राजस्थान: खुद अपना भविष्य बुन आत्मनिर्भर बन रहीं आदिवासी महिलाएं
डूंगरपुर नगर परिषद ने 2018 में पहली बार शहर के छह वॉर्डों में 10-10 सिलाई मशीनों से ये सेंटर खोले। 10 महिलाओं से शुरू हुए इन प्रशिक्षण केंद्रों की संख्या अब चार हो चुकी है और इनमें 200 महिलाएं अलग-अलग काम की ट्रेनिंग ले रही हैं।
Madhav Sharma 13 April 2021 12:00 PM GMT
डूंगरपुर/ बांसवाड़ा (राजस्थान)। राजस्थान के आदिवासी जिलों में गरीबी, कुपोषण और तमाम बीमारियों की खबरें जब-तब मीडिया और एनजीओ के मार्फत सामने आती रहती हैं। इसके अलावा रोजगार की कमी से आदिवासी जिलों में पलायन एक गंभीर समस्या बनकर उभरी है। महिलाओं की स्थिति भी खराब है। ऐसे में आदिवासी बहुल दो जिले डूंगरपुर और बांसवाड़ा में महिलाओं को रोजगार से जोड़ने की अच्छी पहल हुई है। दोनों जिलों में विधवा, एकल, परित्यक्ता के साथ-साथ जरूरतमंद महिलाओं को सिलाई, कढ़ाई, सेनेटरी नैपकिन, मास्क, पापड़, दीये, मोमबत्ती और रोजमर्रा की जरूरत के सामान बनाने की ट्रेनिंग दी जा रही है।
डूंगरपुर नगर परिषद ने 2018 में पहली बार शहर के छह वॉर्डों में 10-10 सिलाई मशीनों से ये सेंटर खोले। 10 महिलाओं से शुरू हुए इन प्रशिक्षण केंद्रों की संख्या अब चार हो चुकी है और इनमें 200 महिलाएं अलग-अलग काम की ट्रेनिंग ले रही हैं। दो साल में अब तक 800 महिलाएं इन ट्रेनिंग सेंटर से प्रशिक्षित हो चुकी हैं।
इनमें से एक सेंटर में ट्रेनर हंसा श्रीमाल बताती हैं कि पहले 50 महिलाओं का एक बैच चलता था, लेकिन अभी कोरोना संक्रमण के चलते इसे 25 कर दिया गया है। ज्यादातर महिलाएं जरूरतमंद होती हैं। ये ऐसे परिवारों से ताल्लुक रखती हैं, जहां पूरे परिवार की जिम्मेदारी इन्हीं के कंधों पर होती है।
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फिलहाल इस सेंटर में 12 लड़कियां तलाकशुदा और विधवा हैं। बाकी महिलाएं घरेलू हिंसा, तंगहाली की वजह से हमसे जुड़ी हुई हैं। हंसा आगे बताती हैं, 'कोरोना काल में इन सेंटर्स में 10 लाख मास्क बनाए जा चुके हैं। हम ऐसी महिलाओं को निशुल्क प्रशिक्षण दे रहे हैं। अगर यही प्रशिक्षण किसी अन्य सेंटर से लेती हैं तो इसकी करीब दो हजार रुपए प्रति माह की फीस है।'
वे कहती हैं, 'ट्रेनिंग लेकर गई कई महिलाओं ने अब अपना काम शुरू कर दिया है। कई महिलाएं कच्चा माल यहां से लेकर जाती हैं और अपने घरों से ही काम कर रही हैं। इसके अलावा ऐसी कई आदिवासी महिलाएं भी ट्रेनिंग ले चुकी हैं, जो काम की तलाश में परिवार के साथ गुजरात पलायन करती थीं।'
डूंगरपुर शहर से 20 किमी दूर फुनाली गांव की रहने वाली सीमा दो साल से इस सेंटर से जुड़ी हैं। सीमा के पति 6 हजार रुपए महीने की नौकरी करते थे, लेकिन कोरोनाकाल में नौकरी चली गई। फिलहाल उनकी आय का साधन अनिश्चित है। ऐसे में दो बच्चों हेमांक (7) और पार्थ (6) की जिम्मेदारी भी सीमा के कंधों पर ही है। सीमा घरेलू हिंसा से भी पीड़ित हैं।
