फसल बदलकर सिंचाई जल में एक तिहाई तक बचत

भारत सिंचाई के लिए जल में एक-तिहाई तक बचत कर सकता है और इसके साथ-साथ अपनी लगातार कुपोषण की समस्या को भी हल कर सकता है।

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फसल बदलकर सिंचाई जल में एक तिहाई तक बचत

माउंट आबू (राजस्थान)। भारत सिंचाई के लिए जल में एक-तिहाई तक बचत कर सकता है और इसके साथ-साथ अपनी लगातार कुपोषण की समस्या को भी हल कर सकता है, यदि यह देश चावल की फसल पर ध्यान न दे कर, ऐसे फसल उपजाए, जिनको कम पानी की जरूरत होती है। यह जानकारी 43 वर्षों में सिंचाई-पानी के उपयोग पर किए गए एक अध्ययन में सामने आई है।

भारत में उगाए जाने वाले अनाजों में से, कम पोषक तत्वों ( लोहा, जस्ता और प्रोटीन ) को वितरित करते हुए, चावल प्रति टन उत्पादन पर सबसे अधिक पानी खपत करता है, जैसा कि एक वैश्विक विज्ञान पत्रिका, 'साइंस एडवांसेस ' में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है। चावल के लिए सुझाए गए प्रतिस्थापन मक्का, बाजरा, मोती बाजरा और ज्वार हैं। ये सभी अनाज प्रति टन कम पानी का उपभोग करते हैं और अधिक पौष्टिक होते हैं।

ऐसा पहली बार है कि वैज्ञानिकों ने पौष्टिक लाभ के साथ एक वैकल्पिक फसल पैटर्न को जोड़कर जल-बचत की एक संभावना को सामने लाया है। अधिक पोषक तत्व युक्त या कम पानी की जरूरत वाले फसल के साथ चावल को प्रतिस्थापित करना प्रोटीन (1 फीसदी) के उत्पादन में तो मामूली रूप से सुधार करेगा, लेकिन 27 फीसदी और 13 फीसदी तक लोहे और जिंक के उत्पादन में वृद्धि होगी।


वैज्ञानिकों की सलाह इसलिए भी महत्वपूर्ण

वैज्ञानिकों की ये सलाह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि भारत आज अपने इतिहास में सबसे बड़े जल संकट से जूझ रहा है और दूसरी ओर कुपोषण के रूप में लोहे और जस्ता की कमी से लड़ रहा है। यह अध्ययन, 'अल्टरनेटिव सिरीअल्ज कैन इंप्रूव वॉटर यूज एंड न्यूट्रिएंट यूज इन इंडिया', 4 जुलाई, 2018 को प्रकाशित किया गया था।

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सरकार की वैचारिक संस्था, नीति आयोग, ने पिछले महीने आशंका जाहिर की थी कि 2020 तक भारत के 21 शहरों में भूजल की कमी होगी, जैसा कि इंडियास्पेंड ने 25 जून, 2018 की रिपोर्ट में बताया है।

हालांकि आम धारणा यह है कि शहरीकरण और औद्योगिकीकरण भारत भर में गिरने वाले भूजल के स्तर के कारण हैं। सिंचाई के लिए भूजल के नौवें-दसवें हिस्से ही निकाले गए हैं। इस संबंध में इंडियास्पेंड ने नवंबर 2016 की रिपोर्ट में बताया है।

भारतीयों की पोषण की स्थिति में सुधार नहीं

नए अध्ययन में कहा गया है कि 2009 में 632 क्यूबिक किलोमीटर (सीयू किमी) पानी का लगभग एक-तिहाई (34 फीसदी) भारत ने अनाज उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया था, वह विभिन्न सिंचाई स्रोतों से आया था। बाकी के लिए वर्षा के पानी का इस्तेमाल किया गया। आज भारत खाद्य के रूप में सुरक्षित है।

नया अध्ययन कहता है कि यह उपलब्धि जल सुरक्षा की लागत पर आई है, और इससे भारतीयों की पोषण की स्थिति में सुधार नहीं हुआ है, खासतौर खाद्य पदार्थों में लौह और जस्ता की पर्याप्तता के मामले में।

साल 2015-16 के चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में, प्रजनन आयु (15 से 49 वर्ष) की भारतीय महिलाओं में से आधे से अधिक (53 फीसदी) को एनीमिक ( लोहा की कमी का परिणाम ) माना गया है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने नवंबर 2017 की रिपोर्ट में बताया है। भारतीय जनसंख्या का एक तिहाई से अधिक जस्ता-वंचित है। इस संबंध में हमने सितंबर 2017 की रिपोर्ट में बताया है।

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अब ऐसा लगता है कि किसानों के लिए जल सुरक्षा और आजीविका सुरक्षा प्राप्त करते समय इन कमियों को दूर करना एक समाधान है। " ए मैसिव विन-विन"में अर्थशास्त्री, योजना आयोग के पूर्व सदस्य और जल और आजीविका सुरक्षा पहल, समाज प्रगति सहायोग के सह-संस्थापक, मिहिर शाह ने फसल परिवर्तन समाधान का वर्णन किया है।

