बीवी के गहने गिरवी रखकर किया था दादा साहब फाल्के ने 'राजा हरिश्चंद्र' का निर्माण

Update: 2017-04-30 12:36 GMT

भारतीय सिनेमा का जनक कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के जिनका असली नाम धुंडिराज गोविंद फाल्के था। 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के त्रयंबकेश्वर में उनका जन्म हुआ था। दादा साहब फाल्के एक प्रसिद्ध भारतीय फिल्म निर्माता और पटकथा लेखक थे।

दादा साहब को कम उम्र में ही कलात्मक प्रकृति के थे और उन्हें रचनात्मकता में बहुत रुचि थी। रचनात्मकता में रुचि का ही नतीज़ा था कि उन्होंने स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद एक फोटोग्राफर के रूप में अपना करियर शुरू किया। उन्होंने प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा के लिए भी काम किया और कला के बारे में अधिक जानकारी हासिल की। उन्होंने अपना प्रिंटिंग का व्यापार भी शुरू किया था लेकिन पार्टनर के साथ कुछ समस्याओं के चलते वह बंद हो गया। इसके बाद उन्हें आर्थिक रूप से काफी नुकसान हुआ, उनका मन उदास रहने लगा। उस समय उनकी उम्र 40 साल के आस-पास हो चुकी थी।

इस दौरान क्रिसमस के अवसर पर उन्होंने ईसामसीह पर बनी हुई एक फिल्म देखी जिसे देखकर उनके मन में ख्याल आया कि उन्हें अब फिल्मकार बनना है। उन्होंने सोचा कि अगर रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों की कहानियों से कोई विषय उठाकर उस पर फिल्म बनाई जाए तो भारतीयों को शायद वह पसंद आएगी।

फिल्म बनाने के लिए सबसे पहले उन्होंने 5 पौंड में एक सस्ता कैमरा खरीदा और शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण किया। वह दिन में 20 घंटे तक लगातार फिल्म के लिए प्रयोग करते रहते थे जिसका असर उनकी आंखों पर सबसे ज्यादा पड़ा। उनकी एक आंख जाती रही। उस समय उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया। उन्होंने अपने जेवर गिरवी रख दिये।

1912 में उन्होंने भारत की पहली फिल्म (मूक) राजा हरिश्चंद्र का निर्माण किया। 3 मई 1913 को मुंबई के कोरोनेशन सिनेमा में पहली बार यह फिल्म जनता को दिखाई गई।

यह जनता के लिए एक अविश्वसनीय अनुभव था और उनके काम के लिए उन्हें बहुत प्रशंसा मिली। फिल्म को अपार सफलता मिली और इसमें काम करने वाले कलाकार रातो-रात प्रसिद्ध हो गए। इस फिल्म की नायिका देविका रानी को भारत की पहली फिल्म स्टार होने का गौरव प्राप्त हुआ।

फिल्म राजा हरिश्चंद्र का एक दृश्य
अपनी पहली फिल्म की सफलता के बाद, उन्होंने कई फिल्में और लघु फिल्म बनाईं। उनकी बनाई प्रमुख फिल्मों में 'मोहिनी भस्मासुर' (1913), 'सावित्री सत्यान' (1914), 'लंका दहन' (1917), 'कृष्ण जान्मा' (1919) और 'कलिया मर्दन' (1919) शामिल हैं।

जल्द ही मूक फिल्में एक फायदे वाले माध्यम के रूप में विकसित हुईं और उन्होंने अच्छी कमाई करना शुरू कर दियरा। इसके बाद कुछ उद्यमियों ने उनसे संपर्क किया और उन्होंने मुंबई से पांच व्यवसायियों के साथ साझेदारी में एक फिल्म कंपनी 'हिंदुस्तान फिल्म्स' खोली। इस कंपनी में शामिल व्यवसायियों का प्राथमिक एजेंडा रुपये कमाना था, जबकि दादा साहब पूरी तरह से फिल्म निर्माण के रचनात्मक पहलू पर ध्यान केंद्रित करते थे। आपस में विचारों के न मिलने के कारण दादा साहब ने 1920 में कंपनी छोड़ दी। हालांकि, कुछ समय बाद, वह फिल्म कंपनी में वापस लौट आए और कुछ फिल्मों का निर्माण किया, लेकिन कमाई की तरफ उनका तब भी ध्यान नहीं गया और अंत में कंपनी को उन्होंने फिर से छोड़ दिया। उनकी आखिरी मूक फिल्म 'सेतुबंधन' (1932) थी।

1937 में, उन्होंने अपनी पहली ध्वनि फिल्म 'गंगावतारण' का निर्देशन किया जो उनके करियर की आख़िरी फिल्म साबित हुई। सिनेमा में ध्वनि की शुरुआत और फिल्म निर्माण के नए विविध तरीकों के बीच उनके काम करने का तरीका कहीं खो सा गया और आखिरकार उन्होंने फिल्म निर्माण से सेवानिवृत्ति ली। अपने 19 वर्ष के फिल्म बनाने के करियर में उन्होंने 95 फिल्में और 26 लघु फिल्में बनाईं। 16 फरवरी, 1944 को नासिक में 73 वर्ष की आयु में निधन हो गया।

भारतीय सिनेमा में उनके योगदान के लिए, 1969 में भारत सरकार ने 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' की स्थापना की। इसे भारतीय फिल्म पुरस्कारों की फेहरिस्त में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित पुरस्कार माना जाता है।

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