लखनऊ। पुराने समय से लेकर आधुनिक समय तक समय के साथ-साथ फसलों की सिंचाई करने के तरीके में काफी बदलाव हुए हैं। पुराने समय में जहां संसाधनों की गैर मौजूदगी के चलते किसानों के लिए फसलों की सिंचाई करना काफी मुश्किल भरा काम हुआ करता था और बेंड़ी, रहट और ढेकुलि से सिंचाई हुआ करती थी तो वहीं आज के समय में सिंचाई व्यवस्था काफी आसान हो गई है और किसान सोलर पंप, ट्यूबवेल आदि से सिंचाई कर रहे हैं। इसके बावजूद तमाम क्षेत्रों में आज भी सिंचाई की उपयुक्त व्यवस्था नहीं होने के कारण किसानों की फसलें बारिश के पानी पर निर्भर हैं।
भारत का कुल क्षेत्रफल 32.8 करोड़ हेक्टेयर है, जिसमें से वर्तमान में 16.2 करोड़ हेक्टेयर (51 प्रतिशत) जमीन पर खेती की जाती है। जबकि लगभग 4 प्रतिशत भूमि पर चारागाह, 21 प्रतिशत भूमि पर वन तथा 24 प्रतिशत भूमि बिना किसी उपयोग (बंजर) की है। 24 प्रतिशत बंजर भूमि में 5 प्रतिशत परती भूमि भी शामिल है, जिसमें प्रतिवर्ष फ़सलें न बोकर तीसरे या पांचवे वर्ष बोयी जाती हैं, जिससे भविष्य में जमीन उपजाऊ हो सके।
इस शुद्ध बोये गये 52 प्रतिशत भू-भाग के मात्र 28 प्रतिशत भाग (4.5 करोड़ हेक्टेयर) भूमि पर ही सिंचाई की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध है, जबकि देश का समस्त सिंचित क्षेत्र 8 करोड़ हेक्टेयर है। इस प्रकार कुल कृषि भूमि के लगभग 72 प्रतिशत भाग पर की जाने वाली कृषि वर्षा पर ही निर्भर करती है। ये आंकड़े bharatdiscovery.org से प्राप्त हुए हैं।
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ये हैं आधुनिक और पारंपरिक सिंचाई के तरीके :-
टपक (ड्रिप) सिंचाई प्रणाली
ड्रिप प्रणाली सिंचाई की उन्नत विधि है, जिसके प्रयोग से सिंचाई जल की पर्याप्त बचत की जा सकती है। यह विधि मृदा के प्रकार, खेत के ढाल, जल के स्त्रोत के अनुसार अधिकतर फसलों के लिए अपनाई जा सकती हैं। इस विधि का उपयोग पूरे विश्व में तेजी से बढ़ रहा है। सीमित जल संसाधनों और दिनों दिन बढ़ती हुई जलावश्यकता और पर्यावरण की समस्या को कम करने के लिए ड्रिप सिंचाई तकनीक बहुत कारगर सिद्ध होगी। जिन क्षेत्रों में भूमि को सममतल करना मंहगा और कठिन या असंभव हो उन क्षेत्रों में व्यावसायिक फसलों को सफलतापूर्वक उगाने के लिए ड्रिप सिंचाई तकनीक सबसे अच्छी विधि है। ड्रिप तंत्र एक अधिक आवृति वाला ऐसा सिंचाई तंत्र है जिसमें जल को पौधों के मूलक्षेत्र के आसपास दिया जाता है। ड्रिप सिंचाई के द्वारा पौधे को आवश्यकतानुसार जल दिया जा सकता है। ड्रिप सिंचाई के द्वारा 30-40 प्रतिशत तक उर्वरक की बचत, 70 प्रतिशत तक जल की बचत होती है।
फव्वारा सिंचाई
फव्वारा द्वारा सिंचाई एक ऐसी पद्धति है जिसके द्वारा पानी का हवा में छिड़काव किया जाता है और यह पानी भूमि की सतह पर कृत्रिम वर्षा के रूप में गिरता है। पानी का छिड़काव दबाव द्वारा छोटी नोजल या ओरीफिस में प्राप्त किया जाता है। पानी का दबाव पम्प द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। कृत्रिम वर्षा चूंकि धीमें-धीमें की जाती है, इसलिए न तो कहीं पर पानी का जमाव होता है और न ही मिट्टी दबती है। इससे जमीन और हवा का सबसे सही अनुपात बना रहता है और बीजों में अंकुर भी जल्दी फूटते हैं।
