दिल्ली की ब्लू लाइन बस में हुई एक छोटी सी दुर्घटना में रोहित को मिली वो लड़की जिसने
उस बहुत छोटी मुलाक़ात में उसे बदल कर रख दिया. आखिर कौन थी वो लड़की और क्या था वो
बदलाव जानने के लिए सुनिए नीलेश मिसरा की आवाज़ में उमेश पंत की लिखी कहानी नए दोस्त
"उफ! फिर वही ब्लू लाइन बस"
खचाखच भरी 534 नंबर की बस को देखा तो आज फिर वो ऐसी लगी जैसे मधुमख्खी का पूरा छत्ता
हो जो बस मेरी तरफ बढ़ रहा हो. और फूटी किस्मत ये कि मुझे इस छत्ते पर ही चढ़ना था जिसपर
बैठने तो क्या खड़े होने तक की जगह भी कहीं नहीं थी. पर सुबह-सुबह साढे छह की इस बस के
छूटने का मतलब था जीवन में बुरे संयोगों का एक सिलसिला शुरू हो जाना. ऑफिस में लेट, बॉस
की डांट, मूड खराब और फिर घर आकर मां से छोटी-मोटी बातों पे नोक-झोक. मसलन रोहित जूते
दरवाजे पे क्यों उतारे-शू रैक में भी तो डाल सकते हो, रोहित लैपटॉप बैग सोफे पे क्यों छोड़ दिया ?
लेकिन जानता था मैं. ये टोकाटोकी बस इसीलिये थी ताकि इसी बहाने ही सही थोड़ी और देर उनके
साथ वक्त बिता सकूं मैं. महीने हो गए थे मां के साथ सुकून से बैठे, बात किये, कहीं घूमने गए, पर
मैं भी क्या करता, काम से वक्त भी तो नहीं मिलता था।
बस आई. रुकी. और जैसे ही खचाखच भरे दरवाजे पर मैंने अपने पैर रखने की जगह बनाई तो देखा
कि एक लड़की भागती हुई आ रही है. भागती सी वो लड़की किसी कटी पतंग की तरह आई और
ठीक बस के दरवाजे पर पहुंचते ही जैसे बची-खुची डोर भी उलझ गई. वो बस के दरवाजे पर आकर
रुकी. मुझे लगा तिल रखने की जगह तो है नहीं तो मोहतरमा अगली बस का इंतज़ार कर लेंगी.
लेकिन ये तो झांसी की रानी निकली. लड़कों से खचाखच भरे दरवाजे पर वो अपने चढ़ने की जगह
बनाने लगी. लड़के मोहतरमा को जगह देने की जी जान से कोशिश कर ही रहे थे कि बस चल पड़ी.
और मोहतरमा चलती हुई बस नीचे गिरने को तैयार ही थी कि मुझसे एक गलती हो गई.
मैंने उन मोहतरमा का हाथ थाम लिया. लेकिन वो खुद तो क्या ही बच पाती उन्होंने मुझे भी सड़क
पर ला दिया. वो तो बस की स्पीड अभी कोई इतनी थी नहीं तो कोई चोट-वोट दोनों में से किसी को
नहीं आयी. हम दोनों धड़ाम से सड़क पर आ गिरे. जीवन में पहली बार मैं चलती बस से गिरा था वो
भी एक अजनबी लड़की के साथ....