नवाबी खानदान का वो लड़का जिसे पिता के शिकार खेलने की आदत से ऐतराज़ था

इरफ़ान ख़ान का ताल्लुक राजस्थान के टोंक के पुरानी नवाबी ख़ानदान से था। उनके पिता को शिकार खेलने का शौक था लेकिन इरफ़ान हमेशा चाहते थे कि पिता शिकार खेलने की आदत छोड़ दें।

Update: 2020-04-29 11:14 GMT

वो सत्तर के दशक का राजस्थान था। नवाबियत ख़त्म हुए भी ज़माना बीत चुका था। टोंक ज़िले के नवाबी ख़ानदान से पुराना ताल्लुक रखने वाले जागीरदार यासीन अली ख़ान जयपुर आ गए थे। हालांकि उनके पास पुरखों की कोई जागीर नहीं थी लेकिन ख़ून में नवाबी शानो-ओ-शौक़त ज़िंदा थी। जयपुर में टायर की बड़ी सी दुकान चलाने वाले साहबज़ादे यासीन अली ख़ान को शिकार का बड़ा शौक था। जयपुर के इर्द-गिर्द उन दिनों काफ़ी जंगल थे। यासीन अली ख़ान उन जंगलों में शिकार के लिए जाया करते थे और अपने साथ अपने बेटे को भी ले जाते। दस-बारह साल का उनका बेटा उनके साथ हो लेता। उसे घने अंधेरे जंगल में ऊबड़-ख़ाबड़ रास्तों पर बंदूक लेकर घूमते हुए रात बिताना अच्छा लगता था। लेकिन हां, जानवरों पर गोली चलाना उसे बिल्कुल नहीं पसंद था। वो हाथ में राइफल लिए जीप में बैठा रहता लेकिन जब टारगेट पर कोई जानवर होता और खां साहब कहते, "चलाओ, गोली चलाओ" तो ट्रिगर उससे दबता ही नहीं था। वो लड़का उस जानवर की बनावट और उसकी खूबसूरती देखने लगता। उस लड़के का नाम था साहबज़ादे इरफ़ान अली ख़ान।

इरफ़ान ख़ान अपने पिता और परिवार के साथ

इऱफ़ान अली ख़ान को शिकार से ज़्यादा पतंगबाज़ी और क्रिकेट का शौक था। जयपुर के उस घर की छोटी सी छत पर वो रंगीन पतंगे उड़ाया करते। क्रिकेट का शौक इस कदर था कि स्कूल से लौटते ही, बस्ता फेंक कर क्रिकेट खेलने निकल जाते। जयपुर के गंगोरी रोड पर बने चौगान स्टोडियम में घंटो क्रिकेट चलता और कभी वक्त कम हुआ तो अपने जिगरी दोस्त सतीश के साथ घर के बगल वाले खाली पड़े मैदान में ही सटंप गाड़कर पारियां शुरु हो जातीं। इरफ़ान वैसे तो ऑल-राउंडर थे लेकिन उन्हें बैटिंग ज़्यादा पसंद थी। अबीश मैथ्यू को दिए एक वेब-इंटरव्यू में उन्होंने कहा था

"मेरी टीम के कैप्टन को मेरी बॉलिंग पंसद थी तो उसने मुझे बॉलर बना दिया। पता नहीं, वो मुझसे कहता था... बॉल फेंको और मैं फेंकता था और पता नहीं कैसे एक-आध विकेट भी मिल जाता था। लेकिन मुझे हमेशा से बैटिंग पसंद थी"

उस उम्र तक इरफ़ान तय कर चुके थे कि उन्हें क्रिकेटर ही बनना है। जिस इरफ़ान को आज दुनिया अदाकारी के मकबूल सितारे के तौर पर पहचानती हैं, मुमकिन है वो इरफ़ान ख़ान क्रिकेट की दुनिया का बड़ा नाम होता अगर उस दोपहर, जब सी.के.नायडू क्रिकेट ट्राफ़ी के लिए उनका सिलेक्शन हो गया था और उन्हें फ़ीस के लिए पैसे जमा करने थे, तब पैसों का इंतज़ाम हो जाता। सी.के.नायडू क्रिकेट ट्रॉफ़ी क्रिकेट में अहम मानी जाती है। इरफ़ान का सिलेक्शन हो जाने का मतलब था कि उनमें क्रिकेट प्रतिभा थी। लेकिन परिवार वालों ने क्रिकेट में इरफ़ान की दिलचस्पी को ज़रा भी नहीं सराहा। एक इंटरव्यू में इरफ़ान खान ने कहा था,


"अगर उस शाम मेरे पास तीन हज़ार पांच सौ रुपए होते, तो हो सकता है कि आज मैं कोई और इरफ़ान ख़ान होता।" 

