पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति संतुलन की सीख, पातालकोट से (विश्व पर्यावरण दिवस- 5 जून विशेष)
हर समाज की सबसे मजबूत नींव समाज का पारंपरिक ज्ञान होता है। आदिकाल से ही मनुष्य ने पेड़-पौधों और प्राकृतिक संपदाओं का दोहन कर अपना जीवन निर्वाह किया है। हजारों सालों के अनुभव और परंपरागत ज्ञान से वनवासी किसानों ने अपनी फसलों और पालतु पशुओं की उत्तम प्रजातियों को तैयार किया है। यह ज्ञान समय-समय पर पर्यावरणीय दशाओं, आवश्यकताओं, सामाजिक मूल्यों, और पोषण की जरूरतों के आधार पर बदलता भी रहा है। धरती पर सामंजस्य के साथ जीवन व्यतीत करने के बजाए हम मनुष्यों ने इसका अत्यधिक दोहन करना शुरू कर दिया ताकि हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति हो। इस पूरे दौर में हमने एक पल के लिए भी यह नहीं सोचा कि इसके क्या दुष्परिणाम होंगे। प्रकृति के अत्यंत दोहन के परिणामों से हम सभी परिचित हैं, लेकिन आज भी दुनिया में ऐसी अनेक जगहें हैं जहाँ प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर लोग खुशहाल जीवन व्यतीत भी कर रहे हैं।
"पातालकोट" मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में बसी एक गहरी घाटी है जहाँ आज भी आधुनिकता ने पैर नहीं पसारे हैं और परिणाम स्वरूप सुखद जीवन का सटीक उदाहरण यहाँ देखा जा सकता है। आज विश्व पर्यावरण दिवस है और ऐसे मौके पर पातालकोट के गोंड और भारिया जनजातियों की जीवन शैली, रहन-सहन, स्वास्थ्य और सेहत से जुड़ी जानकारियों, उनके पर्यावरणीय ज्ञान को साझा करना सबसे उत्तम होगा।
जब से हम मनुष्यों ने बेहतर और आसान जीवन जीने की प्रतिस्पर्धा शुरू की, अपने ही समुदाय यानि मानव प्रजाति से आपस में संघर्ष करना शुरू किया, तब से जैव विविधता का नाश होता गया। जंगल कटते चले गए और हमने हर पल अपनी भोग विलासिता के लिए प्रकृति को ही निशाना बनाया, जिसके चलते, अनेक पेड़-पौधों और जीव जंतुओं की प्रजातियाँ विलुप्त होती चली गयी। खैर! ये सभी वो मुद्दे हैं, जिस पर हर कोई बोलने को तैयार है। फिलहाल मेरी कोशिश है कि आप सब पाठकों को पातालकोट के आदिवासियों के नायाब पारंपरिक ज्ञान की जानकारियों से अवगत कराया जाए ताकि हम सभी समझ पाएं की प्रकृति के साथ सामंजस्य से जीवन कितना आसान और सुखद हो सकता है। पातालकोट जैसे सुदूर इलाकों में रह रहे वनवासी हम सभी शहरियों के लिए प्रेरणास्रोत हैं जिनकी सामान्य किंतु स्वस्थ जीवनशैली हम जैसे लोगों के लिए एक सीख से कम नहीं।
