लखनऊ/सिहोर। देश में बड़ी-बड़ी संस्थाएं और प्रयोगशालाएं कृषि क्षेत्र में शोध के लिए लाखों रुपए खर्च करती हैं, वहीं पर एक किसान ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने खेत को ही प्रयोगशाला बना कर अरहर, अमरूद और गेहूं की नई किस्में विकसित कर दी हैं।
मध्य प्रदेश के सिहोर जिले के जमुनिया गाँव के किसान राजकुमार राठौर (50 वर्ष) शुरू से ही खेती में नए प्रयोग करते रहते थे।साल 1997 में सोयाबीन की फसल बर्बाद होने के बाद घरवालों ने इन्हें इनकी हिस्से की सात हेक्टेयर जमीन देकर अलग कर दिया। बस वहीं से राजकुमार राठौर की असली शुरुआत हुई।
अपनी अरहर की नई प्रजाति का नाम आनी बेटी के नाम पर ऋचा-2000 रखा है। इसके लिए उन्हें नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन की तरफ से सम्मानित भी किया गया है। इस किस्म की खास बात ये है कि ये साल में दो बार उत्पादन देती है।
राजकुमार राठौर बताते हैं, “साल 1997 में मैंने अरहर की नई किस्मों के लिए काम करना शुरू किया, पंद्रह साल में ऋचा-2000 इजाद कर पाया। इसे एक बार लगा देने पर किसान दो बार उत्पादन ले सकते हैं।” ऋचा-2000 को 15 जून से 15 जुलाई तक बोने पर पहला उत्पादन दिसम्बर में आता है, दोबारा इसी पौधे पर मार्च में फलियां आने लगती है। इनकी खासियत यह है कि इसमें अरहर की फसल गुच्छे में आती है।
किसान दिसम्बर में पहली बार फलियां तोड़ सकते हैं। एक किलो अरहर का दाम 500 रूपये में बेचते हैं। नई किस्म को देश के कई प्रदेशों के किसान मंगा रहे हैं। राजकुमार राठौर कहते हैं, “मेरे पास उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, दक्षिण भारत के प्रदेशों के साथ नेपाल तक के किसान फोन कर के अरहर के बीज मंगा रहे हैं। दूसरी किस्म की बुवाई में एक एकड़ में जहां 4-5 किलो तक बीज लगता है, वहीं ऋचा-2000 एक किलो ही एक एकड़ के लिए पर्याप्त होता है।”
ऋचा-2000 के साथ ही उन्होंने गेहूं की शुगर फ्री उन्नत किस्म ए-10, ए-12, अमरूद की तीन स्वाद वाली किस्म सिद्धी विनायक और सोयाबीन की किस्म आर-2014 भी इज़ाद की है। राजकुमार राठौर को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने नव प्रवर्तन पुरस्कार से सम्मानित किया है। तीन स्वाद वाले सिद्धी विनायक किस्म के अमरूद में अमरूद, अन्ननास और नाशपाती का स्वाद आता है।
राजकुमार ने अरहर की किस्म तो इज़ाद कर दी, लेकिन उसका पेटेंट कराने में उन्हें बहुत परेशानी हुई। राजकुमार बताते हैं, “किस्म तो इज़ाद कर ली थी, उसके बाद उसका पेटेंट कराना था।” सीहोर के कृषि कालेज में ले गया तो वैज्ञानिकों ने कोई मदद नहीं की। वो आगे कहते हैं, “उसके बाद वनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान के लिए कुछ बीज भेजा है, लेकिन वहां से कोई जवाब नहीं मिला और कृषि अनुसंधान परिषद से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। एनआईएफ के प्रतिनिधियों ने मुझे मीडिया में आई खबरों को पढ़ने के बाद संपर्क किया और 2007 में मुझे मेरे काम के लिए सम्मानित किया गया है।”