आज़ादी के बाद भी छीने गए थे जनता के मूल अधिकार, अब परदेस तक में बढ़ रही है साख

सबेरा हुआ और सारे देश में आज़ादी का जश्न मनाया जा रहा था, मेरे गाँव में भी चारों तरफ खुशी का वातावरण था वैसे मैं अधिक तो नहीं समझ पा रहा था क्योंकि केवल 8 साल का था मगर बहुत सी बातें अच्छी तरह याद है।

Update: 2024-03-23 10:34 GMT

बात साल 1946 की है; जून का महीना था, मेरी पाटी पूजा का इंतजाम हुआ था। बाबा ने पंडित को बुलाया था, लकड़ी की पाटी और मिट्टी के छोटे बर्तन में खड़िया घोलकर बुदिका बनाया गया था। कलम सजाई गई और पंडित ने पाटी पूजा पूरी कर दी थी। पूजा के बाद मैं पढ़ाई शुरू कर सकता था। यह तब का चलन था अब तो तीन चार साल की उम्र में पढ़ाई शुरू हो जाती है, लेकिन तब 7 साल पूरे होने पर पढ़ाई शुरू होती थी।

गाँव के बड़े बूढ़ों से सुनते थे, कि आज़ादी की लड़ाई चल रही है, यह तो नहीं पता था कहाँ और कैसे चल रही है, लेकिन सब लोग कहते कि आज़ादी मिलने वाली है। कैसी होगी आज़ादी यह तो हम लोगों को बचपन में नहीं पता था। लेकिन लड़ाई के बारे में सोचते थे कि वैसी ही होगी जैसी करुवा और देवरा के ठाकुरों और पंडितों के बीच में लाठी और डंडों से हुई थी, या फिर बल्लम कांता धनुष यह सब लेकर हुई होगी।

एक दिन मैंने जानकी प्रसाद मिश्रा जी के घर में किसी से पूछा कि लड़ाई कौन लड़ रहा है उसने दीवार पर टंगी फोटो की तरफ इशारा करके बताया कि यह लड़ रहे हैं। वह तो एक बूढ़े थे लाठी लेकर चल रहे थे, मैंने सोचा कि यह कैसे जीतेगें। इसका जवाब एक दिन गाँव के कुछ लोग इटौंजा बाजार से जब लौटे तो उनसे मिला। उन्होंने बताया कि इटौंजा के पास सड़क पर गोरा लोग कला राशि घोड़ों पर चढ़कर जा रहे थे। कला राशि को पता नहीं कला राशि क्यों कहते हैं लेकिन उन्होंने बताया कि गाँधी बाबा इन सबको भगाना चाहते थे,और इस लिए लड़ाई हो रही थी। कुछ समय बाद यह ख़बर आई कि देश आज़ाद हो रहा है।


मेरी पाटी पूजा के एक साल बाद 15 अगस्त 1947 का दिन आया और देश को आज़ादी मिल गई थी। यह आज़ादी 15 अगस्त की मध्य रात में मिली जब पंडित नेहरू ने देश को संबोधित करते हुए कहा था - "आधी रात को जब सारी दुनिया सो रही है तब भारत आज़ादी के साथ जाग उठा है।"

सबेरा हुआ और सारे देश में आज़ादी का जश्न मनाया जा रहा था, मेरे गाँव में भी चारों तरफ खुशी का वातावरण था वैसे मैं अधिक तो नहीं समझ पा रहा था क्योंकि केवल 8 साल का था मगर बहुत सी बातें अच्छी तरह याद है। जानकी प्रसाद मिश्रा कहीं कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे और वह अख़बार और रेडियो के माध्यम से समाचार लाया करते थे। उन्हीं के दरवाजे पर बड़ा ऊंचा झंडा लगाया जा रहा था और मिठाई बांटने की भी तैयारी थी। बहुत अच्छा माहौल था हम बच्चे लोग भी आनंदित हो रहे थे। बहुत बार सोचता हूँ कि हमें आज़ादी तो मिली, गाँव - गाँव में झंडा फहराकर धूमधाम से जश्न मनाया गया, लेकिन आज़ादी के पहले जो अपना भारत था वह नहीं मिला। वह अखंड भारत, उसकी सुख, शांति और संतोष पर आधारित संस्कृति कहीं चली गई। शांति और मनोदशा बिगाड़ने वाली संस्कृति कैसे आ गई? गांधी जी कहते थे भारत गाँवो में रहता है तब वह गाँव जिसकी कल्पना गांधी जी ने की होगी कहाँ चले गए?