घरों की बनावट और पर्यावरण: घाटी का हर घर एक विशेष बनावट का बना होता है जो कि यहाँ की जलवायु और भौगोलिक संरचना के हिसाब से तैयार किया जाता है। मकान बनाने से पहले ग्रह- नक्षत्रों और दिशामान का ध्यान जरूर रखा जाता है। मकान की नींव रखे जाने से पहले धरती माँ की पूजा की जाती है और जंगलों और पहाड़ों को भी नमन किया जाता है। घर में बाहर और पीछे आँगन बनाना आवश्यक होता है, जहाँ वनवासी सब्जियों और मसालों के पौधों का रोपण करते हैं। घर में अंदर की ओर दो हिस्से होते है, एक हिस्से में लोगों का रहना और पूजन कक्ष होता है जबकि दूसरा हिस्सा अनाज संग्रहण या चौपायों के लिए चारा रखने के लिए सुरक्षित रखा जाता है। घरों के फर्निचर बहुत ज्यादा तड़क-भड़क रंग या डिज़ाइनर नहीं होते हैं, अपितु ये अत्यंत साधारण किंतु बेहद मजबूत होते हैं। घरों में कमरों की व्यवस्था कुछ इस प्रकार होती है कि हवा और प्रकाश हर कमरों में समान रूप से पहुँच पाए। पत्थरों, मिट्टी और लकड़ियों की मदद से बने इन घरों की दीवारों पर बाहरी तरफ छुईमिट्टी और गेरू से पोतकर रंगत लायी जाती है, जबकि दीवारों की आंतरिक सतहें गोबर और चूने सी लेपित की जाती है। माना जाता है कि गोबर और चूने का लेप गर्मियों में घर के अंदर के तापमान को कम करके रखता है। घर की छत बाँस और अन्य लकड़ियों से तैयार की जाती है जिसके ऊपर मिट्टी की बनी खपरैल या कवेलू रख दी जाती है।
अनाज का भंडारण: अनाज का भंडारण बाँस की कमचियों और पट्टियों से बनी बड़ी टोकरियों में किया जाता है। टोकरी के चारों तरफ गोबर और मिट्टी को लेपित कर दिया जाता है। टोकरी में सबसे नीचे नीम की साफ धोकर सुखायी हुई पत्तियों को रखा जाता है और इसके ऊपर अनाज डाला जाता है। जब अनाज आधी टोकरी तक भर जाए तो पुन: नीम और साल की पत्तियों से इसे ढाँक दिया जाता है। ढाँकने के बाद इसके ऊपर पुन: अनाज डालकर टोकरी को भर दिया जाता है। टोकरी के भर जाने पर एक बार फिर अनाज के ऊपर नीम और साल की पत्तियों को रखकर एक सतह बना दी जाती है और बाँस की कमचियों से बने ढक्कन से ढाँक दिया जाता है। वनवासी बुजुर्गों के अनुसार ऐसा करने से अनाज लंबे समय तक सुरक्षित रहता है और इसमें कीड़े नहीं लगते हैं।
वनवासी खान-पान: पातालकोट के आदिवासियों का खान-पान पूरी तरह से प्राकृतिक और प्रकृति आधारित है। मौसमों के बदलाव के आधार पर इनका खान-पान भी बदलता रहता है। बरसात के मौसम में हरी भाजियों को अच्छी तरह से साफ करके इसे अधकचा पकाया जाता है। चिरोटा या चक्रमर्द की भाजी बरसात के आगमन के साथ ही हर रसोई का हिस्सा बन जाती है। बुजुर्ग आदिवासियों के अनुसार चिरोटा की भाजी सूक्ष्मजीवी संक्रमण को रोकने में अत्यंत कारगर होती है। बरसात के आते ही सूक्ष्मजीवी आक्रमण तय होता है जिससे बुखार आना, सर्दी, खाँसी के अलावा त्वचा पर भी संक्रमण होने की गुंजाईश बनी रहती है। हरी सब्जियों के अलावा शारीरिक ऊर्जा को बनाए रखने के लिए अक्सर मक्के के दानों को उबालकर खाया जाता है और दानों के निकाले जाने के बाद बचे भुट्टे को जमीन ही दबा दिया जाता है या इसे सुखाकर चुल्हे में जलाने के लिए इस्तमाल किया जाता है। सब्जियों, भाजियों को पकाने से पहले सफाई करते समय फेंके गए डंठल, छिलकों को चटनी के तौर पर तैयार किया जाता है या ज्यादा खराब अगों को घर के नजदीक बने गड्ढे में डाल दिया जाता