फूड फोर्टिफिकेशन, पोषण की कमी का नया रामबाण इलाज

पोषण सुरक्षा के लिए कोई चमत्कारिक उपाय नहीं हैं। लेकिन कुछ लोग अनुभव के आधार पर एनीमिया और पोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए फोर्टिफिकेशन को एक चमत्कार के रूप में पेश करते रहे हैं। दरअसल यह एक क्लिनिकल ​​​​दृष्टिकोण है। इसे बड़े पैमाने पर लागू नहीं किया जा सकता और न ही किया जाना चाहिए।

Update: 2021-09-14 13:52 GMT

भोजन प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है। फोटो: यूनिसेफ इंडिया

अनिवार्य फूड फोर्टिफिकेशन पर हाल ही में एक वेबिनार आयोजित किया गया था। जिसमें विशेषज्ञों ने फूड फोर्टिफिकेशन के विभिन्न पहलुओं पर अपनी बात रखी। खासकर चावल को लेकर काफी चर्चा की गई जिसे भारत के कुछ जिलों में आजमाया जा रहा है। वेबिनार का आयोजन एलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (ASHA) ने किया गया था। यह स्थायी कृषि, किसान कल्याण और खाद्य सुरक्षा की दिशा में काम करने वाली एक सामूहिक संस्था है।

पिछले महीने स्वतंत्रता दिवस पर, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस बारे में अपनी बात रखी थी कि सरकार किस तरह से फूड फोर्टिफिकेशन के जरिए देश में एनीमिया को दूर करने की योजना बना रही है।

अस्सी के दशक की शुरुआत में, सरकार ने आयोडीन के साथ नमक को अनिवार्य बनाने का फैसला किया था। उस समय पहली बार हमने फोर्टीफिकेशन शब्द के बारे में सुना और जाना था। आयोडीन की कमी के चलते बड़ी संख्या में लोग कई शारीरिक समस्याओं का सामना कर रहे थे। खासकर हिमालयी क्षेत्र में रहने वाले लोग। इन विकारों को दूर करने के लिए ही सरकार ने नमक के साथ आयोडीन को अनिवार्य बनाने का निर्णय लिया था।

भारत में आयोडीन नमक

1950 के दशक में, भारत में आयोडीन युक्त नमक की शुरुआत की गई थी। लेकिन 1983 में केंद्रीय स्वास्थ्य परिषद की सालाना बैठक में यह निर्णय लिया गया कि 1992 तक भारत में खाने वाले सभी तरह के नमक को आयोडीन युक्त कर दिया जाएगा। नमक में आयोडीन को मिलाने को लेकर सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के बीच की वो तीखी झड़प मुझे अभी तक याद है। उसी समय इसे अनिवार्य करने का निर्णय लिया गया था।

तटीय क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने पूछा था कि आयोडीनीकरण को अनिवार्य क्यों बनाया जाना चाहिए? तटीय क्षेत्र में रहने वाले लोग खूब समुद्री मछली खाते है जो आयोडीन का एक अच्छा स्रोत है। यहां तक ​​कि डेयरी उत्पाद, अंडे, साबुत अनाज, हरी बीन्स, स्ट्रॉबेरी, छिलके वाले आलू आदि से भी अच्छा खासी मात्रा में आयोडीन मिल जाता है। तो फिर इसकी जरुरत क्यों है?

विशेषज्ञ भारत के कई हिस्सों में खाए जाने वाले अंडे, मांस, डेयरी, मछली जैसे पोषक तत्वों से भरपूर पशु-आधारित खाद्य पदार्थों को बढ़ावा देने का सुझाव देते हैं। फोटो: अरेंजमेंट

इसके बावजूद, साल 1986 में इस प्रोजेक्ट को कई चरणों में पेश किया गया था। और तब से यानी पिछले तीन दशकों से हम आयोडीन युक्त नमक का सेवन कर रहे हैं।

महिलाओं को यह नमक खासा पसंद आने लगा था क्योंकि यह दिखने में काफी साफ और सफेद था। और फ्री फ्लो भी था। मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया कि आयोडीन की कमी के कारण होने वाली स्वास्थ्य समस्याएं अब अतीत की बात हो गई हैं।

कुछ सालों बाद मेरी मां को स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं सामने आने लगी थीं। उन्हें समन्वय और मांसपेशियों की कमजोरी की शिकायत थी। उस समय डॉक्टर ने मुझे उन्हें साधारण नमक खिलाने के लिए कहा था। ऐसा नमक जिसमें आयोडीन न मिला हो। उन्होंने बताया कि साधारण नमक में कई सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं जो आयोडीन युक्त नमक में नहीं मिलते।

