स्कूल फिर से खुलने के साथ, खासकर गरीब और हाशिए के समुदायों के बच्चों के लिए एक सुरक्षित और स्वस्थ माहौल की जरूरत है

महामारी के इस दौर में अन्य नुकसान के साथ-साथ बच्चों की सीखने की क्षमता पर भी गहरा असर पड़ा है। लेकिन यह असर सभी बच्चों पर समान रहा हो, ऐसा नही है। स्कूलों को धीरे-धीरे खोलते वक्त स्कूलों और प्रशासन को सरकारी और निजी स्कूलों के बीच के अंतर को समझना होगा और इसी दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ना होगा।

Update: 2021-09-15 06:50 GMT

भारत दुनिया में सबसे लंबे समय तक स्कूल बंद रखने वाले देशों में से एक है। भारत में लगभग 44 करोड़ विद्यार्थी 18 महीने से स्कूल नहीं जा पा रहे हैं और इस बात की पूरी संभावना है कि वे अगले छह महीने या उससे अधिक समय तक शिक्षण संस्थानों से बाहर ही रहेंगे।

अर्थव्यवस्था से लेकर धार्मिक गतिविधियों, मनोरंजन और राजनीतिक के आयोजनों तक, कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसे इस महामारी ने प्रभावित न किया हो। लेकिन अब स्थिति बदल रही है। धीरे-धीरे हर कोई सामान्य स्थिति में वापस आने का प्रयास कर रहा है, सिवाय एक के- हमारे स्कूल।

भारत दुनिया में सबसे लंबे समय तक स्कूल बंद रखने वाले देशों में से एक है। भारत में लगभग 44 करोड़ विद्यार्थी 18 महीने से स्कूल नहीं जा पा रहे हैं और इस बात की पूरी संभावना है कि वे अगले छह महीने या उससे अधिक समय तक शिक्षण संस्थानों से बाहर ही रहेंगे।

क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि हम अपने बच्चों की सबसे ज्यादा परवाह करते हैं? या फिर हम उन्हें सबसे निचले पायदान पर रखते हैं?

नेल्सन मंडेला ने कहा, "जिस तरह से हम अपने बच्चों के साथ व्यवहार करते है, समाज की आत्मा का इससे बेहतर खुलासा नहीं हो सकता।" हम देख सकते हैं कि कैसे समाज ने, चाहे बच्चों को बचाने की कोशिश में ही, उन्हें नुकसान पहुंचाया है। इस नुकसान को बदला नहीं जा सकता है। ये बच्चे ही भविष्य के नागरिक है और इस धरती पर सबसे मूल्यवान भी। हमें इनकी भलाई के लिए अतिशीघ्र कुछ करना होगा।

उत्तराखंड में ऑनलाइन कक्षा में बच्चे। फोटो: गांव कनेक्शन

ऑनलाइन शिक्षा को स्कूली जीवन के एक व्यवहार्य, विचारपूर्ण और यहां तक कि प्रगतिशील विकल्प के रूप में देखा गया है और इसने बच्चों को दोबारा क्लासरूम में लाने की ज़रूरत को काफी हद तक कम कर दिया है।

मुझे लगता है कि आज ऑनलाइन शिक्षा की वजह से हम अपने बच्चों में मोटापा, माइग्रेन, सीखने की क्षमता में कमी, साइबर अपराध, अनुचित एक्सपोजर जैसे जो परिणाम देख रहे हैं- वह सिर्फ समस्या की एक छोटी सी झलक है। असली तस्वीर तो शायद 40 साल बाद हमारे सामने आएगी। दरअसल यह हमारे बच्चों का के लिए एक ऐसा नुकसान है जिसका असर काफी लंबे समय तक उन पर बना रहेगा और इसे बदला भी नहीं जा सकता है।

हालांकि यह संकट सभी ऑनलाइन सीखने वाले बच्चों का है, लेकिन भारत के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चों के लिए यह और भी बड़ा और अधिक दिल दहलाने वाला है।

यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में कहा गया है: " जबकि बच्चें इस महामारी के निशाने पर नहीं हैं, फिर भी यह बच्चों पर विनाशकारी और व्यापक प्रभाव डाल रही है और पूरे समाज पर पड़ने वाले सबसे स्थायी परिणामों में से एक है।" यूनिसेफ के कार्यकारी निदेशक हेनरीएटा फोर ने कहा था कि बच्चों पर इस महामारी का असर लंबे समय तक रहेगा, जिससे हम बचे नहीं रह सकते।"

इस महामारी ने दशकों से चली आ रही विकास की गति को उलट दिया है। बच्चों को घरों में कैद करने की वजह से उनमें तनाव, आर्थिक अनिश्चितता और सामाजिक अलगाव की समस्याएं बढ़ गई हैं जिससे वे हिंसा, शोषण और दुर्व्यवहार की चपेट में आ गए हैं।

भारत के सबसे कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए सीखने के संकट की तुलना में उनकी ज़िंदगी का संकट कहीं ज्यादा बड़ा है।