सिंचाई के लिए कम पानी का उपयोग पर्यावरण स्थिरता के लिए जरूरी

इस नए अध्ययन के मुताबिक भारत के अनाज उत्पादन में 1966 और 2009 के बीच 230 फीसदी की वृद्धि हुई, जिसका श्रेय भारत भर में सिंचाई बुनियादी ढांचे में बड़े सुधार को जाता है। सिंचाई स्रोतों ने इस अवधि के दौरान अनाज उत्पादन के लिए पानी के उपयोग में 86 फीसदी की वृद्धि का योगदान दिया है।

वर्षा जल भूमि पर कृषि के लिए इस्तेमाल किया गया वर्षा जल 300 सीयू किमी से 219 सीयू किमी तक कम हो गया है। यह गिरावट सिंचित क्षेत्र के विस्तार और हाल के दशकों में औसत वर्षा में गिरावट दोनों को व्यक्त करती है, जैसा कि वर्तमान अध्ययन के सह-लेखक और हैदराबाद में इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी में सार्वजनिक नीति और अकादमिक निदेशक के सहयोगी प्रोफेसर, अश्विनी छत्रे ने इंडियास्पेंड को बताया है।


साल 1970 के खरीफ (मानसून) के मौसम में, औसत वर्षा 1,050 मिमी थी। 2015 के खरीफ मौसम में 1,000 मिमी से भी कम हुआ है। इसी प्रकार, सर्दियों की फसल या रबी के मौसम में, औसत वर्षा में गिरावट आई है, यानी 1970 में लगभग 150 मिमी वर्षा थी। 2015 में लगभग 100 मिमी हुआ है, जैसा कि नीति आयोग के अध्ययन के निष्कर्षों के आधार पर इंडियास्पेंड ने जून 2018 की रिपोर्ट में बताया है। मानसून के दौरान वर्षा के बिना दिनों की संख्या में 1970 में 40 फीसदी थी, 2015 में ऐसे दिन 45 फीसदी रहे।

छत्रे कहते हैं, " मानसून के दौरान सूखे दिनों और शुष्क दिनों को देखते हुए किसानों के लिए वैकल्पिक अनाज सुनिश्चित करने और सुरक्षात्मक सिंचाई महत्वपूर्ण है। ये दोनों बातें जलवायु परिवर्तन के साथ जुड़ी हुई हैं।"

जल संकट, पोषण की कमी और खाद्य अनाजों की सब्सिडी

अनाज की खपत और फसल के आंकड़े बताते हैं कि चावल-गेहूं की खपत और फसल में बदलाव 1960 के दशक की हरित क्रांति के बाद तेज हो गया है।

1960 और 2010 के मध्य के बीच, शहरी भारतीय गेहूं की खपत लगभग 27 किलोग्राम से 52 किलो हो गई है। यह प्लेट-शेयर लाभ ज्वारी और बाजरा की खपत की लागत पर आया, जिससे उनकी औसत वार्षिक प्रति व्यक्ति खपत 32.9 किलोग्राम से 4.2 किलोग्राम हो गई है।

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नतीजतन, 1956 के बाद से, बाजरा और ज्वार का क्षेत्र घट गया है। मोती बाजरा के लिए 23 फीसदी, बाजरा के लिए 49 फीसदी, ज्वार के लिए 64 फीसदी और छोटे बाजरा के लिए 85 फीसदी।

माना जाता है कि यह आहार परिवर्तन मांग के कारण है, जैसा कि बाजरा और ज्वार से बेहतर गेहूं माना जाता है, और अनाज अधिक समृद्ध भारतीयों द्वारा पसंद किया जाता है। हालांकि, इस अध्ययन से पता चला है कि परिवर्तन महत्वपूर्ण रूप से आपूर्ति-संचालित है, जो कम आय वाले परिवारों के लिए खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम, 'देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली से काफी प्रभाव' को दर्शाता है।

योगदान देने वाला एक महत्वपूर्ण कारक

"उत्पादकों को गारंटीकृत न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रदान करके और उपभोक्ता पर चावल और गेहूं पर भारी सब्सिडी लगाकर, इस प्रणाली ने पोषक तत्व युक्त समृद्ध वैकल्पिक अनाज से फसल और आहार विकल्प को दूर करने के लिए भी काम किया है और व्यापक पोषक तत्वों की कमी के दृढ़ता में योगदान देने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है", जैसा कि अध्ययन में कहा गया है।

आपूर्ति-पक्ष के मामले पर छत्रे कहते हैं, "1982 में, पूर्व आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री एनटी रामा राव के प्रति किलो 2 रुपए चावल के वादे ने स्वास्थ्य में किसी भी समान सुधार के बिना पिछले दो पीढ़ियों की आहार प्राथमिकताओं को बाजरा से चावल पर पहुंचा दिया है। " आंशिक रूप से, इसके परिणामस्वरूप, प्रजनन आयु की महिलाओं में एनीमिया ( समाज के स्वास्थ्य की स्थिति का एक प्रमुख संकेतक ) के मामालों में तेलंगाना (पूर्व आंध्र प्रदेश का हिस्सा) में वृद्धि हुई है, 1999-2000 में पहले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) में 49.8 फीसदी से 2015-16 में नवीनतम एनएफएचएस में 55 फीसदी तक।