काफी प्रयास करने के बाद मुझे साधारण नमक मिल पाया था। यह आसानी से हर जगह उपलब्ध नहीं था। खुशी की बात है कि हमने वह नमक खाना शुरू कर दिया और मेरी मां भी ठीक हो गई। हालांकि उस समय मुझे पता नहीं था कि यह कैसे काम करता है। लेकिन कई साल बाद, मुझे अब भी आश्चर्य होता है कि भारत सरकार ने आयोडीनीकरण को अनिवार्य बनाने का फैसला क्यों किया था। इसे वैकेल्पिक क्यों नहीं बनाया गया था।

भारत में गरीब परिवारों में खाद्य विविधता का अभाव है। फोटो: यूनिसेफ इंडिया

अब चावल का फोर्टिफिकेशन

अब एक बार फिर से सरकार ने एनीमिया और पोषक तत्वों की कमी से जुड़े अन्य समस्याओं से निपटने के लिए फोर्टीफिकेशन का प्रस्ताव रखा है। जबकि हमारे पास पहले से ही फोर्टिफाइड दूध, तेल, चावल और गेहूं मौजूद है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) वर्ष 2024 तक चावल के फोर्टिफिकेशन को अनिवार्य बनाने के लिए काम कर रहा है। तेल और दूध के अनिवार्य फोर्टिफिकेशन के नजदीक हैं। अनिवार्य फोर्टिफिकेशन ड्राफ्ट इस साल की शुरुआत में जारी किया गया था।

प्रधानमंत्री द्वारा फोर्टिफिकेशन को लेकर अपनी मंशा जाहिर करने से पहले, दो अगस्त को चिकित्सा विशेषज्ञों, पोषण विशेषज्ञों और खाद्य और खेती पर काम करने वाले संगठनों सहित 170 लोगों ने FSSAI को लिखा था कि आयरन के साथ चावल जैसे खाद्य पदार्थों के सिंथेटिक फोर्टिफिकेशन को अनिवार्य करने के अपने फैसले को रद्द कर दिया जाए। विशेषज्ञों ने लिखा: "एक पोषक तत्व की कमी को पूरा करने के लिए एक या दो रसायनों के साथ दृढ़ीकरण से दूसरे पोषक तत्व की कमी हो सकती है। उदाहरण के लिए, हीमोग्लोबिन संश्लेषण के लिए न केवल आयरन बल्कि अच्छी गुणवत्ता वाले प्रोटीन और कई अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों की भी जरुरत होती है ... एक बड़ी आबादी में मैक्रो पोषक तत्वों में कमी को ध्यान में रखते हुए सूक्ष्म पोषक तत्वों के लिए RDA [अनुशंसित आहार भत्ता] का हवाला देते हुए अनिवार्य फोर्टिफिकेशन का यह प्रस्ताव दिखावटी है।"

वेबिनार में, राष्ट्रीय पोषण संस्थान की पूर्व उप निदेशक वीणा शत्रुघ्न ने पोषण प्रणाली के कॉर्पोरेट अधिग्रहण पर अपनी चिंता जाहिर की। उन्होंने कहा, "एनीमिया का एकमात्र कारण सिर्फ आयरन की कमी ही नहीं है। हीमोग्लोबिन एक जटिल अणु है जिसे प्रोटीन,कॉपर, मैग्नीशियम और विटामिन सी की जरुरत होती है। हमें यह विश्वास दिला दिया जाता है कि मानों आयरन हमारे शरीर में कोई जादू कर देने वाला है।"

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सरकार अब नमक में आयरन मिलाकर ,उसके दोहरे फोर्टिफिकेशन की योजना बना रही है। शत्रुगन ने कहा कि आहार में आयरन का होना एक बहुत बड़ी समस्या है। लेकिन पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन खाए बिना, शरीर आयरन को अवशोषित नहीं कर सकता है। शाकाहारियों के लिए यह एक मसला है। भले ही वे बड़ी मात्रा में सब्जियां और अनाज खाते हों, तब भी उनमें आयरन की कमी हो सकती है। जब तक कि वे दाल, तेल और डेयरी उत्पादों के रूप में पर्याप्त प्रोटीन नहीं लेते।

हर तरह का खाना खाया जाए

सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण विशेषज्ञों के अनुसार, जितना संभव हो सके अलग-अलग तरह का खाना खाएं। बाजरा, पशु प्रोटीन, डेयरी उत्पाद और सब्जियों को अपने खाने में शामिल करें। खान-पान में सुधार ही सही मायने में इसका समाधान है।

वंदना प्रसाद एक सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं। उन्होंने वेबिनार में कहा, " भारत में गरीब तबके के लोग अलग-अलग तरह का खाना नहीं खा पाते हैं। वहां खाद्य विविधता का अभाव है। चावल, चावल और चावल। लोग रोजाना दिन में तीन बार सिर्फ चावल ही खाते हैं। आजादी के पचहत्तर साल बाद भी लोगों को अच्छा खाना नहीं मिल रहा है। अब सरकार फोर्टिफाइड चावल उपलब्ध कराने पर जोर दे रही है। क्या यह हीमोग्लोबिन बनाने का तरीका है?"