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यह एक बहुत ही प्रचलित विधि है जिसके द्वारा पानी की लगभग 30-50 प्रतिशत तक बचत की जा सकती है। देश में लगभग सात लाख हैक्टर भूमि में इसका प्रयोग हो रहा है। यह विधि बलुई मिट्टी, ऊंची-नीची जमीन तथा जहां पर पानी कम उपलब्ध है वहां पर प्रयोग की जाती है। इस विधि के द्वारा सिंचाई करने पर पौधों की देखरेख पर खर्च कम लगता है तथा रोग भी कम लगते हैं।
सतही सिंचाई प्रणाली
भारत में अधिकतर कृषि योग्य क्षेत्रों में सतही सिंचाई होती है। इसमें प्रमुख है नहरों से नालियों द्वारा खेत में पानी का वितरण किया जाना तथा एक किनारे से खेत में पानी फैलाया जाना है। इस प्रणाली में खेत के उपयुक्त रूप से तैयार न होने पर पानी का बहुत नुकसान होता है। यदि खेत को सममतल कर दिया जाए तो इस प्रणाली में भी पानी की बचत की जा सकती है। आजकल लेजर तकनीक से किसान अपना खेत समतल कर सकते हैं। इससे जलोपयोग दक्षता में वृद्धि होती है। फलस्वरूप फसलों की पैदावार बढ़ जाती है।
कैसे काम करती है रेनगन
खेतों में सिंचाई के लिए 'बूंद-बूंद' और 'फौव्वारा तकनीक' के बाद अब रेनगन आ गयी है जो 20 से 60 मीटर की दूरी तक प्राकृतिक बरसात की तरह सिंचाई करती है। इसमें कम पानी से अधिक क्षेत्रफल को सींचा जा सकता है। सब्जी तथा दलहन फसलों के लिए यह माइक्रो स्प्रिंकलर सेट बहुत उपयोगी है, इससे ढाई मीटर के व्यास में बरसात जैसी बूंदों से सिंचाई होती है।
20, 40 और 60 मीटर प्रसार क्षमता वाली रेनगन, फसलों की सिंचाई का नया साधन है। इसे एक स्टैंड के सहारे 45 से 180 डिग्री के कोण पर खेत की सिंचाई वाले भाग में खड़ा कर दिया जाता है। इसका दूसरा सिरा पंपसेट की पानी आपूर्ति करने वाली पाइप से जुड़ा होता है। रेनगन में पानी का दबाव बढ़ते ही इसके ऊपरी भाग में लगे फौव्वारे से सौ फीट की परिधि में चारों ओर वर्षा की बूंदों की तरह पानी निकालकर फसल की सिंचाई करता है। सिंचाई के अन्य साधनों की अपेक्षा इसके माध्यम से आधे से भी कम समय एवं पानी से खेत की सिंचाई हो जाती है। समय कम लगने से डीजल और बिजली की भी बचत होती है।
तीन इंच के एक सबर्मसिबल पंप से तीन रेनगन एक साथ चलाई जा सकती है। 1 हेक्टेयर में रेनगन लगाने का खर्च क्षमता के अनुसार 20 से 30 हजार रुपए तक बैठता है जिसमें केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर 50 से 80 प्रतिशत तक का अनुदान देती हैं। जिसे प्राप्त करने के लिए किसान अपनी भूमि के भू-स्वामित्व प्रमाण-पत्र, पहचान-पत्र के साथ उद्यान या कृषि विभाग से संपर्क कर सकते हैं।
नहर से सिंचाई
नहरें देश में सिंचाई की सबसे प्रमुख साधन है और इनमें 40 प्रतिशत से अधिक कृषि भूमि की सिंचाई की जाती है। हमारे देश की नहरों का सर्वाधिक विकास उत्तर के विशाल मैदानी भागों तथा तटवर्ती डेल्टा के क्षेत्रों में किया गया है, क्योंकि इनका निर्माण समतल भूमि एवं जल की निरन्तर आपूर्ति पर निर्भर करता है।
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कुएं एवं नलकूप
कुओं का निर्माण सर्वाधिक उन्हीं क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ चिकनी बलुई मिट्टी मिलती है, क्योंकि इससे पानी रिसकर धरातल के अन्दर चला जाता है तथा भूमिगत जल के रूप में भण्डारित हो जाता है। देश में तीन प्रकार के कुएं सिंचाई एवं पेयजल के काम में लाये जाते हैं-
कच्चे कुएं, पक्के कुएं, नलकूप