डूंगरपुर नगर परिषद के तत्कालीन चेयरमैन केके गुप्ता ने इस बारे में गांव कनेक्शन को बताया, 'डूंगरपुर आदिवासी बहुल जिला है। यहां बड़ी कंपनियां या स्थायी रोजगार के साधन न के बराबर हैं। पुरुष तो मजदूरी या नौकरी के लिए गुजरात चले जाते हैं, लेकिन उनके पीछे छूटी उनकी पत्नी, विधवा, एकल, तलाकशुदा और अन्य जरूरतमंद महिलाएं क्या करें? इसीलिए हमने शहर के चार क्षेत्रों शास्त्री कॉलोनी, सोनिया चौक, घाटी और न्यू कॉलोनी में ऐसी महिलाओं के लिए सिलाई प्रशिक्षण केन्द्र खोले हैं। इनमें से एक सेंटर को उन्नति नाम की संस्था को सौंपा गया है बाकी तीन को डूंगरपुर नगर परिषद ही चला रही है।'
डूंगरपुर की तरह ही बांसवाड़ा जिले की कुशलगढ़ तहसील में आदिवासी महिलाएं अपने हाथ के हुनर से आत्मनिर्भर बन रही हैं। कुशलगढ़ तहसील में आदिवासियों का सबसे ज्यादा पलायन गुजरात के लिए होता है। ऐसे में यहां की एक सामाजिक कार्यकर्ता निधि जैन ने दिसंबर 2016 में एक स्किल सेंटर शुरू किया। तब आदिवासी समुदाय से 55 महिलाएं जुड़ी। आज करीब 3500 महिलाएं प्रतिध्वनि संस्थान के सखी कार्यक्रम से जुड़ी हुई हैं। ये महिलाएं सिलाई-कढ़ाई के साथ-साथ कई तरह के काम करना यहां सीखती हैं।
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सखी कार्यक्रम से जुड़ी सौम्या खड़िया कुशलगढ़ के गांव पोटलिया की रहने वाली हैं। आदिवासी समाज से आने वाली सौम्या पहले दूसरों के घरों में बर्तन साफ करती थीं। सौम्या कहती हैं, '2018 में मैं प्रतिध्वनि से जुड़ीं और सिलाई का काम सीखा। आज मैं आत्मनिर्भर हूं और संस्था में ही काम करती हूं। लॉकडाउन के वक्त मैंने अकेले ही करीब 30 हजार मास्क बनाए।'
सौम्या आगे कहती हैं, '2018 से पहले घरों मैं घरों में काम कर के सिर्फ 2800 रुपए कमाती थीं। सिलाई से अब अब 10 हजार रुपए तक कमाती हूं। घर में कमाने वाली सिर्फ मैं हूं और अब आराम से घर के खर्चे चला पा रही हूं।'
प्रतिध्वनि संस्थान की संस्थापक निधि जैन कहती हैं, 'आदिवासी जिलों में महिलाओं की स्थिति हर पैमाने पर पुरुषों से खराब है। ऐसे में पुरुष की बराबरी में महिलाएं तभी आ पाएंगी जब वे आर्थिक रूप से सक्षम होंगी। हमारे काम को देखकर टीएडी कमिश्नर ने दूसरे क्षेत्रों में भी महिलाओं को इस प्रोजेक्ट से जोड़ने की जिम्मेदारी हमें दी है।'
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निधि आगे बताती हैं कि काम के साथ-साथ इन महिलाओं का आत्मविश्वास भी बढ़ा है। कुछ साल पहले तक इनमें से कई महिलाओं-लड़कियों ने घर से बाहर कदम भी नहीं रखा था, लेकिन आज ये अपना बनाया सामान बेचने के लिए दिल्ली जैसे बड़े शहरों में भी अकेले यात्रा करती हैं। इस क्षेत्र की समस्याओं और महिलाओं की स्थिति को देखते हुए ये भी एक बड़ी उपलब्धि है।
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