तस्वीर में बाएं से - इरफ़ान ख़ान, उनके दो छोटे भाई और बड़ी बहन

क्रिकेट छोड़ने के बाद इरफान के अम्मी बेग़म ख़ान, जो कि टोंक की एक हकीमी परिवार से थीं, उन्होंने इरफ़ान से ग्रेजुएशन करने को कहा। इरफ़ान की अम्मी का जिंदगी को लेकर नज़रिया बहुत सादा था। वो कहती थीं कि बहुत बड़े सपनें नहीं देखने चाहिए। बस इतना कमाओ कि इज़्ज़त से गुज़ारा हो सके और वो काम करो, जिसके लिए अपना घर और अपने लोग न छोड़ना पड़े। उनके एक भाई, यानि इरफ़ान खान के मामू किसी ज़माने में बंबई आए थे लेकिन न तो उन्हें बंबई में कामयाबी मिली और न वो लौट कर वापस आए। शायद यही वजह थी कि इरफ़ान की अम्मी के मन में बंबई को लेकर पहले ही एक खास तरह का डर था। वो तो ये चाहती थीं कि इरफ़ान उनके नाना की हक़ीमी परंपरा आगे बढ़ाएं। लेकिन इरफ़ान की आंखें तो सपना देखना सीख गयीं थी। क्रिकेट न सही, कुछ और सही। ग्रेजुएशन के दौरान ही साहबज़ादे इरफ़ान खान को एक्टिंग का शौक लगा। उनकी मुलाकात जयपुर में कुछ थियेटर करने वाले लोगों से हुई। ये अलग-अलग कॉलेजों के कुछ लड़कों का ग्रुप था जो अलग-अलग जगहों पर हीर-रांझा और लैला-मजनूं जैसे नाटक किया करते थे। 

ये दुनिया इरफ़ान के लिए नई और बेहद चमकीली भी। क्रिकेट की तरह यहां भी फौरन तालियां मिलती थीं। हर अच्छे डायलॉग पर, अच्छी अदाकारी पर वाह-वाही मिलती थी। स्टेज पर पहुंचते ही इंसान अपने किरदार की ज़िंदगी जीता था। एक अलग और शानदार दुनिया थी वो। इरफ़ान ने सोच लिया कि अब जो भी करना है इसी में करना है। घर वालों को भनक लगी थी तो इरफ़ान ख़ान के ग्रेजुएशन के विषय बदल कर, भारी-भरकम विषय दिला दिए गए ताकि पढ़ाई से वक्त ही न मिले। इरफ़ान ने एक इंटरव्यू में कहा था,

"अब मुझे लगता है कि पढ़ाई करने से मुझे बहुत सारी चीजों की समझ मिली वरना मैं शायद इस तरह एक्टिंग भी नहीं कर पाता। ग्रेजुएशन के दिनों में ही मैंने एक्टिंग की तरफ बराबर से ध्यान देना शुरू किया। पहले मैं कुछ नए एक्टर्स के साथ एक्टिंग सीखने की कोशिश करता था। इत्तेफाक़ से मेरी मुलाकात नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से जुड़े एक शख्स से हो गयी। मैं उनके साथ हो लिया और स्टूडेंट्स् के साथ कॉलेज कॉरिडोर में, कभी क्लासरूम में और यहां तक की कैंटीन में उनको देखते-देखते सीखने की कोशिश करता था"

तस्वीर - एक डॉक्टर की मौत

कोशिशें रंग लाई और साल 1984 में जब इरफ़ान एम.ए की पढ़ाई कर रहे थे उन्हें नैशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, दिल्ली से एक्टिंग के लिए स्कॉलरशिप मिली। वो दिन इरफ़ान की ज़िंदगी के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। वो दिल्ली आए और फिर उनकी एक्टिंग का लोहा बड़े-बड़े एक्टर्स ने माना। मुंबई पहुंचे तो कुछ दिन के स्ट्रगल के बाद उन्हें छोटे पर्दे पर काम मिलना शुरु हो गया। चाणक्य, भारत एक खोज, सारा जहां हमारा, बनेगी अपनी बात और चंद्रकांता में रोल मिले। इरफान खान को मीरा नायर की फ़िल्म सलाम बांबे में भी छोटी सी भूमिका मिली लेकिन एडिट के दौरान वो हिस्सा कट गया। साल 1990 बहुत उन्हें तपन सिन्हा द्वारा निर्देशित फ़िल्म 'एक डॉक्टर की मौत में' बड़ी भूमिका करने को मिली। पंकज कपूर की शानदार अदाकारी से सजी इस फ़िल्म को बेस्ट फीचर फिल्म और बेस्ट डायरेक्शन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इरफ़ान इस फ़िल्म के बाद निर्माताओं-निर्देशिकों की नज़र में आ गए। और इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। रोग, नेमसेक, हासिल, चरस, न्यूयार्क, लंचबॉक्स जैसी फिल्मों से बॉलिवुड के सबसे चमकदार सितारों कहे जाने लगे। इरफ़ान के साथ हासिल और चरस जैसी फ़िल्में बना चुके निर्देशक तिगमांशू धूलिया कहते हैं, "इरफ़ान सिर्फ हिंदी फ़िल्म जगत के नहीं बल्कि पूरी दुनिया के सबसे बेहतरीन एक्टर हैं"

