दिल्ली के गली-मोहल्ले के बदलते नामों का इतिहास

Nalin ChauhanNalin Chauhan   4 Feb 2018 3:42 PM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
दिल्ली के गली-मोहल्ले के बदलते नामों का इतिहाससाभार: इंटरनेट।

दुनिया में बहुत कम शहर ऐसे हैं जो दिल्ली की तरह अपने दीर्घकालीन, अविच्छिन्न अस्तित्व के साथ प्रतिष्ठा का दावा कर सकें। दिल्ली के इतिहास का एक सिरा भारतीय महाकाव्य महाभारत के समय तक जाता है, जब पांडवों ने इंद्रप्रस्थ का निर्माण किया था। तब से लेकर अब तक दिल्ली ने अनेक राजाओं और सुल्तानों सहित सम्राटों के समय को बदलते देखा है। तब से लेकर आज तक इस शहर में बदलते नामों का सफर जारी है।

पहली दिल्ली लाल कोट (1000), दूसरी दिल्ली सिरी (1303), तीसरी दिल्ली तुगलकाबाद (1321), चौथी दिल्ली जहांपनाह (1327), पांचवी दिल्ली फिरोजाबाद (1354), छठी दिल्ली दीनपनाह (1533), सातवीं दिल्ली शाहजहांनाबाद (1639) और आठवीं दिल्ली नई दिल्ली (1911) थी। ये सात नाम आज भले ही दिल्ली के खंडहर हो चुके भवनों के साथ मिट गए हैं पर लोक-स्मृति में आज भी जिंदा है।

तोमर दौर की एक मशहूर कहावत है, किल्ली तो ढिल्ली भई, तोमर हुए मतिहीन। देश के इतिहास में शायद ही कोई दूसरा शहर इतनी बार बसा और उजड़ा, जितनी दिल्ली। स्वतंत्र भारत की नई दिल्ली में आज शॉपिंग मॉलों और गगनचुंबी इमारतों के साए में पुराने नाम मिट रहे हैं। आज अँग्रेजी स्लेंग नामों (अँग्रेजी में अर्थहीन तुकबंदी) के फेर में जैसे एमजी रोड महात्मा गांधी का अल्पनाम है या फिर महरौली-गुड़गांव का यहीं साफ नहीं है। ब्रिटिश गुलामी से एक स्वतंत्र राष्ट्र की राजधानी बनी नई दिल्ली के आज तक के सफर में अनेक ऐतिहासिक नाम, स्थान और भवन इतिहास बन चुके हैं यानी अब उनका कोई नामो-निशान तक नहीं है।

लाल कोट

ये भी पढ़ें- दिल्ली की देहरी : जब दिल्ली वालों ने अपनाया, पाइप वाला पानी 

दिल्ली में ऐसे अनेक स्थानों के नाम नदी, जलधारा, पहाड़ी, घाटी, वनस्पति और वन-से संबंधित थे वो खत्म हो गए हैं। सदियों तक दिल्लीवासियों को गर्मी और लू से बचाने का काम करने वाला दिल्ली के रिज का जंगल आज तीन छोटे-छोटे हिस्सों में बंट गया है। पर एक समय में यह पहाड़ियों की एक विशिष्ट श्रृंखला थी। आज के वसंत विहार में मुरादाबाद पहाड़ी, मध्य दिल्ली में पहाड़गंज और पहाड़ी धीरज, राष्ट्रपति भवन की रायसीना पहाड़ी और जामा मस्जिद का आधार भोजला पहाड़ी सहित आनंद पर्वत की स्मृति ही शेष है।

अंडरहिल रोड नाम बेशक इंग्लैंड के किसी काउंटी (अंग्रेज गांव) की गली का नाम लगता हो पर असलियत में यह उत्तरी दिल्ली में रिज से जुड़ी है। गुलाम वंश के सुल्तान बलबन के मकबरे के सामने की चट्टानों पर बना रहस्यमय अमीर खान का मकबरा होने के कारण रिज के जंगल के टुकड़े सुरक्षित हैं। वहीं पहाड़ी की चोटी पर प्राचीन कालका देवी का मंदिर और मलय मंदिर (गौर करने वाली बात यह है कि यहां आने वाली सार्वजनिक परिवहन की बसों पर मलाई मंदिर लिखा है न कि मलय, जिसका संस्कृत में अर्थ पहाड़ होता है) हैं।