है। खाने में सिर्फ स्थानिय सब्जियों और अनाज का इस्तमाल किया जाता है। मुनगे (सहजन) की पत्तियों की चटनी, भाजी, फल्लियों की सब्जी, टमाटर, चौलाई, लाल भाजी, बथुआ, टिमरा, फराशबीन, कुंदरू, काटवल, सेम, पोपट फल्ली जैसी स्थानीय सब्जियों के अलावा उड़द, मूँग, अरहर, लाखोडी की दाल और कोदू, कुटकी, मक्का, चावल आदि अनाज के तौर पर उपयोग में लाए जाते हैं। मौसमी सब्जियों, अनाज और फलों के सेवन के साथ यह भी ध्यान रखा जाता है कि इनका उपयोग संतुलित मात्रा में ही हो।
घरों की सफाई और परिवेश: भोजन संपन्न होने के बाद थाली में हाथ धोना वर्जित होता है, घर के नजदीक बने गड्ढे के करीब जाकर हाथ धोया जाता है और थाली में यदि भोजन का कोई हिस्सा बचा हो तो इसी गड्ढे में डाल दिया जाता है या घर में पालतू जानवरों को खिला दिया जाता है। सब्जी, भाजी, अनाज का बुरादा, सड़ी-गली खाद्य वस्तुओं के अलावा गाय-भैंस आदि के गोबर को गड्ढे में डाला जाता है। गड्ढे का आकार ज्यादा बड़ा नहीं होता है। करीब एक सप्ताह में घरेलु कचरों से गड्ढा भर जाता है। गड्ढा भरते ही इसी मिट्टी से पूर दिया जाता है और ठीक इसके बाजू में एक अन्य गड्ढा तैयार किया जाता है जहाँ अगले एक सप्ताह तक घर का कचरा, बचा कु़चा भोज्य पदार्थ और अन्य सामान डाला जाता है। वनवासी मानते हैं कि ऐसा करने से मिट्टी की उर्वरकता बनी रहती है, दबा हुआ कचरा गोबर के साथ विघटित होकर खाद बन जाता है। खाना बनाने से पहले और बनने के बाद रसोई की सफाई सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है। एक बार जब रसोई में सारा खाना बन जाता है और उसकी सफाई हो जाती है तो यकीन मानिये आप समझ ही नहीं पाएंगे कि इस जगह पर कुछ देर पहले चुल्हा जलाया गया था या खाना पकाया था। भोजन के तुरंत बाद घर के बाहर आँगन में बैठकर दिन भर की चर्चा की जाती है, यह ध्यान रखा जाता है कि खाने के तुरंत बाद कोई सोए नहीं। घर के बुजुर्ग चर्चा में बच्चों को जरूर सम्मिलित करते हैं ताकि उनकी समझ और जानकारी बढ़े।
पारिवारिक अनुशासन: वनवासी परिवारों में अनुशासन संस्कारों के तौर पर पीढी दर पीढी आता है। सूर्योदय से पहले बिस्तर छोड़ना, पिता के साथ बच्चों का जंगल जाना, वन संपदाओं का संग्रहण करना और एक साथ परिवार के सभी सदस्यों का भोजन करना जैसे क्रियाकलाप पारिवारिक अनुशासन को दर्शाते हैं। घरों की महिलाएं भी सुबह से घर के क्रिया-कलापों में खुद को व्यस्त कर लेती हैं और जरूरत पड़ने पर परिवार के बुजुर्गों और पुरुषों के साथ जलाऊ लकड़ी लाने जंगल भी जाती हैं। वनों की लकड़ियों की कटाई से पहले तय कर लिया जाता है कि सूखे और क्षतिग्रस्त वृक्षों की शाखाओं को काटा जाएगा। वनवासी बुजुर्ग बच्चों के साथ काफी समय व्यतीत करते हैं और वनों और जंगली जानवरों से जुड़ी कथाओं को सुनाकर बच्चों को पर्यावरण और वनों के महत्व का जिक्र बच्चों से करते हैं। अनौपचारिक शिक्षा के जरिये बच्चों को लोक-गीत, संगीत और कलाओं के बारे में बताया जाता है।
