परवीन शाकिर: एक शायरा की मौत...
पुण्यतिथि पर विशेष: पाकिस्तानी कवयित्री और शायरा परवीन शाकिर को पाकिस्तान के साथ के साथ भारत और पूरी दुनिया सराहा गया, उनकी मौत आज के ही एक हादसे में हुई थी..
वो 26 दिसंबर की तारीख थी, साल था 1994 की उस सुबह आसमान में बारिश के आसार थे, पाकिस्तान के इस्लामाबाद शहर के 'फैसल चौक' पर रोज़ की तरह गाड़ियों का आना जाना लगा था। ट्रैफिक ज़्यादा नहीं था, इसलिए गाड़ियों की आमद-रफ़्त थोड़ी तेज़ थी। फ़ैसल चौक से पूरब की तरफ जाने वाली सड़क से एक सुज़ूकी वैन आ रही थी।
इस वैन के नम्बर प्लेट पर वो सरकारी निशान भी था, जो पाकिस्तान में प्रशासनिक ओहदों पर बैठे लोगों की नम्बर प्लेट पर होता है। कार औसत रफ्तार में थी.. लेकिन तभी दूसरी तरफ से एक बस ज़रा तेज़ रफ्तार से चली आ रही थी। कार और बस के बीच दूरी कम होने लगी, लेकिन रफ्तार इतनी भी ज़्यादा नहीं थी कि जिससे ये लगे कि कोई हादसा होने वाला है।
फैसल चौक से गुज़र रहे लोगों को एक पल को लगा कि बस संभल जाएगी, लेकिन तभी बस अपना तवाज़ुन खो बैठी और सीधे जाकर कार को टक्कर मार दी। कार पूरी तरह से तबाह हो गई। अगला हिस्सा, पिछले हिस्से में मिल गया था। लोग भागकर कार के करीब पहुंचे.. तो पाया उस कार की पिछली सीट पर पाकिस्तानी उर्दू अदब की सबसे बेहतरीन शायरा परवीन शाकिर ज़ख्मी पड़ी थी।
मेरे पास सुबह ग्यारह बजे, परवीन के बेटे मुराद का कॉल आया। वो हड़बड़ाया हुआ था.. उसने कहा कि आंटी आपकी कार चाहिए, जल्दी अस्पताल जाना है.. मैंने मामला पूछा तो उसने बताया कि अम्मी का एक्सीडेंट हो गया है। मैंने उसे कहा कि तुम वहीं रुको मैं आती हूं तुम्हे लेने और साथ चलेंगे। मैं अस्पताल पहुंची तो गेट पर ही, परवीन का एक दूसरा ड्राइवर खड़ा था.. वो रुआंसा था उसने बताया कि ड्राइवर जो गाड़ी चला रहा था उसका इंतकाल हो गया है और परवीन शाकिर आईसीयू में है.. हम लोग हड़बड़ाहट में आईसीयू पहुंचे तो हमें अंदर नहीं जाने दिया गया.. काफी देर तक हम बाहर ही खड़े रहे.. कुछ देर बाद एक नर्स बाहर आई और उसने मुझे घड़ी, पर्स और अंगूठी देते हुए कहा.. ये आप संभाल कर रख लें... शी इज़ नो मोर.. जिस सड़क पर परवीन शाकिर का एक्सीडेंट हुआ था.. उस सड़क को बाद में परवीन शाकिर रोड का नाम दिया गया
कुछ देर बाद एक नर्स बाहर आई और उसने मुझे घड़ी, पर्स और अंगूठी देते हुए कहा.. ये आप संभाल कर रख लें... शी इज़ नो मोर.. जिस सड़क पर परवीन शाकिर का एक्सीडेंट हुआ था.. उस सड़क को बाद में परवीन शाकिर रोड का नाम दिया गयापरवीन कादिर आग़ा, परवीन शाकिर की करीबी दोस्त
परवीन शाकिर का जन्म 24 नवंबर 1952 को कराची में हुआ था। उनके वालिद का नाम शाकिर हुसैन था। परवीन शाकिर अपने अहद की शायरी में वो चमकता हुआ नाम थी जिसने उर्दू शायरी को एहसास की नई ज़ुबान दी। औरतों के हक के लिए जितनी बेबाकी और सलाहियत से उन्होंने लिखा.. शायद किसी और ने नहीं लिखा।
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोईपरवीन शाकिर
सिविल सर्विसेज़ के इम्तिहान में उनसे पूछा गया, परवीन शाकिर कौन हैं?
