राणा लखनवी की क़लम से निकली उर्दू रामायण

Update: 2017-10-17 15:51 GMT
उर्दू रामायण

दिवाली वो त्यौहार है जिसपर हिंदी-उर्दू की साझा विरासत वाले कलमकारों ने खूब लिखा। नज़ीर अकबराबादी ने दिवाली पर नज़्म लिखी तो ग़ालिब ने भी अपने ख़तों में दिवाली का ज़िक्र बहुत ही तराशे हुए लफ्ज़ों में किया। गंगा-जमुनी तहज़ीब की ये निशानियां हर दौर में रही हैं। मौजूदा वक्त में भी कई अलग-अलग मिसालें मुल्क के कई हिस्सों में देखने को मिलती है। ऐसा ही एक रंग है राजस्थान के बीकानेर का, जो शायद दिवाली के जश्न का सबसे अनोखा और अनूठा रंग है।

सोलवीं शताब्दी में बने जूनागढ़ क़िले के लिए मशहूर, राजस्थान के बीकानेर में हर साल दिवाली पर रामायण का पाठ होता है। इसमें हिंदू-मुस्लमान सभी शामिल होते हैं और जिस रामायण को पढ़ा जाता है वो उर्दू में होती है। उर्दू की रामायण हर दिवाली में पढ़ने की रवायत साल 1936 से चली आ रही है। क्या है इस रवायत की कहानी आइये वो भी जानते हैं

उर्दू में रामायण

लखनऊ के मौलवी ने शुरु की थी रवायत

बात साल 1935 की है। लखनऊ के एक उर्दूदां थे, नाम था बादशाह हुसैन राणा लखनवी। उन दिनों वो राजस्थान की बीकानेर रियासत में महाराज गंगा सिंह के यहां उर्दू-फारसी में आने वाले खतों का तर्जुमा किया करते थे। राणा साहब की अदब पर भी अच्छी पकड़ थी और स्थानीय लोग भी उन्हें खूब इज़्ज़त और एहतराम की नज़र से देखते थे। महाराजा गंगा सिंह के एक खास दोस्त बनारस में रहते थे। एक रोज़ उन्होंने उनसे बताया कि बनारस में एक बड़ा मुकाबला हो रहा है जिसमें रामायण को कविता या ग़ज़ल की शक्ल में अपनी मातृभाषा में लिखना है, जो तर्जुमा सबसे अच्छा होगा उसे विजेता घोषित किया जाएगा। ये भी बताया गया कि तमाम रियासतों के राजा अपने अपने लोगों को इस मुकाबले में शामिल करा रहे हैं। महाराजा गंगा सिंह ने इस अदबी मुकाबले में अपनी तरफ से बादशाह हुसैन राणा लखनवी का नाम दे दिया और राणा साहब से कह दिया कि उन्हें ये मुकाबला जीतकर बीकानेर रियासत का सर ऊंचा करना है।

राणा साहब के सामने बड़ी मुश्किल की घड़ी आ गई थी। रामायण तो कभी पढ़ी नहीं थी, उर्दू में लिखें कैसे। लेकिन बात बीकानेर की आन-बान-शान की थी। मुकाबले में दिन भी कम थे, लिहाज़ा उन्हें एक तरकीब सूझी। उन्होंने अपने एक पुराने दोस्त मनोहर शिवपुरी, जो कि कश्मीरी पंडित थे, से राब्ता कायम किया और उन्हें अपनी परेशानी बताई। मनोहर शिवपुरी ने कहा कि इसका इकलौता रास्ता यही है “मैं रामायण के पाठ पढ़ता जाऊं और आप उन्हें तर्जुमा करके उर्दू में दर्ज करते जाएं”। राणा साहब को ये बात ठीक लगी।

उर्दू रामायण

अगली सुबह से ये रोज़ का मामूल हो गया। शिवपुरी रामायण पढ़ते उसका मतलब समझाते और राणा साहब उसे उर्दू में दर्ज कर लेते। ये सिलसिला तबतक चलता रहा जब तक पूरा तर्जुमा मुकम्मल नहीं हो गया और इस तरह रामायण को समेट कर गज़ल के तौर पर नौ पन्नों में लिखा गया।

इस कलमकारी ने बनारस का वो मुकाबला जीत लिया। महाराजा गंगा सिंह ने राणा साहब को खूबसूरत गज़ल लिखने के लिए कई इनामात से भी नवाज़ा। पूरे बीकानेर में उस रोज़ जश्न हुआ और दिवाली की शाम उसी गज़ल को, जो की पूरे रामायण की तर्जुमानी थी, पढ़ा गया। आहिस्ता-आहिस्ता ये बीकानेर की रवायत बन गई जो आजतक चली आ रही है।

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