किसानों के लिए सस्ती मशीनें बनाते हैं महाराष्ट्र के राजेंद्र , बोले - इस काम से मिलती है खुशी

Update: 2018-03-01 14:35 GMT

महाराष्ट्र के राजेंद्र लोहार सस्ते कृषि यंत्र बनाने का काम करते हैं, जो किसानों के लिए काफी काम के हैं। खास बात ये है कि राजेंद्र ने मैकेनिकल में किसी भी तरह की कोई डिग्री या ट्रेनिंग नहीं ली है। यहां तक कि उनका किसानी का भी कोई अनुभव नहीं है, जिससे उन्हें ये मीशनें डिज़ाइन करने में मदद मिल सके लेकिन फिर भी वो ये काम बहुत अच्छे से करते हैं।

महाराष्ट्र के जलगाँव ज़िले के पछवाड़ा गाँव के रहने वाले राजेंद्र लोहार ने आर्थिक दिक्कतों के कारण हाईस्कूल में ही पढ़ाई छोड़ दी और मैकेनिक बन गए। उनके पिता जलगाँव की एक तेल मिल में वेल्डर थे और उनको वहां से इतनी तनख्वाह नहीं मिलती थी कि परिवार के सात लोगों का ठीक से पेट भर सके। इसलिए सबसे बड़ा बेटा होने के नाते राजेंद्र ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और परिवार को संभालने के लिए एक गराज में काम करने लगे।

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18 साल किया गराज में काम

इस गराज में उन्होंने 18 साल काम किया और अपने मास्टर से मैकेनिक्स के कई गुण सीखे। इस बीच उन्होंने अपनी तीन बहनों की शादी करने की ज़िम्मेदारी को पूरा किया साथ ही अपने भाइयों की मदद की और फिर जलगाँव में अपना गराज खोल लिया। जलगाँव एक छोटा शहर है और अच्छा काम करने के कारण वह जल्दी ही इस शहर में मशहूर हो गए। वह समय के इतने पाबंद थे कि लोग अपनी गाड़ी ठीक कराने उन्हीं के पास जाते थे। यहीं उन्हें नई मशीन डिज़ाइन करने का भी शौक लगा।

जब लोगों ने उन्हें जाना

सबसे पहले उन्होंने एक कार बनाई जिसमें ऑटो रिक्शा का इंजन लगा था। शहर के लोगों ने उनकी इस कार की बहुत तारीफ की। इसके बाद, 2014 में उनका एक किसान दोस्त मोतीलाल पाटिल उनसे मिलने आया और उसने राजेंद्र को सलाह दी कि उन्हें कुछ ऐसी सस्ती मशीनें बनानी चाहिए जो किसानों के लिए मददगार हों।

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दोस्त ने दिखाया रास्ता

राजेंद्र बताते हैं, ''मेरे पास उस समय कृषि यंत्र बनाने का कोई आइडिया नहीं था लेकिन मेरे दोस्त ने मुझे समझाया कि टिलर कैसे काम करता है और बाकी किसानों के काम आने वाली बाकी मशीनों का क्या काम है। फिर मेरे दोस्त की मदद से मैंने एक छोटा पॉवर टिलर बनाया, जिसमें मैंने स्कूटर का इंजन लगाया और अपने गराज के कुछ कबाड़ का इस्तेमाल किया।'' वह बताते हैं कि टिलर बनाने में मैं 60 प्रतिशत नया माल इस्तेमाल करता हूं व 40 प्रतिशत कबाड़ इस्तेमाल करता हूं।

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किसानों ने की मदद

वह बताते हैं कि मोतीलाल ने इस मशीन का एक साल इस्तेमाल किया और फिर वो मेरे पास वापस आया। उसने मुझे कुछ दिक्कतें बताईं जो उसे उस टिलर का इस्तेमाल करने में आ रही थीं। मोतीलाल के फीडबैक से राजेंद्र ने टिलर में आ रही सभी परेशानियों को दूर कर दिया। इसके बाद राजेंद्र को लगा कि उन्हें और भी बेहतर मशीनें बनाने के लिए किसानों के साथ कुछ समय बिताना चाहिए। इसके लिए वह अपने गाँव पछवाड़ा गए और वहां के कुछ किसानों से मिले। उनके मिलकर राजेंद्र को कई तकनीकों के बारे में और किसानों को क्या चाहिए इस बारे में पता चला। इसके बाद राजेंद्र ने काफी मेहनत की और पहले से कहीं बेहतर एक टिलर बनाया। राजेंद्र बताते हैं कि बाज़ार में बिकने वाले टिलर की कीमत जहां लगभग 1.50 लाख रुपये है वहीं मेरे बनाए हुए इस छोटे टिलर की कीमत सिर्फ 18000 रुपये है।

घास निकालने व बीज बोने में अाता है काम

राजेंद्र अभी भी एक टिलर बना रहे हैं जो लगभग 60 से 70 प्रतिशत पूरा हो चुका है। टिलर का इस्तेमाल खेत में लगी घास निकालने के लिए किया जाता है। इसका इस्तेमाल बैल या ज्यादा मानवीय प्रयासों के बिना आवश्यक दूरी पर बीज बोने के लिए भी किया जा सकता है। इस टिलर पर किसान बैठ कर इसे छोटे ट्रैक्टर की तरह भी इस्तेमाल कर सकते हैं। टिलर में जो गियर लगे हैं उन्हें हाथ और पैरों दोनों से बदला जा सकता है। एक एकड़ में ये टिलर चलाने के लिए 1.5 लीटर पेट्रोल की ज़रूरत होती है जिससे ज़्यादा ज़मीन में लागत काफी कम आती है।

शुरू किया नया गराज

राजेंद्र बताते हैं कि जैसे - जैसे लोगों को मेरी मशीन के बारे में पता चला कई किसान मेरे पास आए और उन्होंने मुझे इस तरह की मशीनें ऑर्डर कीं। कुछ किसानों ने उन्हें कुछ ऐसे प्वाइंट्स भी बताए ताकि वो अपनी मशीनों को बेहतर बना सकें। दो साल पहले, 2015 में राजेंद्र ने अपना जलगाँव वाला गराज अपने यहां काम करने वाले युवकों को दे दिया और खुद वापस पछवाड़ा चले गए। उन्होंने गाँव में अपना गराज 'विश्वकर्मा वेल्डिंग वर्क्स' शुरू किया और यहां मशीनों पर अपना काम करना शुरू कर दिया।

मिलती है खुशी

राजेंद्र अभी तक पांच ऐसी मशीनें बना चुके हैं जो किसानों के लिए काफी काम की हैं। पिछले 2 से तीन सालों में उन्होंने इस मशीनों पर लगभग 1.5 लाख से 2 लाख रुपये खर्च किए हैं लेकिन राजेंद्र कहते हैं कि उन्हें तब खुशी बहुत खुशी होती है तब किसान मेरे पास आते हैं और मुझे आर्थिक मदद देते हैं। राजेंद्र बताते हैं कि वह ईंटें बनाने वाले मशीन भी बनाते हैं जिस पर 6 लोग काम करके 8 घंटे में लगभग 20,000 ईंटें बना सकते हैं। वह बताते हैं कि मुझे इन मशीनों से ज़्यादा आर्थिक लाभ तो नहीं मिलता लेकिन मन को खुशी मिलती है कि मैं कुछ ऐसा कर पा रहा हूं जिससे किसानों का फायदा हो रहा है।

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