, केवल उन्होंने ही मुझसे इस बारे में पूछा।

उन्हें इजरायल से प्यार था लेकिन वह पूरी तरह भारतीय थे। उन्होंने इजरायल की ज्यादातर नीतियों का समर्थन किया पर कभी मुस्लिमों के खिलाफ नहीं बोला। बल्कि भारतीय मुसलमानों के प्रति तो उन्होंने खूब स्नेेह दिखाया। इजरायल ने अपने राष्ट्रीय संग्रहालय में उनको इतिहास के श्रेष्ठ यहूदी योद्घाओं के बीच जगह दी। वह अपने मित्रों से अक्सर कहते थे, भारत में उनके यहूदी होने का किसी को ध्यान नहीं था। वर्ष 1971 के युद्घ के दौरान प्रोपगंडा के तहत रेडियो पाकिस्तान ने लगातार कहा, भारत ने इस्लामी जगत को नीचा दिखाने के लिए आत्मसमर्पण की बातचीत करने वास्ते एक यहूदी को आगे किया। 

उनके जीवन का सबसे अहम पहलू है, कैसे उन्होंने खुद को इजरायल जाने से रोका जबकि देश के अधिकांश यहूदी इजरायल चले गए। वह भारत के थे और भारत की ओर से इजरायल के लिए बेहतरीन दूत भी। मैं अक्सर चंडीगढ़ जाता रहता था तो राजभवन में हमारी अक्सर मुलाकात हुआ करती थी। वह  बेहद सक्रिय और वाचाल थे जबकि अक्सर राज्यपाल ऐसे नहीं होते। वह तत्कालीन बादल सरकार को बेहद प्रिय थे। वह क्लाउड सीनियर और क्लाउड जूनियर (प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे सुखबीर बादल) के बारे में मजेदार किस्से सुनाया करते थे। ऐसी ही एक मुलाकात में उन्होंने देश में युद्घ स्मारक की कमी का उल्लेख किया। 

मैंने उनसे कहा था कि वह एक जगह तलाश करें और हम वहां एक शानदार युद्घ स्मारक बनाने के लिए संसाधन जुटाएंगे। उन्होंने कहा, ''ठीक है बच्चे। हम एक शानदार और यादगार स्मारक बनाएंगे।" किस्सा यह है कि इंडियन एक्सप्रेस ने अपने पाठकों से अपील कर फंड जुटाया। जैक ने शहर के हरे-भरे इलाके लीशर वैली में एक शानदार जगह दी और लोक निर्माण विभाग ने देश का शानदार स्मारक वहां तैयार किया। जैक ने ही यह भी कहा था कि इसका डिजाइन पीडब्ल्यूडी को मत बनाने दो। हमने इसके लिए एक प्रतियोगिता घोषित की जिसे स्थानीय वास्तुकला विद्यालय की दो छात्राओं ने जीता। अगली बार आप चंडीगढ़ जाएं तो उनका शानदार डिजाइन जरूर देखें। इसका उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने किया था। 

मेरी और उनकी आखिरी मुलाकात 2012 में हुई। उन्होंने मुझे अपनी दूसरी किताब की एक प्रति भेंट की। मैंने सहर्ष उनको अपनी कलम देते हुए कहा कि वह उस पर कुछ लिख दें। उन्होंने लिखने के बाद उस कलम को सराहना भरी नजर से देखा और कहा, ''ओहो! तुम मो ब्लां फाउंटेन पेन का इस्तेमाल करते हो। ऐसी एक कलम मेरे पास भी थी। मेरे भाई ने उसे लिया और खो दिया।" मैंने कहा, ''चिंता की कोई बात नहीं जैक। मैं अगली बार विदेश यात्रा से आपके लिए यह कलम लाऊंगा।" मैंने कुछ समय तक यात्रा नहीं की और एक दिन उनका ई-मेल मिला। उन्होंने मुझे मेरा वादा याद दिलाया था। आखिरकार मैंने हीथ्रो हवाई अड्डों पर स्थित हेरॉड्स की शुल्क मुक्त दुकान से उनके लिए कलम खरीदी और उन्हें भिजवा दी। 

उन्होंने किसी बच्चे की तरह उत्साहित होकर मुझे ई-मेल लिखा, ''ओह! तुम हेरॉड्स पर खरीदारी करते हो, जवानी में मैंने भी की थी।" मेरा मानना यही है कि जैक कभी उम्रदराज नहीं हुए, कभी बड़े नहीं हुए और उनकी छवि कभी धूमिल नहीं पड़ी। वह उन महानतम भारतीयों में शामिल हैं जिनसे मुझे बतौर पत्रकार मिलने का अवसर मिला।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं) 

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