परवीन शाकिर न सिर्फ एक बेहतरीन शायरा थीं बल्कि प्रोफेशनल ज़िंदगी में एक बेहद कामयाब लोगों में भी उनका शुमार होता है। परवीन शाकिर ने कराची यूनिवर्सिटी से अंग्रेज़ी में एम.ए. किया और उसके बाद उसी यूनिवर्सिटी से पीएचडी भी पूरी की। उन्होंने साल 1982 में सेंट्रेल सुपीरियर सर्विसेज़ (भारत में सिविल सर्विसेज़) का इम्तिहान भी दिया जिसमें वो दूसरे नंबर पर आई थी, उसके बाद उन्हें कस्टम डिपार्टमेंट में एक बड़ा ओहदा मिला। जहां पर रहते हुए उन्होने अपनी शेरी ज़िंदगी को भी आगे बढ़ाते हुए दो किताबें लिखी, जिनका नाम 'ख़ुदकलामी' और 'इंकार' है। परवीन शाकिर की मकबूलियत का अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि उनके सिविल सर्विसेज़ के इम्तिहान के पर्चे में आए कई सवालों में से कुछ सवाल खुद परवीन शाकिर के बारे में थे।
परवीन शाकिर के शेरों में लोकगीत की सादगी और लय भी है और क्लासिकी संगीत की नफ़ासत भी और नज़ाकत भी। उनकी नज़्में और ग़ज़लें भोलेपन और सॉफ़िस्टीकेशन का दिलआवेज़ संगम हैफहमीदा रियाज़
परवीन शाकिर को उनकी पहली किताब 'ख़ुशबू' के लिए साल 1976 में 'अदमीजी' अवार्ड से नवाज़ा गया था। उन्हें पाकिस्तान के सबसे बड़े सम्मान 'प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस' भी दिया गया। अपने अदबी सफर के बारे में परवीन शाकिर ने एक इंटरव्यू में कहा था
जब मैं छोटी थी तो लफ्ज़ मुझे बहुत फैसिनेट करते थे। मैं उनकी आवाज़, खुश्बू और ज़ायका महसूस कर सकती थी, लेकिन ये सिर्फ लफ्ज़ पढ़ पाने की हद तक था। ये ख़्याल तो मुझे बहुत बाद में आया कि मैं लिख भी सकती हूं। जब मैं कराची के सर सैय्यद गर्ल्स कॉलेज में पढ़ती थी, मेरे कॉलेज में एक तकरीर होनी थी और मेरी उस्ताद इरफाना अज़ीज़ ने कहा कि मैं इस मौके पर कुछ लिखूं, उन्हें पता नहीं क्यों यकीन था कि मैं नज़्में लिख सकती हूं। मैंने सरशार होकर एक बहुत सादा सी नज़्म लिखी.. जो बहुत पसंद की गई और इस तरह मेरे शेरी सफर का आगाज़ हुआ
परवीन शाकिर की पारिवारिक ज़िंदगी कभी खुशनुमा नहीं रही और ये दर्द हमेशा उनकी शायरी में दिखाई दिया। हालांकि उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने ज़ाती दर्द को कभी तमगा बनाकर नहीं लिखा। दर्द को हमेशा नई तरह से पेश किया, जिसमें छटपटाहट तो थी लेकिन खुद को संभाले हुए ज़िंदगी को मज़बूती से आगे बढ़ाने का हौसला भी था।
