मुद्दा: बदलता नहीं दिख रहा बीजिंग

Update: 2017-03-01 18:33 GMT
कूटनीति में आ रहे बदलावों और हितों के नए वैश्विक टकरावों को देखते हुए अब यह आवश्यकता महसूस होने लगी है कि भारत और चीन के बीच स्वस्थ व समृद्ध संबंध निर्मित हों।

कूटनीति में आ रहे बदलावों और हितों के नए वैश्विक टकरावों को देखते हुए अब यह आवश्यकता महसूस होने लगी है कि भारत और चीन के बीच स्वस्थ व समृद्ध संबंध निर्मित हों। इस तथ्य से न केवल भारत बल्कि चीन भी अनजान नहीं लेकिन इसके बावजूद चीन कूटनीतिक व सामरिक धरातल पर जिन उपायों का आश्रय लेता है या जिन गतिविधियों को संचालित करता है, उन्हें किसी भी दृष्टि से भारत-चीन मैत्री का प्रतीक नहीं माना जा सकता।

ऐसे में विदेश सचिव एस. जयशंकर का भारत-चीन रणनीतिक वार्ता में शामिल होने के लिए बीजिंग पहुंचना और मुख्य रूप से उन तीन मुद्दों पर चीन का ध्यान आकर्षित करना जो भारत के लिए विशेष कूटनीतिक-सामरिक महत्व रखते हैं, समय की जरूरत के रूप देखे जा सकते हैं। लेकिन चीन की तरफ से उन पर कोई सकारात्मक संकेत न मिलना किसी बेहतर उपलब्धि का सूचक नहीं माना जा सकता। प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में चीन भारत की जरूरतों को समझता है और भारत की भौगोलिक सम्प्रभुता का आदर करना चाहता है? क्या भारत को चीन के इस नजरिए के बावजूद स्वस्थ संबंधों के अपने प्रयासों को जारी रखना चाहिए?

देश-दुनिया से जुड़ी सभी बड़ी खबरों के लिए यहां क्लिक करके इंस्टॉल करें गाँव कनेक्शन एप

भारतीय विदेश सचिव एस. जयशंकर की चीन यात्रा मुख्यतया तीन मुद्दों पर केंद्रित थी। प्रथम पाकिस्तानी आतंकी एवं जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन का वीटो। द्वितीय- एनएसजी में भारत की सदस्यता को लेकर चीनी अडंगा और तृतीय-चीन की 46 अरब डॉलर वाली महत्वाकांक्षी परियोजना यानि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे पर भारत का नजरिया। ध्यान रहे कि अभी कुछ समय पहले ही भारत के जैश-ए-मोहम्मद के सरगना आतंकवादी मौलाना अजहर मसूद पर प्रतिबंध लगाने संबंधी प्रस्ताव पर चीन ने वीटो कर दिया था। जैश-ए-मोहम्मद की आतंकी गतिविधियों और पठानकोट हमले में अजहर मसूद की भूमिका से जुड़े पक्के सबूत के साथ उसे प्रतिबंधित करने हेतु भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव लाया था। भारत की ओर से दिए गए बयान में कहा गया था कि वर्ष 2001 से जैश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रतिबंधित सूची में शामिल है क्योंकि वह आतंकी संगठन है और उसके अल-कायदा से लिंक हैं लेकिन तकनीकी कारणों से जैश के मुखिया अजहर मसूद पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सका। भारत का तर्क था कि इस तरह के आतंकी संगठनों को प्रतिबंधित न किए जाने का खमियाजा पूरी दुनिया को उठाना पड़ सकता है। इस तर्क पर कमेटी के 15 में से 14 सदस्य सहमत भी थे लेकिन चीन की असहमति ने अजहर मसूद को प्रतिबंधित सूची में जाने से रोक लिया।

खास बात यह है कि चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हांग लेई की तरफ से इस संदर्भ में कहा गया था कि चीन ‘आतंकवाद के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में संयुक्त राष्ट्र में एक केंद्रीय एवं समन्वित भूमिका निभाने का समर्थन करता है। लेकिन ‘हम एक वस्तुनिष्ट और सही तरीके से तथ्यों और कार्यवाही के महत्वपूर्ण नियमों पर आधारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद समिति के तहत मुद्दे सूचीबद्ध करने पर ध्यान देते हैं जिसकी स्थापना प्रस्ताव 1267 के तहत की गई थी।’ रणनीतिक वार्ता के दौरान विदेश सचिव ने चीन से स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मसूद अजहर पर सुबूत देना हमारा काम नहीं है। उनका कहना था कि जैश सरगना मसूद अजहर की गतिविधियों को लेकर अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां उसकी गतिविधियों के बारे में काफी सूचनाएं जुटा चुकी हैं।