2017 ने इरफ़ान खान की ज़िंदगी को बदलकर रख दिया जब एक फ़िल्म की शूटिंग के दौरान उन्हें तेज़ सर दर्द हुआ। शुरुआती इलाज के बाद वो लंडन रवाना हो गए। जहां पता चला कि उन्हें न्यूरोइनडोकरीन ट्यूमर है। लंबे इलाज के बाद वो पिछले साल दो अप्रैल में भारत लौटे। और उस वक्त वो स्वस्थ लग रहे थे। छूटी हुई फ़िल्मों की तैयारी भी शुरु हो गयी थी। 

लेकिन  बीते हफ़्ते में इरफ़ान खान फिर से बीमार हुए। 53 साल के इस एक्टर को मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में भर्ती कराया गया। डॉक्टरों के मुताबिक उन्हें कोलन इनफेक्शन था जो कि पाचन तंत्र से जुड़ा एक संक्रमण होता है। मंगलवार को इरफान के प्रवक्ता ने सोशल मीडिया पर लिखा,

"हां ये सच है कि इरफ़ान ख़ान मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल के आइसीयू में भर्ती हैं। हम बताना चाहते हैं कि वो डॉक्टरों की निगरानी में हैं। वो बीमारी के ख़िलाफ मज़बूती और हिम्मत से लड़ रहे हैं और हमें उम्मीद है कि प्रशंसकों की दुआओं और मज़बूत इच्छाशक्ति के बल पर वो जल्द ही ठीक हो जाएंगे"


डॉक्टरों के मुताबिक उनके अंदर बीमारी से लड़नी की गज़ब हिम्मत थी। वो ढाई साल की इस बामारी का अपनी पूरी ताकत से सामना कर रहे थे लेकिन आखिरकार न्यूरोइनडोकरीन ट्यूमर नाम की इस रेयर बीमारी से हार गए। बुधवार की सुबह इरफ़ान ख़ान की मौत की ख़बर ने पूरी दुनिया को चौंका दिया। मंगवाल की देर रात तक उनके वेंटिलेटर पर होने की अफ़वाहें इंटरनेट पर गर्म थीं, जिसे डॉक्टरों ने गलत बताया। मेडिकल स्टाफ ने ट्वीट करके कहा था कि इरफ़ान वेंटिलेटर पर नहीं हैं, लेकिन वो बीमारी से जूझ रहे हैं। प्रशंसकों से दुवाएं करने के लिए कहा गया था लेकिन सुबह होते-होते ये साफ़ हो गया कि तमाम कोशिशों के बावजूद इरफ़ान को नहीं बचाया जा सका। कुछ रोज़ पहले कोविड 19 के लिए जागरुकता के तौर पर एक दिन का व्रत रखने का ऐलान करने वाले इरफ़ान खान अचानक दुनिया को छोड़ गए। उनके जाने से बॉलिवुड में अदाकारी का एक शानदार अध्याय खत्म हो गया। इरफ़ान ने अपनी हालिया फ़िल्म इंग्लिश मीडियम के प्रोमोशन के दौरान अपने चाहने वालों के लिए एक वीडियो बनाया था। जिसमें उन्होंने कहा था,

"हेलो भाइयो-बहनों मैं इरफान। मैं आज आपके साथ हूं भी और नहीं भी। खैर, ये फिल्म अंग्रेजी मीडियम मेरे लिए बहुत खास है। सच यकीन मानिए मेरी दिली ख्वाहिश थी कि इस फिल्म को उतने ही प्यार से प्रोमोट करूं, जितने प्यार से हमने इसे बनाया है लेकिन मेरे शरीर के अन्दर कुछ अनवॉन्टेड मेहमान बैठे हुए हैं, उनसे वार्तालाप चल रहा है। देखते हैं किस करवट ऊंट बैठता है। जैसा भी होगा आपको इत्तेला कर दी जाएगी"

फ़िल्म जगत की सभी हस्तियों ने ट्वीटर पर इरफ़ान के असमय चले जाने पर अफ़सोस ज़ाहिर किय़ा। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी इरफ़ान खान के निधन पर गहरा शोक जताया है। उन्होंने एक ट्वीट करते हुए कहा,                                                                                                                                                                                             

इरफ़ान खान हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके शानदार काम के ज़रिए जिये हुए दर्जनों किरदार हमेशा ज़िंदा रहेंगे। सोशल मीडिया पर उनके फैंस उनकी फिल्मों के डायलॉग याद करते हुए उन्हें श्रंद्धाजलि दे रहे हैं। एक प्रशंसक विकास त्रिवेदी ने साल 2005 में आई फिल्म 'रोग' का एक संवाद दोहराते हुए लिखा। 

"मन ऊब गया है। वही शोर, वही आवाज़ें. शिकायत नहीं है। अजीब सा एहसास है मन में, अजीब. जिस रोज नया दिन निकलता है। मैं वही पुराना हूं, दुनिया वही पुरानी है, वैसे ही चली जा रही है। मुझे लगा जो ये ज़िंदगी की गाड़ी चल रही है इसकी चेन मैं खींचता हूं और उतर जाता हूं"             
                                                                                                                      

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