चौदहवीं सदी की दिल्ली में रिज एक घना जंगल होती थी, जिसे अंग्रेजों के जमाने में साफ करके बगीचों में बदला गया। मध्यकालीन दिल्ली में जंगली शिकार के लिए जहान-नुमा (यानी दुनिया की तस्वीर, जिसका नाम आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की पत्नी के नाम पर कमला नेहरू रिज रखा गया) रिज के जंगल का क्षेत्र पालम से मालचा तक दो हिस्सों में बंटा हुआ था।

ये भी पढ़ें- दिल्ली की देहरी : “दिल्ली” नाम का राज बतलाते प्रस्तर अभिलेख

सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के कुशक (शिकारगाह-आरामगाह) से अंग्रेज़ वास्तुकार लुटियन की नयी दिल्ली में कुश्क रोड का नाम पड़ा। दिल्ली के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान राय किला पिथौरा के पूर्वी हिस्से के जंगल में किसी समय में कोई शिकारगाह होगी, जिससे तुगलककालीन कुशक नाला को उसका नाम मिला। आज भी इसे रिज के पश्चिमी भाग से दक्षिण की ओर आते हुए और फिर सतपुला से उत्तर की ओर निजामुद्दीन की ओर बढ़ते हुए देखा जा सकता है।

1883 के अंत तक दिल्ली में असमान भूमि, जलधाराओं और यमुना नदी में उफनकर गिरने वाले नालों का वर्णन है। दिल्ली के भूदृश्य में गड्डे और निचली जमीन थी जहां पानी झील के रूप में जमा हो जाता था, जहां पशु-पक्षी एकत्र होते थे तो महिलाएं घड़ों में तो भिश्ती अपनी मश्क़ों में अपनी-अपनी जरूरत का पानी भरते थे।

ऐसी ही एक झील, नजफगढ़ की झील थी जबकि पानी का एक बड़ा स्त्रोत ताल कटोरा (कटोरे के आकार का तालाब) था तो वही फ़रीदाबाद के पास एक सूरजकुंड (सूर्य कुंड) भी था। बाद के दौर में दिल्ली की पानी की बढ़ती जरूरत के लिए बड़े तालाब खोदे गए और पानी को सहेजने के लिए हौद-हौज शम्सी, हौज खास और हौज रानी (हौज काजी के शाहजहांनाबाद से भी पुराना होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता) बनवाए गए। आधुनिक दौर में, पानी के इन पुराने स्रोतों को जमीन की गरज से समतल करने के लिए मनमाने ढंग से भरा गया है। शायद इसी का नतीजा है कि इनमें से दो हौज सूख गए हैं।

ये भी पढ़ें- दिल्ली की देहरी : इंद्रप्रस्थ का महाभारत सूत्र है, पुराना किला

कुदरती पानी को सहेजने और आबादी की प्यास बुझाने के लिए दिल्ली में बावलियां बनाई गईं। दिल्ली में लोग सूखी, गंधक और उग्रसेन की बावली जैसे पानी के ठंडे ठिकानों पर जुटते थे। खारी बावली (खारे पानी की बावली) से एक स्थान का नाम हुआ। तो कुंओं के नाम पर लालकुंआ और धौला कुंआ तो विकासपुरी के नजदीक धौली प्याऊ के नाम पर जगह बनी। राजस्थानी में धौला का मतलब सफ़ेद होता है। यानि साफ पानी वाला कुंआ, धौला कुंआ तो प्याऊ, धौली प्याऊ।

आज के कनाट प्लेस के नजदीक पचकुइयां (पांच कुइयां, कुएं से छोटी कुई होती है) रोड में पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने वाला एक तंत्र था। तेरहवीं सदी के अंत में राजधानी में नहरों का जाल बिछाया गया। इसी योजना से दो नहरें, नजफगढ़ नहर और बारापूला नहर, बनीं जबकि सत्रहवीं सदी में मुगल शहर शाहजहांनाबाद में अली मर्दन नहर, सदात खान नहर और महल यानी लाल किला में नहर-ए-बहिश्त जोड़ी गई। इतना ही नहीं, पुलों के नाम पर स्थानों के नाम रखे गए। तुगलक कालीन सतपुला, मुगल कालीन अठपुला और बारापुला का नामकरण उनके मेहराबों की गिनती पर किया गया।

