वो मंजिल अभी कितनी दूर...

Update: 2016-02-01 05:30 GMT
गाँव कनेक्शन

उस देश में जब एक अलसाई हुई सुबह ने आंखें खोली तो लोकतंत्र 66 बरस का हो गया था। देशभक्ति के गानों और छतों से लहराते तिरंगे देखकर हर शहरी गर्व के गणतंत्र को किसी ख्वाब के सच होने की तरह ताक रहा था। हर तरफ अधिकार और बराबरी का शोर था। लेकिन उसी वक्त उस शोर को चीरती हुई एक आवाज़ गूंजी। वो आवाज़ जो पसरती चली गई सत्ता के गलियारों से लेकर व्यवस्था के कूचों तक और टकरा गई, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के गर्व से खड़े लालकिले की दीवार के सबसे ऊंचे कंगूरों से। ये आवाज़ थी, जिसे सुनकर व्यवस्था कान बंद कर लेती थी क्योंकि ये आवाज़ उस महान देश के भ्रम को तोडऩा जानती थी। इस देश का नाम हिंदुस्तान था और वो आवाज़ महाराष्ट्र के अहमदनगर से थी। 

वो 500 महिलाएं थी, जिन्होंने बीते 400 वर्षों से एक घटिया परंपरा से अपमानित हो रहे अपने वजूद को आज़ाद करने के लिए गणतंत्र दिवस को चुना। वो परंपराए वो मान्यता जिसके तहत महाराष्ट्र के अहमदनगर के शनि शिगणापुर मंदिर के चबूतरे पर महिलाओं को जाने की अनुमति नहीं है। नारीवाद के नारों से गूंजते हमारे समाज का खोखलापन देखिए कि बीते दिनों जब एक महिला ने ऐसा करने की कोशिश की तो पूरे मंदिर को दूध से धोया गया बल्कि उस महिला को अधर्मी तक कहा गया। 

ये महिलाएं मंदिर के चबूतरे पर इसलिए नहीं जाना चाहती थी क्योंकि ये बहुत धार्मिक थी बल्कि इसलिए क्योंकि ये संघर्ष धार्मिक भावनाओं से ज्यादा इंसानी भावनाओं का था, बराबरी का था, आत्मसम्मान का था। महिलाओं का प्रवेश वर्जित करना क्या आधी आबादी को कमतर दिखाने का संकेत नहीं है। जब संविधान स्त्री-पुरुष को समान अधिकार देने के साथ-साथ धार्मिक आज़ादी पर मुहर लगाता है तो ऐसे उदाहरण क्या ग़ैर संवैधानिक नहीं हैं।

सवाल सिर्फ मंदिर या तमाम दरगाहों का नहीं जहां महिलाओं के जाने पर पाबंदी है। ये सवाल एक गौरवशाली गणतंत्र में औरत होने के मायने का है। आइए सोचें कि ये कौन सी सत्ता है जो किसी महिला के कदमों की आहट से भी डगमगाने लगती है। औरत के पीछे खड़े होकर नमाज़ पढ़ने से क्यों कतराते हैं लोग, क्यों किसी महिला के कराए यज्ञ को आमतौर पर मान्यता नहीं मिलती।

बीते दिनों हैदराबाद यूनिवर्सिटी में एक दलित छात्र की आत्महत्या पर जिस तरह ट्विटर से लेकर फेसबुक रंग दिए गए उससे ये तो साबित होता है कि ये देश दलित बनाम ब्राह्मणवाद के विमर्श को गंभीरता से ले रहा है लेकिन ये विमर्श जब पुरुष बनाम महिला होता है तो हमारे खून में उबाल क्यों नहीं आता।

अहमदनगर में हुई ये छोटी सी कोशिश इस बात का सबूत है कि महिलाएं अब अपना हक, अपना आत्मसम्मान पाने के लिए सवाल पूछना सीख रही हैं, वो समाज की बनाई लक्ष्मण रेखाओं को लांघना सीख रही है, सत्ताधारियों की आंख से आंख मिलाकर अपने हक का हिसाब मांगने की कोशिश कर रही है और ऐसे में उनके साथ खड़ा होना हर उस शख्स की जि़म्मेदारी है जो लोकतंत्रिक व्यवस्था में समान अधिकारों पर यकीन रखता है। नागरिक समानता किसी भी महान कामयाब लोकतंत्र की पहली शर्त है और जब तक ऐसा नहीं होता हमें ये मान लेना चाहिए कि जिस गणतंत्र का जश्न हम मना रहे हैं वो एक अधूरे ख्वाब के सिवा और कुछ नहीं।

(लेखक के अपने विचार हैं।) 

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