हमारे किसानों का जीवन इन्द्र देवता के सहारे है जो अक्सर सन्तुलित वर्षा नहीं करते। परिणाम यह है कि आसाम में बाढ़ से तबाही होती है तो विदर्भ में सूखा और अकाल। कुछ भागों में खूब वर्षा होती है और वर्षा जल का बड़ा भाग वापस समुद्र में चला जाता है जबकि दूसरे भागों में कम पानी बरसता है और सूखा -अकाल पड़ता है। वक्त जरूरत के लिए वर्षा जल के एक भाग को प्रकृति धरती के नीचे भंडारित कर देती है जैसे किसान अपनी फसल का कुछ भाग सुरक्षित रख लेता है जरूरत के लिए। यदि किसान की सन्तानें भंडारित अनाज बेचकर जुआं खेलें और शराब पिए तो सोचिए क्या होगा?
गाँव के कुएं से पानी निकालने में रस्सी लम्बी लग रही है, गर्मियों में किसानों के खेतों की बोरिंग या तो पानी कम दे रही हैं या फिर सूख रही हैं और शहरों में पीने के पानी की हायतौबा मचनी आरम्भ हो चुकी है। कुछ इलाकों में तो धरती के अन्दर के पानी का स्तर हर साल एक मीटर तक नीचे जा रहा है। वैसे तो भारत की धरती पर प्रतिवर्ष लगभग 4000 घन किलोमीटर वर्षाजल गिरता है जिससे विशाल बफर स्टॉक बनाया जा सकता है फिर भी यह विडम्बना है कि देश पर जल संकट की काली छाया मंडरा रही है। अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा या नहीं परन्तु अगले कुछ वर्ष हमें जलप्रबन्धन पर केिद्रंत करने होंगे।
हम विदेशी मुद्रा भंडार और खाद्य भंडार की चिन्ता तो करते हैं। उन्हें बढ़ाने की कोशिश भी करते हैं लेकिन इनसे कहीं अधिक जरूरी है जल भंडार जो प्रकृति ने हमारे जीवन के लिए जमीन के अन्दर संचित करके रखा है। पिछले 50 साल में भूजल संरक्षण के लिए रिपोर्ट तो खूब बनीं लेकिन राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी के प्रयास भी इसके आगे नहीं बढ़ सकें। संकट से निपटने के लिए भूमिगत जल संग्रह पर ध्यान देने की आवश्यकता है। बलुअर मिट्टी में वर्षाजल आसानी से धरती के अन्दर चला जाता है परन्तु जहां की जमीन पथरीली है वहां भूमिगत जल भंडारण में कठिनाई आती है। परेशानी भी उन्हीं इलाकों में हो रही है जहां भूमिगत पानी कम है। गंगा-यमुना के मैदान में धरती के नीचे बालू की हजारों फिट मोटी परत है जिसमें बड़ी मात्रा में जल संग्रह हो सकता है, होता भी है। जब बरसात का पानी ढलान की दिशा में बहता हुआ आगे बढ़ता है तो अनुकूल परिस्थितियों में कुछ पानी बालू-मिट्टी के कणों के बीच से छनता हुआ धरती के अन्दर चला जाता है जहां वह शुद्ध जल के रूप में भूमिगत जलाशय बनाता है।
भूमिगत पानी की तरफ ध्यान 1967 में तब गया था जब बिहार में धरती पर लोग प्यासे थे और धरती के नीचे अथाह जल भंडार मौजूद था। उसके बाद तो बोरिंग करने, ट्यूबवेल लगाने की जैसे होड़ मच गई। भूमिगत पानी गहराइयों में पाया जाता है। सबसे ऊपर की परत का पानी कुओं आदि के लिए प्रयोग होता है और गहरे स्तर पर सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध रहता है जो ट्यूबवेल या बोरवेल के माध्यम से निकाला जाता है। भूमिगत पानी का उपयोग मनुष्य के पीने के लिए होना चाहिए था परन्तु उसे मुफ्त की बिजली से सिंचाई करने, तालाब बनाकर मछली पालने, उद्योग लगाने आदि के काम लाया जाने लगा। तालाबों से सिंचाई का रिवाज घटता जा रहा है और भूमिगत पानी से सिंचाई का क्षेत्र निरंतर बढ़ रहा है। यह पेयजल संकट को निमंत्रण देने जैसा है।
उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों जैसे सुल्तानपुर, रायबरेली, लखनऊ, बाराबंकी, सीतापुर आदि में सतह से 3-4 फिट की गहराई पर कंकड़ की ठोस परत के कारण भूजल रीचार्ज में बाधा पड़ती है। यह परत भूतलीय पानी और भूमिगत पानी के बीच में रुकावट बनती है जिससे बरसात का पानी धरती के अन्दर नहीं जा पाता और जलभराव हो जाता है। गर्मी के दिनों में धरती के नीचे की नमी इसी कंकड़ के कारण पौधों को नहीं मिल पाती। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में 4300 वर्ग किलोमीटर जमीन जलभराव से और लगभग 11500 वर्ग किलोमीटर मिट्टी की क्षारीयता से प्रभावित है।
पानी के खर्चे में मितव्ययिता जलप्रबंधन का अभिन्न अंग है। किसानों और जनसाधारण को इस बात की जानकारी दी जानी चाहिए कि पौधे अपना भोजन पत्तियों में बनाते हैं इसलिए जड़ में बार-बार पानी भरने के बजाय पत्तियों पर पानी छिड़कने (स्प्रिंकलर द्वारा) से कम पानी लगेगा और अधिक लाभ मिलेगा। वर्तमान में सिंचाई के पानी से पौधों के उपयोग में केवल 30 फीसदी आता है। अतः केवल सिंचाई में पानी की किफायत करके बिना पैदावार घटाए ही पानी की बहुत बड़ी बचत सम्भव है।
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