सब पे गाँव वाला बनने का फैशन सवार है

Update: 2016-10-12 12:27 GMT
नीलेश मिसरा के कॉलम सड़कछाप में पढिए कि कैसे गाँवों का रहन सहन अब शहरों का बाज़ार बनता जा रहा है

प्यारे छुट्टन भैया,

प्रभु की दया और बुरी नजर वालों का मुंह काला हो जाने के कारण हम हियां एकदम ठीक से हैं। बड़ा शहर हमें खूब बढिय़ा रास आ रहा है। हमारी पढ़ाई ठीक चल रही है। गेहूं ख़तम होने वाला है सितलू अबकी जब मंडी आये तो उसके हाथ भिजवा दीजियेगा। होटल वाले को अम्मा के हाथ की रोटी की दुहाई दे दे के हम रोज़ गरियाते हैं। होटल वाला शायद अम्मा के अंडर में ट्रेनिंग करना चाहता है। चपत खा खा के शायद अच्छी चपाती खिलाना सीख जाए।

गाँव की बड़ी याद आती है लेकिन अब हम शहर का मामला समझ गए हैं। असल में छुट्टन भैया आज कल शहर में सब को गरीब और गाँव वाला फील करने का मूड कर रहा है। बल्कि हम तो कहते हैं गंवई फील करने का भूत सवार है। शहरवालों को कुछ टाइम के लिए ही सही गाँववाला बनने में बड़ा मजा आने लगा है छुट्टन भैया। हमने नोटिस किया है कि बड़े-बड़े लोग कुल्हड़ में चाय पीना चाहते हैं गैंग्स ऑफ वासेपुर और पीपली लाइव और पान सिंह तोमर टाइप पिक्चर देख के गाँव इश्टाइल में बोलना चाहते हैं और फर्जी गाँव.. यानी गाँव के फिल्म सेटनुमा खाने, पीने, मनोरंजन की जगहों पे जा के ज़मीन पे बैठ के खाना खाना चाहते हैं। अमीरी की सबसे चकाचक अदा आजकल गरीबी बन गयी है छुट्टन भैया।

हमें ये बात हर्ट करती है। हम जऱा पिलपिले दिल वाले हैं। आप तो जानते ही हैं कि कैसे हम बचपने में जि़द करते थे कि हमारा ऊन वाला मफलर गैय्या को पहनाया जाए क्यूंकि उसे ठंड लग रही होगी। हम गाँव के लिए बड़ा फील करते हैं छुट्टन भैया। और हमें बड़ा अच्छा लग रहा है ये देख के कि इन्ही शहर वालों को जिन्होंने कभी गाँव के नाम पे 'गंवार' शब्द इजाद किया था वो आज कल गाँव में इतना इंटरेस्ट ले रहे हैं। कल पड़ोस वाली आंटी ने हमें घर बुलाया। बुलाया तो था डांटने के लिए क्यूंकि हम भौजी वाला लोकगीत अत्यधिक लाउड पे सुन रहे थे उस दिन लेकिन जब हमने अपने गाँव के बैकग्राउंड का परिचय दिया तो उनका दिल कोल्हू पे कढ़ाई में छनते गुड़ की तरह पिघल गया।

''बेटा सड़क छाप गाँव में क्या भैंस भी रूम में सोती है''

हमने कहा, ''नहीं आंटी भैंस का अपना अलग रूम होता है। उसका नाम होता है भैंस का बाड़ा।''

''वाव! भैंस का अपना रूम? मुझे तो सीजऱ को अपने बेड पे ही सुलाना पड़ता है!'' आंटी जी ने अपने आलसी झबरीले कुत्ते को दया से देखते हुए कहा। उसका नाम रोमन योद्धा जुलियस सीजऱ के नाम पे रखा गया था लेकिन बिचारे के पास कमरा तक नहीं था, छीछीछी.....

''जी हाँ, और भैंस और गाय की अपनी अलग डायनिंग टेबल भी होती है.... उसे नांद कहते हैं।''

ओह वाव!!.. मैं भी इनसे कह के अपने घर में एक नांद बनवाती हूँ... मैं गाँव में बहुत इंटरेस्टेड हूं बेटा सड़क छाप। पिछले हफ्ते कमिश्नर साहब की बेटी की शादी में गए थे हम लोग, वहां पर विलेज का थीम था.... एक कोने में गाय-भैंस खड़ी थीं, और उनके आगे शादी के गेस्ट उन्हें हंस-हंस के चारा खिला रहे थे... एक काउंटर पे गेस्ट गन्ना खा के अपने दांत मज़बूत कर रहे थे, जैसा टीवी ऐड में आता है ना! दो तीन बकरियों के बच्चे घूम रहे थे इधर उधर लिटिल-लिटिल ब्लैक-ब्लैक पॉटी करते हुए...सो क्यूट!! एक साइड में एक बैलगाड़ी भी खड़ी थी... उस पे बच्चे चढ़ रहे थे, इत्ते खुश थे... वेटर धोती कुरते में थे और कंधे पे वो विलेज वाला टावेल रखे थे... क्या कहते हैं।

''गमछा, आंटी।''

हां, गमछा .... मैं भी मार्किट गयी थी गमछा खरीदने हैण्ड टावेल बनाना चाहती थी। लेकिन सिटी मॉल में मिला नहीं... आंटी के ड्राइंग रूम में दो-दो सौ रुपये के एक कप वाले सेट और महंगी क्रॉकरी के एकदम बगल में छेह ठो चिकनी मिटटी के कुल्हड़ रखे थे। और हुआं इल्मारी के साइड में छोटी सी साइड टेबल पे छोटू बैलगाड़ी भी रक्खी थी छुट्टन भैया! बैल के सींग पे सुनहरा वर्क था!

छुट्टन भैया, हियाँ एक ऐसा एक ''गाँव'' भी बनाया है किसी ने जिस में तीन सौ रुपये का टिकट लगता है! मिटटी का कॉटेज बनाया है जगह-जगह, और उस में एयरकंडीशन फिट है! बैलगाड़ी, बिरहा गीत, गुलेल्बाजी, कुआं, पगडंडी, पनघट पानी ढोती औरतें, सब मिलती हैं और पूरी जगह भी बुक कर सकते हैं चालीस पचास हज़ार रुपये में एक दिन के लिए! छुट्टन भैया, इत्ते में तो साल भर का खर्चा निकल आता अपना! इसी मनगढ़ंत गाँव के आगे करीब पांच किलोमीटर दूर असली गाँव है, लेकिन वहां जाने में घिन आती है उनको!

खैर, जो भी हो छुट्टन भैया, शहर वाले जब गाँव में इत्ता इंटरेस्ट दिखा रहे हैं तो हमें लगता है हमें भी अपना गंवईपन जरा बरकऱार रखना चाहिए। और छुट्टन भैया, हमने अपने पुराने लकड़ी वाले बक्से से अपना गमछा निकाल लिया है। बदलते फैशन का मामला है, हमें टिप टॉप रहना आता है!

(यह लेखक के अपने विचार हैं)

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