पर्यावरण मित्र सामाग्री: पानी को ठंडा रखने के लिए काली मिट्टी का मटका, कोदू- कुटकी जैसे स्थानीय अनाज को पीसने के लिए मिट्टी की चाकी, आँगन में धूल कम उड़ाने वाली छींद की झाड़ू, लकड़ी से बना बक्खर, मिट्टी का चूल्हा, मिट्टी का तवा, मिट्टी से बने कटोरे, चटाईयाँ, अनाज संग्रहण का तिपया, लकड़ियों से बनी कटोरियाँ, पकी हुयी सब्जियों और खाद्य सामाग्रीयों के रखने के लिए बनाई गयी ढोलकी, चम्मच, बैलगाड़ी के पहिए, चकमक, बाँस और पत्तियों से बनी परदे या पुराने कपड़ों से बुनकर तैयार गोदड़ी, जानवरों के गलों में बाँधे जाने वाली लकड़ियों की घंटियाँ (टापर), ढोल, बाजे और अन्य वाद्य यंत्र ऐसे सामान है जो शहरी क्षेत्रों में देखने नहीं मिलते लेकिन आज भी पातालकोट में हर घरों में इनका इस्तेमाल आम है।
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आदिवासियों का पर्यावरण के बीच रहते हुए पर्यावरण की चिंता और पर्यावरण का सामंजस्य से दोहन देखते बनता है। इन सब के बावजूद पातालकोट में भी आधुनिकता नाम की धूप पैर पसारने को बेताब है। पिछले २ दशकों में पातालकोट ने कई परिवर्तन देखे हैं। धीमे-धीमें घाटी के युवाओं में बाहरी दुनिया का असर देखने में आ रहा है और शायद इसी का असर है कि युवा अपने पारंपरिक ज्ञान को सीखने और समझने के लिए तत्पर नहीं। आदिवासियों के बीच बाहरी दुनिया का आ धमकना चिंता का विषय है। पर्यावरण के चिंतकों को इस बारे में सोचना होगा किंतु एयर कंडिशन युक्त गोलमेज बैठकों में कोई निर्णय नहीं आ सकता। पर्यावरण की चिंता करने वाले पर्यावरणविदों और नीति निर्धारकों को एक बार पातालकोट जाकर आदिवासियों के जीवन-यापन को समझना चाहिए। प्रकृति पर पूर्णरूपेण आश्रित गोंड और भारिया वनवासी सदियों से अपना जीवन यापन इसी तरह करते आ रहें हैं, ये बात अलग है कि हम बाहरी दुनिया के लोगों को आज भी इनके रहन-सहन, खान-पान में अनेक खामियाँ नजर आती हैं। वनवासी हमें गरीब, असहाय और लाचार नजर आते हैं और परिणाम स्वरूप हम इन्हें रोजगार के अवसर दिलाना चाहते हैं। इस क्षेत्र में रोजगार के अवसरों और आय के जरियों को खोजने के लिए सरकार और स्थानीय नुमाईंदे एडवेंचर स्पोर्ट्स जैसे आयोजन करते हैं, आखिर क्या वनवासियों को इन सबकी जरूरत है? क्या वनवासी पैरा ग्लायडिंग, वाटर राफ्टिंग या पैरा सायक्लिंग करना चाहता है? जरा सोचिए, क्या ये सब आदिवासियों के उत्थान के लिए आवश्यक महसूस होता है? या इस तरह के आयोजन से किसी और तबके का उत्थान हो जाता है।
मेरे खयाल से आधुनिकता की चकाचौंध ने हमारा जीवन तहस नहस कर दिया है, पातालकोट जैसे प्राकृतिक स्थलों से हम तथाकथित विकास को दूर रखें तो संभव है हम वनवासियों के जीवन को तहस-नहस होने से बचा पाएंगे। हम सभी यदि इन वनवासियों के ज्ञान और पर्यावरण के सामंजस्य को समझ पायें तो इससे बडी कोई और बात ना होगी, है ना बात पते की..।