अवधी प्रेमियों के लिए एक सुन्दर खबर यह है कि ‘अवधी ग्रंथावली’ प्रकाशित हो चुकी है। वाणी प्रकाशन से आयी इस ग्रंथावली के दस भाग हैं। संपादक हैं, जगदीश पीयूष। इसके आने से, वाणी जैसे प्रकाशन से, मोटे रूप से एक चीज यह देखने में आ रही है कि अवधी में कोई बड़ा और अच्छा काम हुआ है। जिस समय में लोकभाषाओं को लोग भूल रहे हों, उसे बीते दिन की थाती भर मानने की कोशिश हो, उस समय यह ‘इंप्रेशन’ भी जाना कम मायने नहीं रखता कि उस भाषा में इतना काम हो रहा है, अभी-अभी हुआ और उसकी साहित्यिक संपदा की यह एक झलक यहां मिल रही है।
जितनी सामग्री इसमें है, उनका अनुशीलन किसी को भी अवधी साहित्य के विषय में आरंभिक, और एक हद तक पर्याप्त, जानकारी दे सकता है। यही इस ग्रंथावली की योजना का सबसे बड़ा हासिल है। इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं है कि जिसे अवध और अवधी की जानकारी चाहिए उसके लिए यह ग्रंथावली सहायक सिद्ध होगी। उसे यह ग्रंथावली अवश्य रखनी चाहिए।
जगदीश पीयूष पहले से ही अवधी क्षेत्र में लेखन-संपादन करते रहे हैं। उन्होंने अपने विगत कई दशकों के अनुभव का इस्तेमाल किया है। उनके पास सामग्रियां भी रहीं, जिन्हें उन्होंने ग्रंथावली के रूप में तरतीब भर दी है। ग्रंथावली में दी गई अधिकाधिक सामग्री पहले से प्रकाशित है, अलग-अलग प्रकाशनों से। अलग-अलग जगहों से। अलग-अलग समयों में। दस खण्डों में उन्हें ही व्यवस्थित कर दिया गया है। कई लेखकों को उन्होंने संपादक मंडल में चिह्नित किया है जो अवधी लेखन से किसी-न-किसी रूप में जुड़े रहे हैं और जिन्होंने उनकी ग्रंथावली की योजना में सहयोग किया होगा। ग्रंथावली का पहला भाग ‘लोकसाहित्य’ पर है। दूसरा लोकगाथा खंड है। तीसरा प्राचीन साहित्य खंड है। चौथा आधुनिक साहित्य का खंड है। पांचवां लोक-कथा/गद्य-खंड है। छठा है, शब्दकोश। सातवां है, लोकोक्ति खंड। आठवां लोक-नाट्य खंड है। नवां है, ऋतु-गीत खंड। दसवां खंड अवधी संबंधी विमर्षों का है। इस तरह दस खण्डों में यह पूरी होती है। जितनी सामग्री इसमें है, उनका अनुशीलन किसी को भी अवधी साहित्य के विषय में आरंभिक, और एक हद तक पर्याप्त, जानकारी दे सकता है। यही इस ग्रंथावली की योजना का सबसे बड़ा हासिल है। इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं है कि जिसे अवध और अवधी की जानकारी चाहिए उसके लिए यह ग्रंथावली सहायक सिद्ध होगी। उसे यह ग्रंथावली अवश्य रखनी चाहिए।
इतनी अच्छाइयों के साथ-साथ इस ग्रंथावली की कुछ बड़ी सीमाएं या कमियां भी हैं। कुछ कमियों को दूर किया जा सकता था अगर सोच-विचार में सतर्कता बरती जाती। पहली दिक्कत तो यही है कि इसका नाम ‘अवधी ग्रंथावली’ दिया गया है जो उचित नहीं है। भाषा के नाम के साथ शब्दकोश या कहावत कोश को देखा जाता है लेकिन ग्रंथावली नहीं। मुझे नहीं लगता कि किसी गतिशील भाषा की ग्रंथावली निकल सकती है। ग्रंथावली की संकल्पना में कोई अंत्य-विन्दु (एंड-प्वाइंट) होता है। क्या गतिशील भाषा का कोई एंड प्वाइंट होता है। क्या किसी संपादक के बस की बात है यह। क्या किसी प्रकाशक से संभव है यह।
नहीं, बिल्कुल नहीं। अक्सर किसी रचनाकार के दिवंगत होने पर उसके पूरे जीवन के उपलब्ध लेखन को ग्रंथित करके ‘अमुक ग्रंथावली’ का प्रकाशन होता है। कोई रचनाकार जीवित होते हुए अपनी ग्रंथावली नहीं निकालता। निकालेगा तो हास्यास्पद हो सकता है। जब ऐसा किसी व्यक्ति के साथ नहीं होता तो क्या किसी भाषा के साथ हो सकता है; जिसमें आज लाखों व्यक्ति रचनाशील हैं और आगे आने वाले वर्षों में भी रचनाशील होंगे! दूसरी बात जब ऐसे काम हो रहे हों, और ठीक-ठाक लोग व प्रकाशन इससे जुड़े हों तो वहाँ ‘अकादमिक व्यवस्था’ (एकैडमिक ऑर्डर) का ध्यान रखा जाता है। इस ग्रंथावली में ऐसी कई चूकें हैं, जिससे शोध कर रहे छात्र बहुत अनुकूलता नहीं पाएंगे। जैसे शब्दकोश वाला खण्ड ही ‘शब्दकोश’ कैसे कहा जा सकता है। शब्दों का सिर्फ अर्थ बता देना, इकट्ठा कर देना, शब्दकोश की अकादमिक रीति नहीं है। शब्दों के उद्भव पर भी बात होती है। शब्दों की व्याकरणिक कोटि बताई जाती है। और भी कई बातें ध्यान में रखी जाती हैं। यहां इन अकादमिक तरीकों की परवाह नहीं की गई है। ये सीमाएं न होतीं तो यह ग्रंथावली और सार्थक होती। उम्मीद है आगे इस दिशा में इसके संपादक और प्रकाशक ध्यान देंगे। फिर भी जो बन पाया है, उसके लिए धन्यवाद!