खाद्य संप्रभुता पर काम करने वाले लोगों का पोषण सुरक्षा पाने का नजरिया ज्यादा साफ है। वे स्थानीय खाद्य प्रणाली विकसित करने पर काम कर रहे हैं। जहां स्थानीय समुदाय अपनी जरूरत के आधार पर फसल उगाते हैं। यह इनके खान-पान और पोषण सुरक्षा का ख्याल रखता है।

एनीमिया की समस्या से निपटने के लिए किचन गार्डन

एनीमिया की समस्या से निपटने के लिए साल 2010 से महाराष्ट्र के गांवों में एक प्रोजेक्ट अपनी जड़े जमा रहा है। इस प्रोजेक्ट को मुंबई रोटरी क्लब और सहायक ट्रस्ट ने शुरू किया है। इस योजना के अंतर्गत कुछ गांवों का चयन कर, घरों और स्कूलों में किचन गार्डन बनाया जाता है। उन्होंने पांच गांवों से शुरुआत की थी और आज गांवों की संख्या बढ़कर 25 हो गई है।

इस योजना की शुरूआत में एनीमिया को दूर करने के लिए लोगों को सब्जियों का महत्व समझाया गया था। इसके लिए पहले एक शिक्षा मॉड्यूल बनाया गया और फिर हर घर में किचन गार्डन तैयार किया गया। किचन गार्डन में 15 तरह की सब्जियां उगाई जाती हैं और यह केवल घरेलू उपभोग के लिए होती हैं।

योजना के शुरू होने से पहले एक सर्वे किया गया था। सर्वे में पता चला कि इन गांवों के लोगों में हीमोग्लोबिन का स्तर काफी कम था। लगभग 4-5 ग्राम प्रति डेसीलीटर। जब 2013 में परियोजना का पहला चरण पूरा हुआ, तो हीमोग्लोबिन का स्तर बढ़कर 10-12 ग्राम प्रति डेसीलीटर तक चला गया था। और इसका सिर्फ एक कारण था कि लोगों ने अपने रोजाना के खाने में कई तरह की सब्जियों को शामिल किया था।

प्रोजेक्ट को कुछ समय के लिए रोक दिया गया था। लेकिन जब सहायक ट्रस्ट ने इसे और अधिक गांवों में तक ले जाने का फैसला किया, तो देखा कि लगभग 90 प्रतिशत घरों ने किचन गार्डन में सब्जियां उगाना जारी रखा हुआ था और वे रोजाना सब्जियों का सेवन कर रहे थे। यह काफी आश्चर्यजनक था।

इस योजना को कई गैर-लाभकारी संस्थाओं के सहयोग से अनेक जिलों और गांवों में ले जाने की योजना है। अब इसमें घर के अहाते में मुर्गी पालन और मशरूम की खेती करना भी शामिल कर दिया गया है। यह एक ऐसी योजना है जिसमें लोगों को सिर्फ फायदा ही नहीं हो रहा था बल्कि वे विकास में भागीदार भी थे। इसके अलावा, इस तरह की योजनाओं को फोर्टिफिकेशन के उलट अधिक संसाधनों की जरुरत नहीं होती है जिन्हें बड़ी-बड़ी कंपनियां नियंत्रित करती हैं।

सरकार, एफएसएसएआई या नीति आयोग ऐसे मॉडल को दोहराने की कोशिश क्यों नहीं करते हैं? केरल जैसे अन्य राज्यों में भी किचन गार्डन आंदोलन आगे बढ़ रहा है और कई शहरी बागवान बड़े शहरों के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों के आसपास के इलाकों में भी किचन गार्डन विकसित कर रहे हैं।