न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भारत के प्रवेश पर चीन का नजरिया नकारात्मक रहा है जबकि ताशकंद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से आग्रह किया था कि चीन भारत के आवेदन पर एक निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करे तथा भारत की मेरिट के आधार पर निर्णय ले। लेकिन शी जिनपिंग ने उस समय भी जवाब दिया था कि यह एक जटिल और नाजुक प्रक्रिया है। उस समय चीन के शस्त्र नियंत्रण विभाग के महानिदेशक वांग कुन का तर्क था यदि कोई देश एनएसजी का सदस्य बनना चाहता है तो उसके लिए परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर हस्ताक्षर करना ‘अनिवार्य है’। यह नियम चीन ने नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने बनाया है। उन्होंने चेतावनी भी दी कि ‘यदि यहां या फिर एनपीटी के सवाल पर अपवादों को अनुमति दी जाती है तो अंतरराष्ट्रीय अप्रसार एक साथ ढह जाएगा।’ खास बात यह है कि इस रणनीतिक वार्ता के बाद भी इस विषय पर चीन में कोई परिवर्तन नहीं दिखा है।

चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) में भारत के शामिल होने संबंधी विषय भी विदेश सचिव की इस यात्रा के दौरान उठा। इस संबंध में भारत ने चीन से यह बताने को कहा कि वह चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) में कैसे शामिल होगा, जबकि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) से गुजरने वाली यह परियोजना उसकी संप्रभुता के खिलाफ है। उल्लेखनीय है कि इसी वर्ष मई में होने वाले सम्मेलन में चीन ने भारत को भी शामिल होने का निमंत्रण दिया है। विदेश सचिव का कहना था कि ‘हम चीन के प्रस्ताव पर विचार कर रहे हैं। लेकिन, वास्तविकता यह है कि है कि यह परियोजना एक ऐसे भौगोलिक हिस्से से गुजर रही है, जो भारत के लिए काफी संवेदनशील है। वैसे भी चीन भौगोलिक संप्रभुता को लेकर काफी संवेदनशील रहता है। लेकिन उसे इस बात का जवाब देना चाहिए कि किस तरह से कोई देश इसमें शामिल हो सकता है, जिसकी संप्रभुता इससे प्रभावित हो रही हो।’

बहरहाल विदेश सचिव एस जयशंकर के नेतृत्व में भारतीय दल ने बीते बुधवार को बीजिंग में भारत-चीन रणनीतिक वार्ता की पहली बैठक में हिस्सा लिया और इस दौरान चीन को लेकर भारत की कूटनीतिक में कुछ दिनों से दिख रहे बदलाव को विदेश सचिव ने पूरी तरह से साफ किया। महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों देशों की तरफ से यह वक्तव्य दिया गया कि उनकी रणनीतिक बातचीत सफल और सकारात्मक रही है। लेकिन चीन विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने जैश-ए-मोहममद के सरगना मसूद अजहर और एनएसजी में भारत की सदस्यता से जुड़े सवाल टाल दिए। चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गैंग शुआंग ने कहा कि भारत और चीन के बीच हुई बातचीत में सम्भावित लक्ष्य हासिल कर लिए गए। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब प्रमुख तीन मुद्दों में दो पर चीन अपने पुराने निर्णय पर अडिग हो तो फिर वार्ता के नतीजों को किस रूप में देखा जाना चाहिए।

ध्यान रहे कि जब दो देश अपने विवादित पांरपरिक मुद्दों को भुलाकर समान हितों पर सहमति बनाते हैं। दीर्घकालिक हितों को साधने के लिए ठोस कदम उठाते हैं तो उसे रणनीतिक वार्ता कहा जाता है। विशेषकर उन स्थितियों में जब अमेरिकी नीति एशिया पीवोट से मास्को पीवोट की ओर शिफ्ट हो रही हो और मास्को का नजरिया नई दिल्ली से इस्लामाबाद की ओर शिफ्ट होता दिख रहा हो तब यह जरूरी हो जाता है कि नई दिल्ली बीजिंग की गतिविधियों को गम्भीरता से देखे और और उसे मास्को-इस्लामाबाद के बीच सेतु बनने से रोके। हालांकि चीन पाकिस्तान को अपना आलव्हेदर दोस्त मानता है और सीपीईसी तथा स्टि्रंग ऑफ पर्ल्स में पाकिस्तान को रणनीतिक महत्व के केंद्र में रखकर आगे बढ़ रहा है, ऐसे में यह बेहद मुश्किल बात है कि बीजिंग का इस्लामाबाद प्रेम कम होगा या फिर वह नई दिल्ली के प्रति अपना नजरिया बदलेगा। हालांकि बीजिंग अपने समक्ष आ रही चुनौतियों को देखते हुए नई दिल्ली के प्रति यदि अपना नजरिया बदल ले तो आने वाले समय में वह कहीं अधिक लाभ की स्थिति में रहेगा, लेकिन शायद वह ऐसा करेगा नहीं।

(लेखक आर्थिक व राजनीतिक विषयों के जानकार हैं। ये उनके निज़ी विचार हैं।)

ताजा अपडेट के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए यहां, ट्विटर हैंडल को फॉलो करने के लिए यहां क्लिक करें।

Similar News