अलग-अलग मोर्चों से निपटने की तैयारी

Update: 2017-07-09 16:42 GMT
प्रतीकात्मक तस्वीर

जनरल बिपिन चंद्र रावत के इस बयान पर कई टिप्पणियां सामने आई हैं कि देश की सेना ढाई मोर्चों (पाकिस्तान, चीन और आंतरिक) पर किसी भी संकट से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है। घरेलू स्तर पर इसे लेकर जहां आश्वस्ति का भाव है, वहीं चीन की ओर से आलोचना ही सामने आई है। भारत को सन 1959 से ही कई मोर्चों पर बहुस्तरीय चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इनसे निपटने की कोशिश में सेना ने हमेशा राजनीतिक सत्ता के निर्देशों का पालन किया है। इतना ही नहीं सन 1962 की जंग को छोड़ दिया जाए तो उसे हर बार कामयाबी भी मिली है।

इससे कई सवाल खड़े होते हैं। खासतौर पर चीन के मोर्चे पर दशकों बाद अचानक हलचल है। चीन लगभग सुसुप्तावस्था से जागा है और उसके आधिकारिक मीडिया और कुछ प्रवक्ताओं की भाषा हमारे टेलीविजन पैनलिस्टों की तरह हो गई है। पहला सवाल यह है कि ढाई मोर्चों की चुनौती पैदा होने के छह दशक बाद हालात क्यों नहीं बदले?

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तीन युद्ध, पाकिस्तान का बंटवारा, पूर्वोत्तर में कई शांति समझौतों, शीतयुद्ध के खात्मे और परमाणु हथियार क्षमता हासिल करने के बाद भी ऐसा नहीं हुआ। दुनिया के किसी अन्य देश में छह दशक तक ऐसी समान चुनौती बरकरार रहने का उदाहरण नहीं मिलेगा। दूसरी बात, क्या यह निरंतर चुनौती देश की राजनयिक और सामरिक विचार प्रक्रिया के कारण है या उनके बावजूद? अगला प्रश्न यह है कि क्या भारतीय कूटनयिक और सामरिक नीति, सैन्य शक्ति से संचालित और उसके अधीन हैं या इसका उलट है?

अब यह लगभग स्वीकार्य है कि सोवियत संघ का वैचारिक और बौद्धिक संघर्ष इसलिए गंवा दिया गया क्योंकि वारसा संधि सेनाओं और सैन्य सोच के अधीन दम तोड़ गई। जाने माने इतिहासकार नाइल फर्गुसन ने जरूर यह दलील दी है कि शीतयुद्ध इसलिए नहीं समाप्त हुआ क्योंकि रोनाल्ड रीगन के नेतृत्व में अमेरिका सोवियत संघ से श्रेष्ठ साबित हुआ। बल्कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सोवियत संघ को अफगानिस्तान में हस्तक्षेप का खमियाजा उठाना पड़ा। तीसरा, अगर 60 साल बाद और इतनी बदल चुकी दुनिया में हमारे शत्रु और शत्रुताएं बरकरार हैं और हमारी चुनौतियां भी पहले जैसी हैं तो क्या इसका यह मतलब नहीं है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व राष्ट्रीय सुरक्षा के सबसे अहम मोड़ पर विफल रहा।

आधुनिक इतिहास हमें बताता है कि कोई भी देश दो मोर्चों पर सफलतापूर्वक नहीं लड़ सकता। हम यहां केवल हिटलर की रूस से जुड़ी भूल की बात नहीं कर रहे। ऐसे में तीन कूटनीतिक प्राथमिकताएं होनी चाहिए: पहली, राष्ट्रीय हित को बढ़ावा देते हुए विवाद से दूर रहना। दूसरा, सैन्य शक्ति के उचित इस्तेमाल से वांछित समझौते पर पहुंचना और तीसरा, जब सन 1962 और 1965 और 1971 की तरह जंग करीब हो तो यह तय करना कि अन्य सभी मोर्चों पर खामोशी रहे। ताकि सेना अपना ध्यान केंद्रित कर सके।

ऐसी आशंकाएं थीं कि हर नए युद्ध के साथ नया मोर्चा खुल जाएगा। सरकार ने इससे निपटने के अलग तरीके अपनाए। सन 1962 में जब भारत को पहली बार अलग-अलग मोर्चों वाली परिस्थिति का सामना करना पड़ा, तब नेहरू ने पाकिस्तान को शांत रखने के लिए अमेरिका और ब्रिटेन की मदद मांगी। इसकी कीमत कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ बातचीत और तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के रूप में चुकानी पड़ी। यहां एक बात जोड़ने लायक है।