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हरित क्रांति और उसके परिणाम

आजादी के बाद से, भारत कई तरह से खाद्य सुरक्षा में सुधार और भूख की समस्या को दूर करने की कोशिश कर रहा है। जब हरित क्रांति शुरू हुई और सरकार ने भारतीय खाद्य निगम और एक सार्वजनिक वितरण प्रणाली की स्थापना की, तो खाद्य सुरक्षा का पूरा ध्यान चावल और गेहूं पर केंद्रित हो गया। इन्हें लोगों को रियायती दर पर दिया जाता था। चावल और गेहूं ज्यादातर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नए विकसित सिंचित क्षेत्रों में उगाए गए थे और बाद में अन्य राज्य सरकारों ने भी यही रणनीति अपनानी शुरू कर दी थी।

किसानों को उच्च उपज देने वाली किस्म के बीज, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक दिए गए। इससे न केवल चावल और गेहूं का बल्कि कई अन्य फसलों की कृषि जैव विविधता का भी क्षरण हुआ था।

अगर सिर्फ चावल की बात करें तो ,1960 के दशक में भारत में चावल की लगभग एक लाख किस्में थीं। लेकिन अब देश में चावल का उत्पादन मुख्य रूप से सिर्फ 20-30 किस्मों पर निर्भर करता है। चावल की 1,400 किस्मों को व्यवस्थित रूप से संरक्षित करने वाले वैज्ञानिक देबल देब ने कई किस्मों का विश्लेषण किया है। उन्होंने पाया कि चावल की 86 किस्मों में बहुत अधिक मात्रा में आयरन और जिंक होता है, दोनों ही सेहत के लिए बहुत जरुरी हैं। लेकिन ये सभी पोषक तत्व चावल की भूसी में होते हैं।


उच्च उपज देने वाली किस्मों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। इस किस्म के चावल में पोषण की गुणवत्ता कम होती है। और फिर इसे पॉलिश किया जाता है जिससे चावल में चोकर (ब्रान) बचता ही नहीं है। स्वाभाविक रूप से, जो लोग इस चावल पर निर्भर हैं, उनमें पोषण की कमी होगी। कई आदिवासी समुदाय इसका शिकार हैं। वे अब अपनी पारंपरिक खाद्य संस्कृति को पुनर्जीवित करने की मांग कर रहे हैं, जो मोटे तौर पर बाजरा और जंगली खाद्य पदार्थों पर आधारित है।

चावल का फोर्टिफेकेशन

टूटे हुए चावल के दानों को पीस कर आटे में मिला लिया जाता है। फिर इस आटे को आवश्यक पोषक तत्वों के साथ पानी से गूंथ लिया जाता है। इस गुंथे हुए आटे को फिर एक एक्सट्रूडर के जरिए फोर्टिफाइड दाने में तब्दील कर दिया जाता है। फिर इसे नियमित चावल के साथ आम तौर पर 0.5-2 प्रतिशत के अनुपात में मिला देते हैं।

सभी सफेद चावल पहले ब्राउन राइस के रूप में होते हैं। मिलिंग प्रोसस में चावल की भूसी, चोकर और कीटाणु सब हटा जाता है। इससे सफेद चावल जल्दी खराब नहीं होता है लेकिन फाइबर, विटामिन और खनिजों जैसे अधिकांश पोषण इसमें नहीं रह पाते हैं। चोकर के साथ वह सब हटा जाते है। सफेद चावल में ये पोषक तत्व बने रहें अब इसके लिए इन्हें फोर्टिफाइड किया जा रहा है।

साल 2004 में, थानल संगठन ने 'सेव अवर राइस' अभियान शुरू किया था। दक्षिण भारत में बीज से लेकर भोजन तक की पूरी श्रृंखला पर काम करके इस मुद्दे को हल करने का प्रयास किया गया। थानल तिरुवनंतपुरम, केरल में स्थित एक गैर-लाभकारी पर्यावरण संगठन है। इसने परमकुडी, रामनाथपुरम जिले, तमिलनाडु के उपभोक्ता अनुसंधान शिक्षा, कार्य, प्रशिक्षण और अधिकारिता (क्रिएट) और बेंगलुरु के सहज समृद्ध जैसे भागीदारों के साथ काम किया है।

इस अभियान ने उपभोक्ता जागरूकता के जरिए किसानों और छोटे उद्यमियों को पारंपरिक चावल के लिए बाजार विकसित करने में मदद की। जो अब लगातार बढ़ रहा है। यहां तक ​​कि कुछ राज्य सरकारें और नाबार्ड भी इस तरह की पहल का समर्थन कर रहे हैं। किए गए अध्ययन में सामने आया कि आंदोलन से केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक में उगाई जाने वाली कई किस्मों में पोषक तत्वों की मात्रा काफी बढ़ गई है।