गांधी जी ने पटेल की जगह नेहरू को क्यों चुना?

देश की आज़ादी के बाद एक सुनहरा मौका था कि भारत को गांधी जी के रास्ते पर चलाया जाता; लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि जब फैसले की घड़ी आई तो स्वयं गांधी जी ने पटेल की जगह नेहरू को क्यों चुना? क्या नेहरू जी बेहतर ग्राम स्वराज ला सकते थे, जो विदेशों में पले बढे थे और गाँव में कभी नहीं रहे थे।

गाँधी जी यह भी कहा करते थे, भारत का बटवारा मेरी छाती पर होगा लेकिन देश का बटवारा हुआ और 3 टुकड़े बने पश्चिमी पाकिस्तान, पूर्वी पाकिस्तान और भारत। देश तो बटा ही, भारत वासियों में हिन्दू और मुसलमानों के दिल भी बंटे रहे। यहाँ तक उनके कानून भी अलग अलग बने रहे। आज़ादी के साथ शहर-शहर हिन्दू मुस्लिम दंगे अपने चरम पर पहुँचे और गाँधी जी चाहते हुए भी इस खून खराबे को रोक न पाए।

इसी समय पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर कबाइली हमला करवाया और खंडित भारत की तरह खंडित कश्मीर हमे मिला। इसलिए हमें सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि जब तक स्वदेशी स्वावलंबी और सनातन आधारित जीवन शैली नहीं आएगी भारत में स्वराज का अधिक मतलब नहीं होगा। हमें यह भी सोचना है कि अंग्रेजों के जमाने से कितना बेहतर बना पाए? अंग्रेज चले गए लेकिन देश के शासकों में अंग्रेजियत बराबर बढ़ती गई।


सोचने का विषय है, क्या गांधी जी से फैसला करने में चूक हुई थी जो उन्होंने ऐसे लोगों के हाथ में देश की बागडोर सौंप दी जिन्होंने गाँव देखा ही नहीं था, जो गाँव की समस्याओं से और खूबियों से भी परिचित ही नहीं थे। नतीजा यह हुआ कि हम ऐसी डगर चल पड़े जो देश को जगतगुरु या सोने की चिड़िया की मंजिल पर नहीं बल्कि 60 के दशक में हमें वह गेहूँ स्वीकार करना पड़ा जिसे अमेरिका अटलांटिक महासागर में फेकने वाला था और जो पी एल 480 के नाम से जाना जाता है। रुपये का अवमूल्यन करना पड़ा और भारत की साख गिरती गई। गुलामी के दिनों में हमारे पास आज़ादी तो नहीं थी लेकिन भारतीयता प्रचुर मात्रा में थी और जब तक भारतीयता नहीं आएगी देश और देशवासियों को न सुख मिलेगा ना शांति न सम्मान।

कई बार सोचता हूँ कि दिमागी तौर पर गुलाम भारत में लोगों को अधिक सुकून था। आज़ाद भारत में उन दिनों गाँव में चोरी से ज़्यादा कोई अपराध नहीं होते थे, किसी के घर में नकब यानी सेंध लग जाती थी तो गाँव का चौकीदार लाल पगड़ी बांधकर हाथ में बल्लम लेकर खबर पाते ही आ जाता था ,कई लोग मिलकर लाती लगते थे यानी पैरों के निशान ढूंढते हुए चोर के घर तक पहुँच जाते थे। लेकिन आज नई तकनीक विकसित होने के बावजूद चोरी, डकैती और दूसरे अपराध के दोषी तक नहीं पकड़े जाते। आज़ादी के बाद 1950 तक ना तो हमारे पास अपना संविधान था ना अपना राष्ट्रपति। राजा जी यानी राजगोपालाचारी देश के गवर्नर जनरल ही बने रहे अंग्रेजों की तरह और अंग्रेजों के बनाये संविधान पर काम होता रहा।

