प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना कहीं बीमा कंपनियों को फायदा पहुंचाने की तरकीब तो नहीं

Update: 2016-10-30 10:19 GMT
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में कई खामियां गिना रहे देवेंद्र शर्मा।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की शुरुआत धमाकेदार तरीके से हुई। लेकिन इसकी डगर कठिन दिख रही है।

उदाहरण के तौर पर राजस्थान के नागौर जिले में बेमौसम बारिश से तैयार फसल बर्बाद हो गई। सैकड़ों किसानों ने इस बर्बादी की सूचना उच्चाधिकारियों तक पहुंचाने के लिए उनके दफ्तरों के कई चक्कर काटे। किसानों ने खराब टोल फ्री नंबर और गलत ईमेल पते की शिकायत तक की। उन्हें नहीं पता कौन सा अधिकारी उनकी शिकायत पर कार्रवाई करेगा। इसी तरह पड़ोसी जिले हरियाणा के गोहाना जिले में धान की फसल में रोग लग गया। वह भी बर्बाद हो गई। इसकी करीब 700 शिकायतें आईं जिनमें राजस्व् अधिकारियों से किसानों ने तत्काल मुआवजा मांगा। किसानों ने सात दिनों तक अनशन भी किया और तब जाकर माने जब प्रशासन ने भरोसा दिलाया कि विशेष गिरदावरी (या खसरा) बुलाकर उनके नुकसान का आंकलन किया जाएगा।

किसानों और प्रशासन में इस रस्साकशी के बीच ही हरियाणा में कृषि अधिकारियों ने क्रॉप कटिंग सर्वेक्षण से इंकार कर दिया। हरियाणा सरकार ने हालांकि एस्मा लगाकर कृषि अधिकारियों की सितंबर से अगले छह माह तक हड़ताल पर पाबंदी लगा दी लेकिन कृषि अधिकारियों ने तर्क दिया कि जब खरीफ की फसल बाजार में पहुंचने लगी है उस दौरान किसी फसल की कटाई व्यावहारिक नहीं होगी। यह किसानों के दावे के निस्तारण के विपरित जाएगा।

मध्य प्रदेश से खबरें आ रही थीं कि वहां के किसानों ने भी अपनी फसल के नुकसान के आंकलन के लिए जगह-जगह प्रदर्शन किया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस पर 15 दिन में कार्रवाई करने का भरोसा दिलाया था और कहा था कि बेमौसम बारिश से फसल बर्बाद होने पर मुआवजा एक माह में किसानों तक पहुंच जाएगा। महाराष्ट्र में भी अखबारों में फसल बीमा कंपिनयों द्वारा फसल की बर्बादी के आकलन में फेल रहने की खबरें भरी पड़ी थीं।

एक उल्लेखनीय मामले में राजस्थान पत्रिका में छपी खबरों में कहा गया कि मूंग, मोठ, तिल, बाजरा, रुई, चाउला, मूंगफली, ग्वार और ज्वार को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत फसल बीमा में शामिल किया गया है। मूंग की बर्बादी पर किसान को अधिकतम दावा 16,130 रुपए मिलेगा जोकि फसल की कुल कीमत का मात्र 40 फीसदी है। अगर राज्य कृषि विभाग के अनुमान पर गौर करें तो एक हेक्टेयर में औसत सात कुंतल मूंग की फसल पैदा होती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर देखा जाए तो फसल की कुल कीमत चालीस हजार रुपए प्रति हेक्टेयर होती है। अगर फसल का नुकसान 60 फीसदी है तो बीमा कंपनी को समूचे नुकसान की प्रतिपूर्ति नहीं करनी होगी। किसानों ने राज्य सरकार से शिकायत की है कि वह विधानसभा में फसल बीमा पर पूछे जा रहे सवालों का उत्तर देने में हीलाहवाली कर रही है।

इन खबरों को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की शुरुआत समस्या की गंभीरता को देखकर नहीं हुई। अगर इस पर ध्यान नहीं दिया तो इसके क्रियान्वयन में दिक्कत आएगी। सरकार ने या तो इस योजना को बनाते वक्त इसके क्रियान्वयन में आने वाली गंभीर दिक्कतों पर ध्यान नहीं दिया या फिर उसे निजी बीमा कंपनियों पर अंधा विश्वास है। लेकिन अब तक की मेरी पड़ताल में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना एक साधारण बीमा योजना लग रही है जिसमें नुकसान होने पर निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियां उसकी औसत प्रतिपूर्ति करेंगी न कि किसानों को फसल के नुकसान के बराबर बीमा कवर देंगी।

यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि वर्तमान बीमा योजना में फसल का नुकसान और उसके दावे की प्रतिपूर्ति खुली बोली (ओपन बिडिंग) के आधार पर तय हुई। मैंने दुनिया में कहीं ऐसा नहीं पाया कि फसल बीमा कंपनियां जहां काम करना चाहती हैं वहां के लिए खुली निविदा प्रक्रिया में जाएं। यहां सार्वजनिक क्षेत्र की एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड (एआईसीएल) समेत 12 बीमा कंपनियां हैं, जो उतना ही प्रीमियम ले रही हैं जो हरेक जिले के लिए हो। इस प्रक्रिया से तय होगा कि सरकार कितना सब्सिडी देगी चूंकि राज्यों को केंद्र के साथ प्रीमियम संयुक्त रूप से साझा करना अनिवार्य है। किसानों को खरीफ फसलों में दो फीसदी, रबी फसलों में डेढ़ प्रतिशत और बागवानी फसलों में पांच फीसदी ही प्रीमियम अदा करना है।

जिन इलाकों में अत्यधिक गर्मी, बारिश या सर्दी पड़ती है वे सरकारी एजेंसी के हवाले रहेंगे। कुछ अन्य जिलों में मैंने पाया कि निजी कंपनियों के प्रीमियम भिन्न हैं यानि वे जोखिम आधारित न होकर बल्कि वाणिज्यिक लाभ के आधार पर तय हुए हैं। इसकी इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। यह सरकार की नीयत को दर्शता है कि कैसे उसने बिना किसी जवाबदेही के निजी बीमा कंपनियों को अपना लाभ बढ़ाने की छूट दे दी। राजस्थान का ही मामला देखें। खबरों में कहा गया है कि राजस्थान अपने कृषि बजट का 35 फीसदी आवंटन प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के क्रियान्वयन में करेगा। शायद इसी कारण बीमा कंपनियां ऊंचा प्रीमियम लगा रही हैं और सरकार के पास उन्हें रोकने का कोई जरिया नहीं है।

निजी क्षेत्र की कंपनियों के लिए फसल बीमा एक शानदार कमाई वाला व्यवसाय बन रहा है क्योंकि उन्हें फसल की कटाई और उसके नुकसान के आंकलन को स्टाफ रखने समेत उपयुक्त ढांचा तैयार करने के लिए इसमें कोई प्रारंभिक निवेश नहीं करना है। हरियाणा में कृषि अधिकारियों, जिन्होंने हड़ताल पर जाने की धमकी दी थी, का यह कहना तर्कसंगत है कि क्रॉप कटिंग सर्वेक्षण का काम निजी क्षेत्र की कंपनियों को करना चाहिए। चूंकि जिले में 24 फसलों का क्रॉप कटिंग सर्वेक्षण अनिवार्य है, इसलिए देश को 40 लाख क्रॉप कटिंग सर्वेक्षण की जरूरत पड़ेगी। क्यों न इसकी कीमत निजी क्षेत्र की कंपनियां अदा करें।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना 18 हजार करोड़ रुपए का कारोबार बनने जा रहा है। बीते साल के फसल बीमा क्षेत्र के प्रदर्शन की तुलना में इसमें 12 हजार करोड़ रुपए का उछाल आया है। यह हैरान करने वाला नहीं है कि किसी स्कूटर या कार का बीमा करने के लिए बीमा कंपनियों ने देशभर में एजेंट रखे हैं जबकि फसल बीमा के मामले में वे बैंकों से कटने वाला प्रीमियम जबरन हथियाती हैं वहीं फसल के नुकसान का आंकलन करने के लिए कभी कोई निवेश नहीं करतीं।

इस योजना को और प्रभावी बनाने के लिए मेरे सुझाव:

  1. कर्ज लिए किसान के बैंक खाते से प्रीमियम की कटौती बंद हो। क्योंकि बीमा कंपनियां यह तक नहीं जानतीं कि उन्होंने किसान की किस फसल का बीमा किया है, जिसका प्रीमियम उन्हें बैंक से मिल रहा है।
  2. बीमा प्रीमियम के आंकलन के लिए बोली प्रक्रिया न हो। इसके बजाए एक स्वतंत्र इकाई का गठन हो जो मौसम आधारित फसलों के बारे में जानकारी दे और यह भी जानकारी दे कि हरेक जिले के लिए प्रीमियम कितना होना चाहिए।
  3. क्रॉप कटिंग सर्वेक्षण के लिए बीमा कंपनियां कुशल कारीगरों की भर्ती करें। इससे शिक्षित और अकुशल नौजवानों के लिए रोजगार के अवसर बनेंगे।
  4. बीमा कंपनियों के लिए फसल के नुकसान या उसके दावे की प्रतिपूर्ति तय करने के लिए किसानों के खेत को मूल इकाई के रूप में अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। नुकसान का आंकलन ब्लॉक के आधार पर नहीं होना चाहिए।

चूंकि 50 फीसदी जोखिम वाले जिलों में फसल के 60 फीसदी हिस्से का बीमा हो रहा है तो मेरे हिसाब से सरकार को सभी 12 बीमा कंपनियों को यह निर्देश देने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए कि वे इन जिलों में प्रति खेत आधारित इकाई की बीमा नीति का क्रियान्वयन पायलट आधार पर करें।

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