इसके चलते, वास्तव में हमारे पास ऐसे बच्चों की एक पीढ़ी होगी जो मनोवैज्ञानिक, बौद्धिक, आर्थिक और नैतिक रूप से नुकसान में हो सकती है अगर हम उन्हें बातचीत या अपने समाज का केंद्र नहीं बनाते हैं। अब जैसा कि हम फिर से पुराने जीवन में वापस आते जा रहे हैं, तब भी यह सारी अनिश्चिततएं ज्यों की त्यों बनी हुईं हैं।

जिन बच्चों की शिक्षा तक पहुंच नहीं है और जिन्हें जबरदस्त जोखिम सहना पड़ा है

महामारी का डर

जिन बच्चों को घर में प्यार मिलता है, वे सीखने के लिए स्कूल आते हैं। और जिन्हें घर में प्यार नहीं मिलता, वे प्यार पाने के लिए स्कूल आते हैं। स्कूल उन बच्चों के लिए वो जगह है जहां वे अपने घरों के अकेलेपन, दुख, नुकसान और चिंता से छुटकारा पाते हैं।

इस महामारी में कई परिवारों को अपने खुद के नुकसान का सामना करना पड़ा है और अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद वह बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते हैं। परिवार और दोस्ती से मिलने वाले प्यार की कमी के चलते, बच्चों के लिए यह महामारी मानसिक आघात का कारण बन गई है।

जबकि आज मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाता है। लेकिन इसका दायरा वयस्कों और शायद किशोरों तक ही सीमित है। छोटे बच्चों की मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में बहुत कम शोध और प्रयास किए जाते हैं। उन पर कम ही ध्यान दिया जाता है। इसके अलावा, छोटे बच्चों के पास अक्सर अपनी आंतरिक भावनाओं को व्यक्त करने के लिए शब्द ही नहीं होते हैं। वह अपनी भावनाओं को किसी को बता ही नहीं पाते हैं। जिस कारण वे दुख में खुद को अकेला महसूस करते हैं।

हम विकासात्मक मनोविज्ञान से यह समझ सकते हैं कि बच्चे जिस वातावरण में रहते हैं उससे जुड़ी सभी चीजों को सीखते और समझते हैं। परिवारों और समाज में फैला डर, दुख और नुकसान के उनके आंतरिक जीवन को प्रभावित कर रहा है, इसकी पूरी संभावना है। इन्हें पहचानने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।

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फिर स्कूल जाना - एक बड़ा काम

बच्चों को ऑनलाइन स्कूल से वास्तविक स्कूल में भेजना बच्चों के साथ-साथ माता-पिता ,शिक्षकों, स्वास्थ्य प्रणालियों और देश के लिए एक बड़ा काम बनने जा रहा है।

बीमारी को रोकने पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है - मास्क, टीके, जरुरी दिशा-निर्देश औऱ बहुत कुछ। यह बहुत जरुरी भी है। क्योंकि संक्रमण के फैलने या रुकने का दारमोदार इसी पर टिका हुआ है। लेकिन इसके साथ ही सीखने की क्षमता के नुकसान और संभावित दृष्टिकोणों पर कुछ आवाजें भी उठ रहीं हैं जो उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि यह संक्रमण। यह वह पहलू है जिस पर विचार नहीं किया गया है।

क्या हम अपने पाठ्यक्रम के साथ कुछ काम करने जा रहे हैं और जो समय बीत गया है उसकी भरपाई करने की कोशिश कर रहे हैं या फिर हम अब शिक्षा व्यवस्था को उस नए दृष्टिकोण से देखने जा रहे हैं, जिसकी ये हकदार है?

जिन बच्चों ने महामारी में नुकसान झेला है उन्होंने अकेलापन, वायरस, अलग रहने का दुख और जीवन की कई अन्य परेशानियों का भी सामना किया है। जब हम बच्चों को वापस स्कूल लाते हैं, तो हमारा पूरा ध्यान बच्चे के स्वास्थ्य पर होना चाहिए। विशेषज्ञों का मानना है कि कुछ बच्चों की लक्षण 'पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर' से काफी मिलते-जुलते हैं।

इसलिए एक ऐसी शिक्षा प्रणाली लेकर आनी चाहिए जो सदमें से उबरने में बच्चों की मदद करें।

न्यूजीलैंड की सरकार ने महामारी के बाद शिक्षा के क्षेत्र में सैकड़ों कलाकारों की भर्ती की है , जबकि उनपर महामारी का हुआ असर हमारे देश के नुकसान के मुकाबले बहुत अलग था। इसलिए दोबारा क्लासरूम तक लौटने की प्रक्रिया को बाहरी और आंतरिक- दोनों तरफ से देखने की जरूरत है। एक सुरक्षित ईको सिस्टम, सीखने की जरूरतें और हमारे बच्चों की मनोवैज्ञानिक / भावनात्मक जरूरतें।


क्लासरूम में वापसी की राह

हर बार सरकार ने बच्चों को स्कूल में वापस लाने का प्रयास किया है। अगर कुछ समय के लिए भी स्कूल खोले गए तो सिर्फ हाई स्कूल पर ध्यान दिया गया है। क्या इसलिए कि हमारे पास इस बात के प्रमाण हैं कि किशोरों की प्रतिरोधक क्षमता छोटे बच्चों की तुलना में अधिक है? या फिर इसलिए क्योंकि हम उनकी परीक्षाओं को प्राथमिकता देते हैं?

इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR ) की ओर से की गई एक सिफारिश में कहा गया है कि पहले प्राइमरी स्कूल खोले जाएं। ब्रिटेन सहित कई देशों ने महामारी के चरम पर भी अपने किंडरगार्टन को कभी बंद नहीं किया। क्या हाई स्कूल हमारी प्राथमिकता में ऊपर की ओर होने चाहिए या नीचे की ओर?

निजी और सरकारी स्कूल के बच्चों में अंतर

इस महामारी का समाज पर जो असर पड़ा है उसे समान रुप से नहीं देखा जाना चाहिए। सीखने का नुकसान भी सभी बच्चों पर एक जैसा नहीं है। इसलिए स्कूलों को फिर से खोलने के फैसले को समान रुप से लागू नहीं किया जाना चाहिए। निजी और सरकारी स्कूलों के साथ-साथ दूर-दराज के इलाकों के स्कूलों के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता है। बच्चों के संक्रमण पर विचार करते समय, सरकारों को सरकारी स्कूलों और निजी स्कूलों के बीच एक अंतर को समझते हुए एक अलग दृष्टिकोण पर विचार करना होगा।

जिन बच्चों की शिक्षा तक पहुंच नहीं है, उन्हें प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सरकारी स्कूलों में शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य, चिकित्सीय सेवाओं के साथ, सीखने की क्षमता में आई कमी को पाटने का एक ठोस प्रयास होना चाहिए। जबकि निजी संस्थानों को स्कूल खोलने, सुरक्षा और सीखने के लिए व्यापक गवर्निंग सट्रक्चर दिया जाना चाहिए जिनकी निगरानी की जा सके।

बच्चों के लिए शिक्षक

शिक्षकों ने महामारी से निपटने और बच्चों की जरूरतों को पूरा करने के लिए, तरीको में बदलाव लेकर आने के लिए एक असाधारण क्षमता का प्रदर्शन किया है। कई शिक्षकों को लगता है कि वे बच्चों के लिए बहुत कुछ करना चाहते हैं लेकिन उनके हाथ बंधे हुए हैं।

यदि हम बच्चों के लिए वास्तव में कुछ करना चाहते है तो शिक्षकों और उनके काम पर ध्यान देने और उसमें निवेश करने की जरुरत है। तभी इस बदलाव का फायदा है।


माता-पिता की आवाज

बच्चों को स्कूलों में वापस लाने के फैसले में सबसे बड़ी भूमिका माता-पिता की है। लेकिन इस मामले में उनकी राय एक-दूसरे से काफी अलग है। महामारी और स्कूल बंद होने के पहले साल में, अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजना चाहते थे। इस बारे में हुए कई सर्वे इन्हीं बातों की ओर इशारा करते हैं।

हालांकि, इस साल, बच्चों की शिक्षा का नुकसान देख बहुत से माता-पिता, टीकाकरण से पहले ही अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए अधिक इच्छुक और तैयार हैं। बच्चों को वापस स्कूल में लाने के अपने फैसले में सरकारों को माता-पिता को शामिल करना चाहिए। लेकिन इसके लिए उन्हें पहले स्कूल बंद होने के नुकसान और उनके बच्चों की बेहतरी पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में जागरूक किए जाने की जरुरत है।

बच्चों के लिए सहयोगी

जरुरी है कि राजनीतिक दलों के नेता, बाल रोग विशेषज्ञ, मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, नीति निर्माता और शिक्षक, बच्चों के साथ जुड़े। अपना अगला कदम दृढ़ विश्वास और स्पष्टता के साथ आगे बढ़ाने के लिए- हम सभी को बच्चों के लिए एक साथ होने की जरूरत है।

समाज को अपने बच्चों के नुकसान को हमारे नुकसान के केंद्र में रखने की जरूरत है। साथ ही यह स्वीकार करना होगा कि हर बच्चा खुली दुनिया में सांस लेने का हकदार है। जो पिछले 18 महीनों से उन पर लगाए गए निरंतर लॉकडउन से सबसे अकेले पड़ गए हैं, जिसने उन्हें हाशिए पर धकेल दिया है.

संथ्या विक्रम बच्चों के लिए काम करने वाली एक शिक्षक और कार्यकर्ता हैं और तमिलनाडु के कोयंबटूर में एक प्रगतिशील स्कूल येलो ट्रेन की संस्थापक हैं।

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अनुवाद: संघप्रिया मौर्या

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