1952 में देश का पहला आम चुनाव हुआ तो वोट डालने के लिए डब्बे रखे गए थे और हर डब्बे पर एक पार्टी का चुनाव चिन्ह बना था। कांग्रेस की दो बैलों की जोड़ी भारतीय जनसंघ की दिया बाती, समाजवादी पार्टी का बरगद का पेड़ और जमीदारों की पार्टी की लढ़िया यानी बैलगाड़ी चुनाव चिन्ह थे। वोट - पर्ची पर ना किसी का नाम था ना चुनाव चिन्ह था, पर्ची डब्बे में डालनी होती थी। जानकी प्रसाद मिश्रा बताते थे कि वह जब वोट डालने गए तो डिब्बों के सामने तमाम पर्चा पड़े हुए थे। उन्होंने सारी पर्चियां बटोर कर दो बैलों की जोड़ी वाले बक्से में डाल दी। ऐसे ही औरों ने भी किया होगा।

नेहरू के दामाद ने ही कांग्रेस सरकार पर लगाया था आरोप

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का व्यक्तित्व सब पर भारी था और वह देश की तरक्की बहुत तेजी से चाहते थे, लेकिन देश तो गाँवो में रहता था और गाँव की तरफ ज़्यादा ध्यान नहीं गया भले ही उन्होंने सहकारिता आंदोलन शुरू किया जिसे किसान नेता चौधरी चरण सिंह ने कृषि मंत्री के रूप में कभी दिल से स्वीकार नहीं किया। उन्होंने एक किताब कोआपरेटिव फार्मिंग “X- Rayed” में अस्वीकार करने के कारण भी बताये हैं। कृषि मंत्री के नाते या किसान के नाते उनका बड़ा सम्मान था और सहकारिता आंदोलन स्वाभाविक रूप से फेल हो गया। आर्थिक क्षेत्र में बेईमानी कम हुआ करती थी, फिर भी नेहरू जी के सगे दामाद फिरोज जहांगीर गाँधी ने भ्रष्टाचार का पहला आरोप कांग्रेस सरकार पर लगाया था। डालमिया की कंपनी और उसके बाद में मूधड़ा कांड के नाम से मशहूर भ्रष्टाचार के मामले उजागर किये। नेहरू जी की सरकार में ही रक्षामंत्री रहे कृष्णा मेनन पर भी जीपों की खरीद के मामले में जीप स्कैंडल नाम से भ्रष्टाचार का मामला मशहूर हुआ था।

नेहरू जी समाजवाद के रास्ते पर चलना चाहते थे लेकिन पता नहीं क्यों उसी समय के अच्छे समाजवादी जयप्रकाश नारायण, अशोक मेहता, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन और ऐसे ही ना जाने कितने समाजवादी खिन्न होकर नेहरू जी की पार्टी से अलग होते चले गए। देश कहने को समाजवादी डगर पर चल रहा था लेकिन गरीब अधिक गरीब होते जा रहे थे और अमीर अधिक अमीर होते जा रहे थे । नेहरू जी कम्युनिस्टों पर अधिकाधिक निर्भर होते चले गए जो अंततः प्रतिगामी सिद्ध हुआ। भारत के लोग “हिंदी- चीनी भाई – भाई” का नारा लगाते रहे परन्तु चीन के प्रधान मंत्री चाउ एन लाई भारत पर टेढ़ी नज़र रखते गए ।