जब अंग्रेजों ने 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के बाद दिल्ली पर दोबारा कब्जा जमाया तो उन्होनें शाहजहांनाबाद के चारों ओर दीवार का निर्माण करवाया तब बद्रू गेट का नाम मोरी गेट (जहां पानी की निकासी के लिए मोरी होती थी, यानी छेद था) हो गया क्योंकि शहर में नहर यही से घुसती थी। यमुना के किनारे बनाए गए घाटों में निगम बोध घाट और राजघाट से प्रमुख थे। दरियागंज, दरिया का अर्थ नदी और गंज का मतलब बाजार यानी नदी के किनारे का बाजार के तुगलक बाजार में एक स्थान पर नावें अपना सामान उतारा करती थी।

ये भी पढ़ें- दिल्ली की देहरी: दिल्ली का दिलबसा कवि, ग़ालिब

आज नहरें सूख कर नाला बन चुकी है और रख-रखाव के अभाव में उनका उपयोग कचरे और प्लास्टिक को ठिकाने लगाने वाले भराव स्थलों के रूप में होने लगा है जबकि पुल (जैसे तीस हजारी अदालत के पीछे पुल-मिठाई) सिर्फ नाम के रह गए हैं जो किसी मंजिल तक नहीं पहुँचते।अगर शहर से हटकर दिल्ली देहात को देंखे तो वहाँ के अनेक गांवों के नाम जैसे महरौली, होलंबी, कोंडली, मुंडेला, ओखला, जसोला, झड़ौदा, मालचा, मुनिरका, करकरी, कड़कड़डूमा, कराड़ी, धूलसिरस, पालम और हस्ताल का स्थानीय बोली में अपना विशेष अर्थ है।

दिल्ली में अधिकतर मामलों में आबादी की बसावटों को नाम और पहचान, किसी राजा या सुल्तान के जमीन के टुकड़े को दान या खैरात में देने के बाद मिली। इनमें से अधिकतर पंद्रहवीं सदी के बाद के हैं जब लोदी वंश के सुल्तानों ने दिल्ली में खालसा (शाही जमीन) की जमीनों को अपने सरदारों का सर्मथन हासिल करने के लिए बांटा। ये इनामी जमीनें सुल्तान के लिए अलग से मालगुजारी का साधन थीं।

इनकी ज़मीनों की पहचान संस्कृत भाषा के शब्द ’पुर‘ के प्रत्यय से की जा सकती थीं। ’पुर‘ का शाब्दिक अर्थ बसावट होता है। इस तरह, आबादी वाली इन बसावटों के नाम किसी एक व्यक्ति विशेष के नाम पर रखे गए थे जैसे बदर, मोहम्मद, महिपाल, मसूद, बाबर, हुमायूं, अली, बेगम, जयसिंह। यहाँ तक की नई दिल्ली का जंगपुरा, जहां एक मेट्रो स्टेशन भी है, भी बीसवीं सदी का एक ‘पुर’ है। यह एक अंग्रेज उपायुक्त श्री यंग के नाम पर है, जिनके कार्यकाल में रायसीना गांव में राष्ट्रपति भवन के बनने की वजह से गांव के विस्थापित लोगों को जहां पुर्नवासित किया गया, उस जगह का नाम गांववालों ने श्री यंग के नाम पर रख दिया।

ये भी पढ़ें- दिल्ली की देहरी: लुटियंस दिल्ली में रजवाड़ों के भवन

इसी तरह, दिल्ली देहात के कुछ गांवों का नाम अधिकारियों के नामों पर थे जैसे शाहपुर या वजीरपुर। राजपूत वीर राय सीना के नाम पर बसा गांव, बाहरवीं सदी के राय पिथौरा की याद दिलाता है। दिल्ली के मशहूर सूफी संत निजामुद्दीन औलिया की खानकाह गियासपुर गांव में थी, जिसका नाम सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक के नाम पर था। गयासुद्दीन तुगलक का औलिया का छत्तीस का आंकड़ा था।

