ठंड, हवा और गाम घर का बथुआ साग

इन दिनों गेहूँ, सरसों और आलू के खेत में लड़कियाँ बथुआ तोड़ती दिख जाएँगी। दोपहर, रात हर समय के खाने की थाली में बथुआ का साग ज़रूर नज़र आ जाएगा; आखिर साल भर के इंतज़ार के बाद जो इनके दर्शन हुए हैं।

Update: 2024-01-24 07:59 GMT

धूप को देखना ख़्वाब ही तो है! जलावन धू धू कर जल रहा है। लोगबाग दुआर और आँगन में आग के सहारे हैं।

मोबाइल के युग में तापमान भी ख़बर बन गया है। हवा की रफ़्तार और अधिकतम - न्यूनतम तापमान की बात अलाव तापते हुए लोग कर रहे हैं। ठंड की वजह से आलू की पैदावार कम हुई है। वहीं मौसम की मार उन किसानों को उठानी पड़ रही है, जिन्होंने अक्टूबर के दूसरे हफ्ते में मक्का लगाया था।

अभी चावल तैयार करने वाला ट्रैक्टर घर-घर घूम रहा है। उसकी आवाज़ दूर तक जाती है। घर तक चावल का मिल पहुँच गया है। किसान परिवार इस काम में भी लगा हुआ है। वैसे हवा का जोर जुलूम ढ़ा रहा है।


खेत में अभी साग भी है, बथुआ साग। अंचल का बहुत ही लोकप्रिय साग। इसे बुना नहीं जाता है, धरती मईया किसान को अपने आँगन से यह साग देती है, इसके लिए किसान को कुछ भी खर्च करना नहीं पड़ता है।

बथुआ के संग भांग भी दिख जाता है। मित्र मिथिलेश कुमार राय की एक कविता की पंक्ति है-

'जीवन जैसे बथुआ का साग, जैसे सरदी की भोर ! '

आग तापते हुए आज बथुआ पर लिखने का मन है। दरअसल बथुआ का अपना अर्थशास्त्र है, जिसकी व्याख्या बहुत ही कम हुई है। बथुआ मुफ़्त में ही लोगों को मिलता है, शायद अधिकांश किसान इसके लिए पैसे नही लेते हैं। यह एक वीड्स की तरह मक्का, गेहूँ और सरसों की खेतों मे अपने आप उग जाता है और नवम्बर से फरवरी तक मौज़ूद रहता है। गाम घर में लोग खेत जाते हैं और बथुआ तोड़ कर ले आते हैं।


बथुआ उखाड़ा नहीं जाता है, बल्कि बथुआ को तोड़ना पड़ता है। यह भी कला है। अंगुठे और तर्जनी अँगुली को बथुए के जड़ तक आप ले जाइए और इन दोनों अँगुलियों के नाखून को कैंची की तरह इस्तेमाल करते हुए उसे काट दीजिए। बथुआ का जड़ ज़मीन मे ही रह जाएगा और खाने वाला हिस्सा आपको मिल जाएगा।

पाँच दशक पहले तक बथुआ बिकता नहीं था, लेकिन अब बाजार में बथुआ बिक रहा है, यह गाँव का बाज़ार कनेक्शन है। बथुआ को लेकर एक और कथा गाँव घर में सुनने को मिलती है कि गाँव की बहुएँ बथुआ तोड़ने नहीं जाती है बल्कि गाँव की बेटियाँ ही बथुआ तोड़ती हैं! इस कहानी का सिरा पकड़ना होगा।

फेसबुक पर मौज़ूद रूपम मिश्र जी एक कविता है, इसी विषय पर :

"ये लड़कियाँ बथुआ की तरह उगी थीं !

जैसे गेहूँ के साथ बथुआ

बिन बोये ही उग जाता है

ठीक इसी तरह कुछ घरों में बेटियाँ,

बेटों की चाह में अनचाहे ही उग आती हैं।"

वैसे मुझे बथुआ के अर्थशास्त्र में रुचि है। किसान के खेत के इस उत्पाद का अपना समाजवादी मॉडल है। मतलब खेत में उपजता है, लेकिन मुफ़्त में तोड़ा जा रहा है और गाम घर में मुफ़्त में ही थाली तक पहुँच रहा है !

खैर, आज पछिया हवा जुलूम ढ़ा रहा है। सर्दी के इस मौसम में बथुआ राम जी हैं, हर दर्द की दवा !

(गिरीन्द्र नाथ झा, बिहार के चनका गाँव में रहते हैं। पेशे से किसान और पत्रकार हैं)

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