साल 1957 में दूसरा आम चुनाव हुआ कांग्रेस पार्टी विजयी रही। उन्ही दिनों एक बार नेहरू जी श्रीलंका की यात्रा पर जा रहे थे और उन्हें बताया गया कि चीन ने भारत में घुसपैठ की है, तो उन्होंने कहा बाहर खदेड़ दो। यह कहकर वो श्रीलंका दौरे पर चले गए। लेकिन खदेड़ना कौन कहे चीनी घुसपैठ बराबर जारी रही। राममनोहर लोहिया जी ने एक बार लोकसभा में कहा था चीन ने एक लाख वर्ग मील ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया है बाद में 12000 वर्ग मील की बात सरकार द्वारा स्वीकारी गई थी। चीन के हाथों पराजय के बाद भारत के लोगों का उत्साह घटना और दुनिया में साख गिरना भी स्वाभाविक था।1964 में नेहरू जी के देहांत के बाद लालबहादुर शास्त्री जी ने कुछ हद तक देश के सम्मान को बचाया और विरोधी दलों ने भी उनका साथ दिया। उनके समय पाकिस्तान को पराजय का मुँह देखना पड़ा 1966 में शास्त्री जी के देहांत के बाद इंदिरा जी का दौर आया।

1967 में जब चौथा आम चुनाव हुआ तो कांग्रेस की बड़ी पराजय हुई और प्रांतों में संविद सरकारों का दौर चला। वह प्रयोग भी कामयाब नहीं रहा कुछ। व्यक्तिगत अहंकारों के कारण कुछ विचारों में तालमेल ना होने के कारण ऐसा हुआ। केंद्र में इंदिरा जी का शासन चलता रहा लेकिन इस दौर में आर्थिक हालत बहुत ख़राब हो गए रुपये का अवमूल्यन हुआ। खाने - पीने की चीजों का आभाव हो गया। इसी बीच जब मैं 4 साल के लिए कनाडा में रहा था रिसर्च के सम्बन्ध में और तब मैं फ्रेंड्स ऑफ इंडिया एसोसिएशन का सचिव था। मैं अक्सर भारत के अतीत का वर्णन मित्रों से किया करता था। उनका सपाट जवाब होता था “व्हाट आर यू नाव” मुझे उत्तर नहीं सूझता था।

आपातकाल का सच

1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध हुआ इस युद्ध में इंदिरा जी ने बहुत बहादुरी के साथ देशवासियों का हौसला बढ़ाया। रूस ने साथ दिया और पाकिस्तान को न केवल पराजित किया बल्कि पाकिस्तान के दो खंड भी हो गए मगर 1975 के आते - आते देश में महँगाई बेरोजगारी इतनी बढ़ गई थी कि सरकार से आम आदमी का मोह फिर से भंग हो गया। इस बार इंदिरा गांधी जी ने अपनी ताकत का प्रयोग अपनी ही जनता के ख़िलाफ किया और 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लगा दिया।

21 महीने का आपातकाल बहुत ही दुखद था। लोगों को बिना मुकदमा बिना इल्जाम जेलों में डाल दिया गया। जयप्रकाश नारायण, अटल जी, मोरारजी देसाई और विपक्ष के तमाम समाजवादी भी जेल में डाल दिए गए। कही पर और किसी को भी पुलिस पकड़कर बंद कर सकती थी। यहाँ तक कि संविधान में जो अवांछनीय परिवर्तन हुए उनकी व्याख्या करने का स्थान यह नहीं है। आपातकाल से त्रस्त जनता ने 1977 में इंदिरा गांधी को बुरी तरह हरा दिया और उनकी जगह मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। यह सरकार अपने अंतर्विरोधों के कारण गिर गई और जनता ने इंदिरा गाँधी जी को फिर से मौका दिया और वह जीवन पर्यन्त देश की प्रधानमंत्री बनी रही। जनता पार्टी की सरकार गिरने का कारण उनकी नीतियों में कमी नहीं थी; बल्कि मोरारजी देसाई, बाबू जगजीवन राम, और चौधरी चरण सिंह की व्यक्तिगत महत्वाक्षांओं के कारण पार्टी टूट गई। एक प्रजातांत्रिक ढांचा मजबूत होने के बजाय बहुत कमजोर हो गया। वर्तमान में विदेशों में भारतवासियों के सम्मान की वह दसा नहीं है। अब एक बार फिर से समृद्ध और यशस्वी भारत की आशा बन रही है।

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