अम्बेडकर के विचार आज बेहद प्रासंगिक हो गए हैं

Dr SB Misra | Jun 29, 2018, 09:57 IST
14 अप्रैल को देश भर में डॉ भीमराव अम्बेडकर की जयंती मनाई जाती है। भीमराव अम्बेडकर को बाबा अम्बेडकर के नाम से भी जाना जाता है।
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डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर कानून के ज्ञाता होने के साथ एक पक्के राष्ट्रवादी थे, यह बात इतिहासकार दुर्गादास ने अपनी पुस्तक 'इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर' में पृष्ठ 236 पर लिखी है "ही वाज़ नेशनलिस्ट टू द कोर"। उनका एक बयान कि बकरियों की बलि चढ़ाई जाती है, शेरों की नहीं, बहुत कुछ कहता है। उनकी सबसे बड़ी चिन्ता थी भारत के दलितों और अछूतों को सशक्त बनाकर समाज में सम्मान दिलाना। इस विषय पर उन्होंने किसी से समझौता नहीं किया।

जब 1932 में अंग्रेजी हुकूमत दलितों के लिए अलग मतदाता सूची और मतदान व्यवस्था करके हिन्दू समाज को बांटना चाहती थी तो अम्बेडकर ने मदन मोहन मालवीय और गांधी जी से मिलकर समझौता किया जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। अम्बेडकर ने हिन्दू कट्टरता से खिन्न होते हुए भी विराट सनातन सोच से बाहर जाने की कभी नहीं सोची। बौद्ध धर्म उसी सोच का अंग है।

आजादी की लड़ाई के अन्तिम दिनों में मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा कि मुसलमानों को अपना अलग देश चाहिए, चाहे जो कीमत चुकानी पड़े। महात्मा गांधी का निश्चित मत था कि भारत का बंटवारा किसी हालत में नहीं होना चाहिए चाहे जिन्ना को पूरे भारत का प्रधानमंत्री बनाना पड़े। अम्बेडकर का सोचना था कि यदि बंटवारा होता है तो दंगे और खूनखराबा हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त होना चाहिए। दुनिया में अन्य देशों के बंटवारे का ज्ञान उन्हें था, जहां इतना खून खराबा नहीं हुआ।
बंटवारा रोकने की बात नहीं बनी और जवाहर लाल नेहरू, मुहम्मद अली जिन्ना और वाइस राय माउन्टबेटेन ने शिमला में बैठकर पाकिस्तान निर्माण की योजना स्वीकार कर ली। नेहरू भारत के मजहबी बंटवारे के बाद जिन्ना को पाकिस्तान देकर भी शेष भारत में ऐसी व्यवस्था चाहते थे जैसे बंटवारा हुआ ही नहीं।

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बंटवारे का जो भी फार्मूला सोचा होगा, भारत का एक चौथाई क्षेत्रफल पाकिस्तान के रूप में चला गया, शायद मुसलमानों की आबादी के अनुपात में। अम्बेडकर की आशंका सही निकली और बंटवारे के बाद भी दंगे समाप्त नहीं हुए। अम्बेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से अपने त्याग पत्र के भाषण में खुलकर कहा था कि पाकिस्तान में छूट गए हिन्दुओं और विशेष कर दलितों का जिक्र करते हुए कभी भी नेहरू को नहीं सुना।

अम्बेडकर कुशाग्र बुद्धि और व्यावहारिक सोच के धनी थे। उन्होंने दुनिया के अन्य देशों से सीख लेकर ग्रीस, टर्की और बुल्गैरिया का उदाहरण देते हुए बंटवारे के बाद आबादी की अदला-बदली के पक्ष में विचार रखे थे। उन्होंने यह बात अपनी पुस्तक 'पाकिस्तान ऑर दि पार्टीशन आफ इंडिया' में लिखी है।

यदि अम्बेडकर की बात मान ली जाती तो आबादी की शान्तिपूर्ण अदला-बदली हो सकती थी, नेहरू ऐसा नहीं चाहते थे। एक तरफ जिन्ना की बात मान ली, दूसरी तरफ बंटवारे का तरीका अपना चलाया, जिससे बेतहाशा खून खराबा हुआ। आज भी बटवारे की मानसिकता बची है वर्ना ओवेसी महोदय यह न कहते कि मुसलमान केवल मुस्लिमों को वोट दें। यही तो था जिन्ना का सेपरेट एलक्टोरेट और बंटवारे की पहली सीढ़ी।

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अम्बेडकर ने समाज में छुआछूत, ऊंच नीच और गैर बराबरी देखी ही नहीं, उसे जिया था। नेहरू की कांग्रेस 60 साल तक अम्बेडकर के आरक्षण को भूनाती रही, लेकिन उनके राष्ट्रवाद को नहीं समझा। अम्बेडकर को हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों में अनेक समानताएं लगती थीं और उन्होंने स्वयं 'हिन्दू धर्म का मिनिमम डैमेज' करते हुए बौद्ध धर्म स्वीकार किया था।
अम्बेडकर ने दलित समाज से कहा था कि जिन्ना को इसलिए अपना मत समझो कि वह हिन्दू विरोधी हैं। जब जरूरत होती है तब दलितों को हिन्दुओं से अलग मान लेते हैं और जब जरूरत नहीं तो उन्हें हिन्दुओं के साथ मान लेते हैं। मत समझो कि वे तुम्हारे मित्र हैं। उन पर विश्वास मत करो। अम्बेडकर ने कहा था पाकिस्तान में छूट गए दलितों से, "जैसे भी हो सके भारत आ जाओ" जिसका निहितार्थ था धर्मान्तरित होना पड़ा हो फिर भी आ जाओ।

अम्बेडकर और नेहरू में गहरे मतभेद हो गए थे और उन्होंने 1951 में नेहरू कैबिनेट से त्याग पत्र दे दिया था। त्याग पत्र देने के बाद उन्होंने संसद में जो भाषण दिया था, उसमें त्याग पत्र के जो कारण बताए थे, उनमें प्रमुख थे मुसलमानों की सुरक्षा की बहुत चिन्ता और दलितों की सुरक्षा के विषय मे चिन्ता न होना, नेहरू सरकार में दलितों को नौकरियों में भेदभाव, विदेश नीति जिसने भारत को अलग-थलग कर दिया, बंगाल के हिन्दुओं की दुर्दशा, जिसे श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी महसूस करते थे और नेहरू कैबिनेट से त्यागपत्र दिया था।

अम्बेडकर वास्तव में समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे और कश्मीर के मामले में धारा 370 का विरोध करते थे। अम्बेडकर के नाम की ढपली बजाने वाले उनके विचारों को जानते तो होंगे लेकिन मानते नहीं। आज उनके विचारों को जानने और मानने की आवश्यकता है।

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