जन्मदिन विशेष: उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग़...

Update: 2017-05-25 13:04 GMT
जुबान के मशहूर शायर दाग देहलवी का आज जन्मदिन है

लखनऊ। 25 मई 1831 को मशहूर शायर दाग दहलवी का जन्म हुआ था। इस मौके पर हम आपको उनसे जुड़े कुछ किस्से और यादों से रू-ब-रू करा रहे हैं। साथ में उनकी हर दिल अजीज़ शायरियां भी होंगी।

अजब अपना हाल होता, जो विसाले यार होता...

कभी जान सदके होती, कभी दिल निसार होता...


उर्दू के मशहूर शायर ‘दाग’ की लिखी यह शायरी उनके हाल-ए-दिल को बखूबी बयां करती हैं। दिल्ली में 1831 में जन्मे दाग का असली नाम नवाब मिर्जा खाँ 'दाग़' अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से-बड़े शायर को अपनी ज़िन्दगी में मयस्सर न हुई।

कहते हैं हर शायर के दिल में एक दर्द होता है। दाग के साथ भी कुछ ऐसा ही था इसलिए इस नाम को अपने भीतर के शायर के लिए चुना। दाग़ पांच-छह साल के थे तभी उनके पिता शम्सुद्दीन खाँ की मृत्यु हो गई। इसके बाद उनकी माता ने बहादुर शाह "ज़फर" के पुत्र मिर्जा फखरू से विवाह कर लिया। दिल्ली में रहकर दाग़ ने पढ़ाई की और वहीं पर रहकर इन्हें ‘कविता’ से इश्क हो गया। इसके बाद जब फखरू की मृत्यु हो गई जिससे यह रामपुर चले गए। वहां युवराज नवाब कल्ब अली खाँ के आश्रय में रहने लगे। इसके कुछ समय बाद वह हैदराबाद गए। वहां इन्हें धन और सम्मान दोनों मिला और वहीं पर 1905 ई. में फालिज से इनकी मृत्यु हुई।

दाग के बारे में बरेली के उर्दू कवि वसीम बरेलवी कहते हैं, “दाग जुबान के शायर थे। वे हमारे लिए स्कूल की तरह हैं जिन्होंने आसान शब्दों का इस्तेमाल करके उर्दू को आम प्रचलित भाषा बनाने में योगदान दिया। दाग खासतौर पर जज्बाती और इश्क-मोहब्बत वाली शायरियां करते थे। यही उनकी खासियत थी। वह दिल्ली से पढ़े हुए थे इसलिए उनकी शायरियों में भाव था जबकि लखनवी शायरी और कविताओं में भाषा पर ज्यादा जोर दिया जाता है। उनकी मशहूर शायरी

‘उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं दाग, सारे जहां में धूम हमारी जुबां की है’


मुझे बेहद पसंद है।”

दाग़ शीलवान, विनम्र, विनोदी व स्पष्टवादी थे और सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करते थे। जनसाधारण के वे महबूब शायर थे। उनके सामने मुशायरो में किसी का भी रंग नहीं जमने पाता था।

गुलजारे-दाग़, आफ्ताबे-दाग़, माहताबे-दाग़ तथा यादगारे-दाग़ इनके चार दीवान हैं, जो सभी प्रकाशित हो चुके हैं। 'फरियादे-दाग़', इनकी एक मसनवी (खंडकाव्य) है। दाग़ ने गजलों को फ़ारसी के कठिन और मुश्किल शब्दों की पकड़ से छुड़ाते हुए उस समय की आम बोलचाल की भाषा उर्दू के आसान शब्दों में पिरोया था। यह कितना कठिन काम था यह दाग़ जानते थे। इस बात का गुमान भी उन्हें कहीं-न-कहीं था और उन्होंने कहा भी-

‘नहीं खेल-ए-दाग़ यारों से कह दो

कि आती है उर्दू जुबान आते-आते’

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