देश की कुल सिंचित भूमि का कुओं द्वारा सींचे जाने वाला अधिकांश भाग गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश राज्यों में है। यहाँ लगभग 50 प्रतिशत भूमि की सिंचाई कुओं तथा नलरूपों द्वारा ही की जाती है। इन राज्यों के अतिरिक्त हरियाणा, बिहार, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश तथा कर्नाटक राज्यों में भी कुओं एवं नलकूपों द्वारा सिंचाई की जाती है।
प्रथम योजना काल में देश में नलकूपों की संख्या मात्र 3,000 थी, जो वर्तमान में लगभग 57 लाख हो गयी हैं। देश में सर्वाधिक नलकूप पम्पसेट तमिलनाडु में पाये जाते हैं, जबकि महाराष्ट्र का दूसरा स्थान है। नलकूपों की सबसे अधिक संख्या उत्तर प्रदेश में है। पिछलें दो दशकों में पंजाब एवं हरियाणा में इसका प्रचलन बढ़ा है। इसके अतिरिक्त नलकूपों की प्रमुखता वाले अन्य राज्य हैं- आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक एवं गुजरात।
तालाब
देश में प्राकृतिक तथा कृत्रिम दोनों प्रकार के तालाबों का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है। इनके द्वारा सर्वाधिक सिंचाई द्वीपीय भारत के तमिलनाडु, कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश राज्यों में की जाती है। इसके बाद दक्षिणी बिहार, दक्षिणी मध्य प्रदेश तथा दक्षिणी पूर्वी राजस्थान का स्थान आता है, जहां प्राकृतिक एवं कृत्रिम दोनों प्रकार के तालाब मिलते हैं। देश के कुल सिंचित क्षेत्र के 9 प्रतिशत भाग की सिंचाई तालाबों द्वारा होती है। भारत में तालाबों द्वारा सिंचित तमिलनाडु में सबसे ज्यादा होती है।
ढेकुली से सिंचाई
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ढेकुली सिंचाई की एक परंपरागत सिंचाई व्यवस्था होती थी। कुओं से पानी निकालने का सबसे सुलभ साधन ढेंकुल का होता था जो कि लीवर के सिद्धान्त पर काम करने वाली एक संरचना है। इसमें Y के आकार के पतले वृक्ष के तने को सीधा जमीन में कुएं के पास गाड़ कर उस पर एक लम्बे बांस या लकड़ी को संतुलित किया जाता है। इस बांस या लकड़ी के एक सिरे पर मिट्टी का लोंदा छाप दिया जाता है और दूसरे सिरे पर रस्सी से बांध कर एक कूंड़ (कुएं से पानी निकालने का बर्तन) को लटका कर कुएं के अन्दर ले जाते हैं और पानी को ऊपर खींच लेते हैं।
रहट से सिंचाई
जिन क्षेत्रों में फसलों की सिंचाई करने के लिए कोई दूसरे संसाधन नहीं होते थे वहां के किसान अपने खेतों के पास एक कुआं खोद कर उसमें लोहे की बनी रेहट नामक मशीन लगा देते थे और अपनी फसल की सिंचाई कर लेते थे। परन्तु धीरे -धीरे कुआं की संख्या में भी कमी आती गयी। सिंचाई का एक साधन रेहट किसानों से दूर होता गया। कहीं- कहीं आज भी यह मशीन देखने को मिलती है।
बेड़ी से सिंचाई
पुराने समय में जहां पर तालाबों या झील के पानी से सिंचाई होती थी वहां पर बेड़ी की आवश्यकता होती थी। इसमें दो व्यक्ति एक बांस या दूसरी लकड़ी से बना एक बड़े पर्तन को रस्सी से बांध कर पानी को तालाब से खींच कर नाली में डालते हैं जो खेत में जाती है।
सोलर पंप से सिंचाई
सोलर पंप से सिंचाई एक नई विधि है, जिसमें न तो बिजली की जरूरत होती है और न ही किसी ईंधन की जरूरत होती है। इसमें एक मोटर होता है जो जमीन से पानी खींचता है औक उसको चलाने के लिए सोलर पैनल लगे होते हैं जो सूरज की किरणों से ऊर्जा उत्पन्न करते हैं और उससे मशीन चलती है।
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