अगर चावल के फोर्टिफिकेशन अनिवार्य कर दिया गया तो इस आंदोलन का क्या होगा? पंजाब और अन्य राज्यों में मध्यम स्तर के चावल मिल मालिक भी चिंतित हैं क्योंकि केवल बड़ी मिलें ही फोर्टिफिकेशन के लिए मशीनरी में निवेश कर सकती हैं। FSSAI को लिखे पत्र में विशेषज्ञों ने अनिवार्य फोर्टिफिकेशन के कारण छोटे व्यवसायों पर पड़ने वाले प्रभावों पर चिंता जताई है। यह सिर्फ अकेला चावल का मामले नहीं है, बल्कि तेल से जुड़े मामले में भी कुछ ऐसा ही है।

साबुत अनाज दिल की बीमारियों, मोटापा और कुछ प्रकार के कैंसर के जोखिम को कम करता है। इसलिए, भूरा, लाल, काला या जंगली चावल खाना सेहत के लिए बेहतर है। साथ ही, चावल की ये किस्में एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होती हैं। जो बीमारियों से लड़ने में हमारी मदद करते हैं।


फूड फोर्टिफिकेशन कोई जादू की गोली नहीं

पोषण सुरक्षा के लिए कोई चमत्कारिक उपाय नहीं हैं। कुछ लोग अपने अनुभव से एनीमिया और पोषण संबंधी समस्याओं को दूर करने के लिए फोर्टिफिकेशन को एक चमत्कार के रूप में पेश करते हैं। यह एक क्लिनिकल ​​दृष्टिकोण है और इसे बड़े पैमाने पर लागू नहीं किया जा सकता है और न ही किया जाना चाहिए।

इस महामारी के दौरान हमने सेहतमंद खाने के बारे में काफी कुछ सुना है जो लोगों की इम्युनिटी को बढ़ाने में मदद कर सकता हैं। यह भारत जैसे देश में संभव है जो जैव विविधता में समृद्ध है। हमारे किसान छोटी जोत में कई तरह के मौसमी फल और सब्जियों का प्रबंधन और उत्पादन करने में सक्षम हैं।

स्थानीय खाद्य श्रृंखला के निर्माण के लिए विकेन्द्रीकृत योजना की जरुरत है जो स्थानीय अर्थव्यवस्था का भी निर्माण करेगी। फोर्टिफिकेशन से सिर्फ बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचेगा। जबकि विकेंद्रीकृत विविध खाद्य श्रृंखलाएं स्थानीय समुदायों की मदद करेंगी।

कई लोगों को यह भी डर है कि क्लिनिकल फोर्टीफिकेशन, एक समय बाद भोजन और पोषण के बारे में गलत समझ पैदा कर सकता है और लोग ओवर-प्रेसेस्ड खाद्य पदार्थों को खाना बंद कर देंगे जिससे स्वास्थ्य संबंधी अधिक समस्याएं हो सकती हैं। पहले से ही आबादी का एक बड़ा हिस्सा मधुमेह, मोटापा, उच्च रक्तचाप, कैंसर आदि से पीड़ित है। इनमें से कई बीमारियां तो पर्यावरण और गलत खान-पान के कारण होती हैं जिन्हें खाद्य उद्योग ने फैलाया हुआ है।

पिछले कुछ दशकों में सफेद रंग को स्वच्छता और सुंदरता के साथ जोड़कर देखा जाने लगा है। इसलिए हमारे पास रिफाइंड तेल के अलावा सफेद चावल, सफेद चीनी, सफेद नमक...है। यह 'रिफाइनिंग' हमें खाने के सभी पोषक तत्वों को अलग करके और रसायनों की एक परत चढ़ा देने से मिलती है। इससे खाद्य उत्पादों की शेल्फ लाइफ बढ़ जाएगी और इस तरह से यह खाद्य उद्योग की मदद करता है।

हालांकि स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ता लोगों से ताजा और मौसमी फल, सब्जियां और अनाज खाने की अपील कर रहे हैं। अनिवार्य फोर्टिफिकेशन में कूदने से पहले सरकार को इन सभी बातों पर विचार करना चाहिए।

भोजन हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। हमारे देश में खाने की आदतें इतनी विविध हैं। इसलिए हमारी सेहत और कृषि के ईकोसिस्टम को बरकरार रखना और स्थानीय अर्थव्यवस्था का निर्माण करना भी जरुरी हैं।

ऊषा सूलपाणि तिरुवनंतपुरम में चावल कार्यकर्ता हैं और एक पर्यावरण संगठन, थानल की सह-संस्थापक हैं। उनके ये विचार व्यक्तिगत हैं।

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अनुवाद: संघप्रिया मौर्य

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