आधुनिक नयी दिल्ली में कम से कम एक सौ गांव ऐसे होंगे जिनके नाम के पीछे ‘पुर’ शब्द लगा है। ऐसे गांवों की संख्या इससे अधिक भी हो सकती थीं पर शहरीकृत गांव बनने के बाद दिल्ली विकास प्राधिकरण और दिल्ली नगर निगम के कारण अब ऐसे गांवों के नाम बदल गए हैं। इसी तरह, देहात में मुख्य गांव को कलां (मतलब बड़ा) और नए बसे हुए गांव को खुर्द (मतलब छोटा) कहा जाता था। जैसे दरीबाकलां और दरीबाखुर्द। इसी तरह, समाज में जातियों के अस्तित्व का भी गाँव के नाम से पता चलता था जैसे सादतपुर मुसलमान और सादतपुर गुर्जरान। इसी तरह, ‘आबाद’ फारसी प्रत्यय है, जिसका मतलब होता है जो जगह लोगों से आबाद हो। जैसे, गाजियाबाद, फरीदाबाद, मुरादाबाद और शाहजहांनाबाद। इनके उपसर्ग व्यक्तियों के नामों पर थे।

‘कोट’ संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ होता है किला और उसमें ‘ला’ शब्द का प्रत्यय लगने से उसका मतलब हो जाता है शहर या किलेबंदी वाला शहर। सभी राजपूत किलों की तरह, तोमरों का लालकोट दिल्ली की दक्षिण रिज की ऊंचाई पर बना था। सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के विशाल शहर के उत्तरी सिरे पर किलेबंदी वाला शहर कोटला फिरोजशाह बना हुआ था। यह शहर यमुना नदी से महरौली तक फैला हुआ था।

ये भी पढ़ें- दिल्ली की देहरी : परकोटे वाली दिल्ली की चारदीवारी

तुगलक वंश के बाद दिल्ली पर काबिज हुए सैयद वंश के शासकों ने उनके किले को मध्य में कोटला मुबारकपुर के रूप में स्थापित किया।दिल्ली के इतिहास में अरबी शब्द किला का पहला संदर्भ हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के किले, किला राय पिथौरा के रूप में मिलता है। हुमायूं का दीनपनाह (दीन के लोगों की पनाहगाह) उन्नीसवीं सदी में पुराना किला हो गया वहीं शाहजहां का किला मुबारक, लालकिला बन गया। गढ़ या गढ़ी, किले के लिए संस्कृत शब्द, का प्रत्यय किशनगढ़, वल्लभगढ़, नजफगढ़, हिम्मतगढ़, मैदानगढ़ी में दिखाई देता है।

इसी तरह, दिल्ली के किलों के दरवाजे बाहर की ओर अभिमुख वाले थे और इनमें से अधिकतर के नाम-दिशा=सूचक थे। जैसे बदायूं, अजमेर, लाहौर, कश्मीर, दिल्ली। शाहजहांनाबाद की दक्षिण की ओर की दीवार का दरवाजा दिल्ली दरवाज इसलिए कहलाता था क्योंकि शाहजहांनाबाद के निवासी महरौली को देहली या दिल्ली पुकारते थे।उर्दू शब्द का एक अर्थ ‘लश्कर’ यानी सेना से है सो उर्दू बाजार (फिरोजशाह तुगलक के शहर का एक मोहल्ला या पड़ोस जो कि बाद में शाहजहांनाबाद में मिला लिया गया) और शाहजहां के किले के बाहर जैन सिपाहियों के लिए बने मंदिर के लिए उर्दू मंदिर कहलाया। शहर की दीवार से बाहर बने थोक की वस्तुओं के बाजार बेशक मुहल्ले बन गए पर उनके नाम बदस्तूर जारी रहें जैसे रकाबगंज, मलका गंज, पहाड़ गंज और सब्जी मंडी।

अपवादस्वरूप कुछ मामलों में गंज का मतलब बाजार नहीं भी होता था जैसे ट्रीविलयन गंज और किशनगंज। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में, ट्रीविलयन नामक एक अंग्रेज ने ट्रीविलयन गंज तो दीवान किशनलाल ने किशनगंज को बसाया था। शाहजहांनाबाद का दक्षिणी भाग अलीगंज कहलाता था जो कि सफदरजंग की जागीर था और राजा का बाजार (शिवाजी स्टेडियम और हनुमान मंदिर के बीच में) जयपुर राजपरिवार की संपत्ति था यह हिस्सा बाद में अंग्रेजों की नई दिल्ली का हिस्सा बना।