सन 1962 में ढाई मोर्चों में एक हिस्सा नागालैंड का था। जब सेना मौजूदा अरुणाचल प्रदेश के मैदान तक हटी तो नागालैंड कुछ दिन के लिए छूट गया। सन 1965 में एक बार फिर शास्त्री सरकार ने पूर्वी पाकिस्तान में दूसरा मोर्चा नहीं खुलने दिया। हालांकि इसमें पाकिस्तान की लॉजिस्टिक्स संबंधी चुनौती भी वजह थी। चीन को बीच में पड़ने का कोई मौका नहीं दिया गया। 22 दिवसीय जंग के तीसरे हफ्ते में चीन ने ऐसा किया तब तक देर हो चुकी थी।

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हमारी पीढ़ी ने ‘अल्टीमेटम’ शब्द पहली बार तब सुना जब चीन ने भारतीय सेना पर चार तिब्बती चरवाहों के अपहरण और 59 याक और 800 भेड़ों की चोरी का आरोप लगाया और कहा कि अगर उनको समय रहते लौटाया नहीं गया तो गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। इसके अलावा आरोप थोड़ी जमीन का भी था। भारत की ओर से प्रतिक्रिया का हल्का रूप सामने आया जब युवा कांग्रेसियों ने 800 भेड़ों का जुलूस निकालते हुए नई दिल्ली में चीनी मिशन तक शांति मार्च निकाला।

उन्होंने कुछ तख्तियां पकड़ रखी थीं जिन पर लिखा था, ‘हमें खा लो लेकिन दुनिया को नष्ट मत करो।’ चीन जो जमीन लौटाने को कह रहा था उनमें से एक रहस्यमय रूप से खाली कर दी गई। उस वक्त युवा रहे मेजर जनरल शेरू थपलियाल कहते हैं कि किसी को पता नहीं कि पीछे हटने का निर्णय किसने लिया था। लेकिन चूंकि जमीन खाली कर दी गई थी इसलिए आप अनुमान लगा सकते हैं कि शास्त्री सरकार को दूसरे मोर्चे पर संघर्ष थामने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी। यह सिक्किम का वही इलाका था जहां मौजूदा विवाद है।

अंतिम बड़ी जंग 1971 में हुई। यह इकलौती लड़ाई थी जिसे भारत ने योजना बनाकर लड़ा। इंदिरा गांधी ने दूरदर्शिता दिखाते हुए चीन की चुनौती को दूर रखा। सोवियत संघ के साथ मित्रता के चलते ही यह सुनिश्चित हुआ और 13 दिन में ही जंग में जीत हासिल हो गई।

भारत की ऐतिहासिक और भौगोलिक किस्मत ऐसी है कि शीत युद्ध के खात्मे और इस्लामिक आतंकवाद के उदय के कारण दो मोर्चों वाली हालत बरकरार रही। चीन और पाकिस्तान का रिश्ता इन चुनौतियों से बचा रहा बल्कि मजबूत हुआ। बदलते वैश्विक हालात में पाकिस्तान चीन के लिए अधिक उपयोगी है। ऐसे में भारत इकलौती परमाणु शक्ति है जिसे दो मोर्चों पर परमाणु हथियार संपन्न दुश्मनों से निपटना है।

हर भारतीय नेता ने हालात संभालने की कोशिश की। राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन तक पहुंच बनाई और सफलता भी पाई लेकिन इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में अवश्य कुछ प्रगति हुई। वह भारत-चीन और पाकिस्तान की त्रिकोणीय स्थिति को खत्म करना चाहते थे।

उनका मानना था कि अमेरिका समेत शेष विश्व भी पाकिस्तान की राजनीति में शांति और स्थिरता चाहता है। यही वजह है कि 26 नवंबर के हमले के बावजूद उन्होंने पाकिस्तान के साथ शांति स्थापित करने का प्रयास किया। शर्म अल शेख में समझौता हुआ। खुद उनकी पार्टी ने इसकी आलोचना की और यह कोशिश रद्द हो गई।

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नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान और चीन के साथ मजबूत शुरुआत की लेकिन यह आशावाद जल्दी लुप्त हो गया। उनकी सामरिक टीम को इसका विश्लेषण करना होगा। मेरा मानना है कि पाकिस्तान के साथ रिश्ता जम्मू कश्मीर में गठबंधन की विफलता से बिगड़ा। भाजपा वैचारिक विरोध वाले इस समझौते से खुद पुरयकीन नहीं है और राष्ट्रीय राजनीति में पाकिस्तान का जिक्र लाती रहती है।

चीन हो सकता है पुराने साथी की मदद भी कर रहा हो और हालिया आक्रामकता का जवाब भी दे रहा हो। तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रतिनिधियों में इजाफा, ताइवान के अधिकारियों और उसके आयोजन, अरुणाचल प्रदेश में दलाई लामा की बार-बार यात्रा और अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री का यह कहना कि उसकी सीमा चीन से नहीं तिब्बत से मिलती है, ऐसे ही कदम हैं। पता नहीं यह सब सोच समझ कर किया गया नहीं। अब हमें समूचे हालात से निपटने के लिए नीतिगत समझदारी का परिचय देना होगा।

(लेखक अंतराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं यह उनके निजी विचार हैं।)

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