मिड डे मील में बाजरा और दालें

इन फसलों के लिए बड़ी मांग बनाने और किसानों को उन्हें उत्पन्न करने के लिए प्रोत्साहन की संरचना तैयार करने के लिए शाह मिड डे मील स्कीम और एकीकृत बाल विकास सेवा योजना में स्वस्थ बाजरा और दालें पेश करने की वकालत करते हैं। इसके बाद इन योजनाओं को आपूर्ति के लिए सरकार द्वारा फसलों की विकेन्द्रीकृत खरीद के बाद किया जा सकता है। वह कहते हैं, "वर्तमान में, हम केवल पानी की ज्यादा खफत वाले फसलों प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि हम सब इसी तरह की फसलें खरीद रहे हैं।"

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इस अध्ययन में यह भी पाया गया है कि एक वैकल्पिक अनाज के लिए चावल को बदलने से उत्पादन में गिरावट नहीं आती है, जिससे अनाज की कमी का कोई मामला नहीं होगा। मिसाल के तौर पर, मध्य प्रदेश के 38 चावल उगाने वाले जिलों में चावल से मक्का में जाने पर वास्तव में उपज में वृद्धि होगी, जैसा कि महाराष्ट्र में 22 चावल उगाने वाले जिलों में होगा। मध्यप्रदेश में 31 चावल उगाने वाले जिलों और महाराष्ट्र के 14 जिलों में चावल की जगह ज्वार की खेती फायदेमंद रहेगा।


पोषक उत्पादन के विकेंद्रीकरण से स्थानीय जलवायु संकट में राहत

करीब 97 फीसदी सिंचित भूमि के साथ पंजाब और 84 फीसदी के साथ हरियाणा ने 1966 और 2009 के बीच अपनी सिंचाई सुविधाओं में काफी सुधार किया है, जो इस अध्ययन की अवधि भी रही है। देश के लिए चावल और गेहूं के प्रमुख उत्पादक बनने में, ये राज्य कृषि जल की मांग का सबसे बड़ा स्रोत भी बन गए हैं।

गेहूं ( रबी फसल ) की सिंचाई की जरूरतों ने कृषि प्रयोजनों के लिए पानी की मांग में 69 फीसदी की वृद्धि की है। चावल को खरीफ और रबी दोनों मौसमों में पोषक उत्पादन और पानी के उपयोग के मामले में योग्य फसल नहीं माना जाता है।

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नतीजतन, वैकल्पिक फसलों के साथ अकेले उत्तरी अनाज बेल्ट में उगाए गए चावल की जगह पर्याप्त पानी की बचत प्रदान करेगी। छत्रे बताते हैं, "प्रतिस्थापन से कुल जल बचत का लगभग आधा हिस्सा सिर्फ 3 9 जिलों में से होगा, जिनमें से अधिकांश पंजाब और हरियाणा में हैं।"

अध्ययन में पाया गया है कि पिछले 40 वर्षों में, पानी की कमी का तनाव दक्षिणी जिलों से दूर हो गया है, जिनमें से पंजाब और हरियाणा कुछ जिलों ने ओर कृषि जल में कमी का अनुभव किया है।

राष्ट्रीय अनाज उत्पादन के प्रभाव को कम करेगा

"पूरे भारत में फसल पैटर्न बदलना पोषक उत्पादन को प्रभावी ढंग से विकेन्द्रीकृत करेगा, जिससे स्थानीय जलवायु की मार जैसे सूखे या बाढ़ राष्ट्रीय अनाज उत्पादन के प्रभाव को कम करेगा", जैसा कि अध्ययन के मुख्य लेखक और द अर्थ इंस्टीट्यूट, कोलंबिया यूनिवर्सिटी, यूएसए में पोस्टडोक्टरल फेलो के साथ-साथ नेचर कंज़र्वेंसी में नेचरनेट साइंस फेलो, केली फ्रैंकेल डेविस ने इंडियास्पेंड को बताया है।

डेविस कहते हैं, "भारत ने व्यापक भूख से बचने के लिए कैलोरी उत्पादन को प्राथमिकता देने के लिए अच्छा प्रदर्शन किया है, लेकिन यदि देश सभी और पर्यावरणीय स्थिरता के साथ बेहतर स्वास्थ्य प्राप्त करना चाहता है तो देश को पोषण और पर्यावरणीय प्रभाव को समझना होगा और इसके अनुरूप काम करना होगा ।"

(बाहरी एक स्वतंत्र लेखक और संपादक हैं, राजस्थान के माउंट आबू में रहती हैं।)

साभार: इंडियास्पेंड



     

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