परवीन शाकिर जब कामयाबी के उरूज पर थी, तब उनकी नज़दीकियां एक पाकिस्तानी डॉक्टर सैय्यद नसीर अली से बढ़ने लगीं और दोनों ने शादी भी कर ली, लेकिन फिर उनके शौहर पर ये इल्ज़ाम लगाया जाता है कि वो उनकी कामयाबी को कुबूल नहीं कर पाए। परवीन शाकिर के लगातार बढ़ता हुए कद से उन्हें परेशान होने लगीा, उनकी 'पब्लिक लाइफ' से भी डॉक्टर साहब को चिढ़ होने लगी। उनका एक बेटा सैय्यद मुराद अली भी दोनों के बीच की कड़ी नहीं बन पाया। ये मायूसी का दौर धीरे-धीरे दोनों के ज़िंदगी का सबसे बुरे वक्त बनकर सामने आया। इस वक्त में परवीन शाकिर ने लिखा
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
परवीन शाकिर और डॉ नसीर हुसैन तलाक लेकर एक-दूसरे से अलग हो गए। परवीन शाकिर के बारे में उनके करीबी लोगों का कहना था कि वो बेहद हस्सास शख्स थीं, उनकी भावनाएं बेहद नाज़ुक थी और दिल समुंदर की तरह साफ था। उनकी एक करीबी दोस्त परवीन कादिर आग़ा, जिन्होंने बाद में परवीन शाकिर ट्रस्ट भी बनाया था, ने पीटीवी पर सुबह-सवेरे आने वाले एक कार्यक्रम 'ख़बरनामा' में कहा था -
"वो औरत जो चिड़ियों के घोंसले को भी बारिश में टूटते हुए देखकर उदास हो जाती थी, उसके लिए अपना खुद का घर बिखरते हुए देखना कितना मुश्किल रहा होगा, ये सोचकर भी मेरे रोए खड़े हो जाते हैं"
लेकिन परवीन शाकिर उन औरतों में नहीं थी, जो अपने गम को गले का हार बनाकर सिर्फ ग़जले और नज़्में लिखती रहें। वो लगातार आगे बढ़ती रही। साल 1991 में हार्टफोर्ड यूनिवर्सिटी की स्कॉलरशिप पर वो अमेरिका भी गई, जहां उन्होंने पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में एमए किया।
'घमंडी है परवीन शाकिर'
परवीन शाकिर पर उनकी पूरी ज़िंदगी के दौरान कई इल्ज़ाम भी लगे। उनके कई समकालीन शायरों ने उन पर घमंडी होने का इल्ज़ाम भी लगाया। ये कहा जाने लगा कि परवीन अपनी कामयाबी को संभाल नहीं पा रही हैं। लेकिन ठीक उसी वक्त ऐसे भी तमाम लोग थे जो इस बात को सिरे से नकार देते थे। वो कहते थे कि परवीन हमेशा से वैसी ही थीं, कामयाबी का ज़रा भी असर उनपर नहीं दिखता था, हां ये और बात है कि वो हर किसी से दोस्ती नहीं कर पाती थी, कुछ गिने चुने लोग ही थे जो उनके करीब थे, शायद यही उनकी वो आदत थी जिसे कुछ लोगों ने उनका घमंड समझ लिया।
परवीन शाकिर ने औरतों के जज़्बात को नई ज़बान दी, एहसास को खूबसूरती के साथ ज़ाहिर किया, ना उसमें कोई विद्रोह था ना किसी तरह की कोई गुस्सा। उनके शेरों में दर्द अपनी इंतिहा से गुज़रता था तो भी एक खूबसूरत रवानगी के साथ।
साल 1994 में परवीन शाकिर की एक और किताब शाया हुई, न जाने क्यों इस किताब का नाम उन्होंने माह ए तमाम रखा। ये वही साल था जब परवीन शाकिर की ज़िदंगी का सफ़र भी तमाम हो गया।