ये भी पढ़ें- दिल्ली की देहरी : विपदा को ही भला मानने वाले रहीम

पुराने जमाने में दिल्ली में यात्रियों और व्यापारियों की सुविधा के लिए अनेक सराय बनी थीं, जहां वे अपने जानवरों को बांधकर रात में आराम करते थे। शाहजहांनाबाद में इस तरह की सरायों के नाम थे जैसे युसूफ, शेख, बेर, काले खान, बदरपुर, जुलैना (औरंगजेब के बेटों की यूरोपीय शिक्षिका के नाम) रूहेला और बादली। शहर में चांदनी चौक के करीब एक खूबसूरत ढंग की इमारत में बनी सराय मुगल शहजादी रोशनआरां के नाम पर थी। इस सराय का नाम लोकस्मृति से इसलिए मिट गया क्योंकि सन् 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली पर दोबारा कब्जे के बाद उस जगह टाउन हॉल बनाया।

इसी तरह, आज शाहजहांनाबाद में चार हजार या उससे अधिक कटरों (सटे हुए बाजार) की कहानी भी मजेदार है क्योंकि इनमें से अधिकांश सरकार के स्वामित्व में हैं। देश विभाजन से पहले इनकी संख्या कम ही थी जैसे कश्मीरी कटरा और नील कटरा दो जाने-पहचाने नाम हैं। तो फिर इनकी संख्या में यकायक इतना इजाफा कैसे हुआ? सन् 1947 के बाद पाकिस्तान जाने वाले मुसलमान परिवारों की हवेलियों में पाकिस्तान से निकाले गए हिंदू परिवारों ने आकर डेरा जमाया। इन्होंने अपने नए ठिकानों का घर के साथ कामकाजी यानी दोहरा प्रयोग किया। आजादी के तुरंत बाद भारत सेवक समाज की ओर से किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, इनका कटरों के रूप में वर्गीकरण किया गया और तब से उन्हें इसी नाम से पुकारा जा रहा है।

जब अंग्रेजों ने सन् 1911 में कलकत्ता से दिल्ली अपनी राजधानी को स्थानांतरित किया तो उसे उन्होंने साम्राज्यों की नई राजधानी के रूप में प्रचारित किया था। वैसे विंडसर प्लेस का नाम दिया गया और किसी ने उसे आठवीं दिल्ली यानी शाहजहांनाबाद की उत्तराधिकारी राजधानी अथवा जार्जटाउन का नाम नहीं दिया। इसी तरह, इंगलैंड की तर्ज पर किंग जॉर्ज एवेन्यू और क्वींस एवेन्यू की नकल करते हुए किंग्स-वे और क्वींस-वे का नाम रखा गया। जिन्हें आजादी के बाद राजपथ और जनपथ का नाम दिया गया।

ये भी पढ़ें- दिल्ली की देहरी: जब पहली बार दिल्ली में गूंजी थी रेल की सीटी

अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य की वैधता को साबित करने के लिए नई दिल्ली के सड़क मार्गों के नाम पूर्व भारतीय शासकों जैसे अशोक, पृथ्वीराज, फिरोजशाह, तुगलक, अकबर और औरंगजेब के नाम रखें। यहां तक कि अंग्रेजों ने फ्रांसिसी डुप्लेक्स और पुर्तगाली अलबुकर क्यू के नाम भी सड़कों के नाम हैं। नई दिल्ली के लिए जयपुर के राजा ने अंग्रेजों को जमीन (जयसिंहपुरा और रायसीना) दी थी इसलिए दो सड़कों के नाम जयपुर के कछवाह वंश के राजा मानसिंह और जयसिंह के नाम पर भी रखे गए। इसी तरह, अंग्रेज वास्तुकार, इंजीनियर और अधिकारियों के नाम पर भी सड़कों के नाम रखें गए, जिनमें हैली, राउज और कीलिंग सहित लुटियन के शामिल हैं। मजेदार बात है कि जहां हैली, राउज और कीलिंग के नाम चौड़ी सडकें हैं वहीं उनकी तुलना में लुटियन के नाम संकरी सड़क है।

ताजा अपडेट के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए यहां, ट्विटर हैंडल को फॉलो करने के लिए यहां क्लिक करें।

 

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.