कामन सिविल कोड साल दो साल के लिए चुनावी स्टंट तो नहीं

Update: 2016-07-03 05:30 GMT
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मोदी सरकार ने समान नागरिक संहिता लागू करने की संभावना तलाशने के लिए लॉ कमीशन की सलाह मांगी हैं, वह भी जब माननीय उच्चतम न्यायालय ने पूछा कि इसे लागू करने के लिए क्या कर रहे हैं। यह काम भारत की आजादी के तुरन्त बाद आरम्भ होना चाहिए था। पहले भी उच्चतम न्यायालय ने अपना कर्तव्य निभाते हुए यह सवाल केन्द्रीय सरकारों से पूछा था लेकिन वे बगलें झांकती रहीं। अच्छा है मोदी सरकार ने अपना कर्तव्य निभाने की दिशा में कम से कम एक कदम तो बढ़ाया है, मंजिल तक पहुंचने में बहुत कठिनाइयां हैं ऐसा प्रशासन ने कहना आरम्भ कर दिया है। संविधान निर्माता अम्बेडकर का अपमान आखिर कब तक करोगे।  

जब मुहम्मद अली जिन्ना, लियाकत अली और सुहरावर्दी ने भारत के दो टुकड़े करके मुसलमानों के लिए पाकिस्तान हासिल कर लिया तो उन्होंने अपने नागरिकों के लिए वहां शरिया कानून लागू कर दिए। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी अपने तमाम नागरिकों के लिए शरिया कानून चलने दिया और हिन्दुओं पर हिन्दू कोड बिल लागू किया। संविधान निर्माता अम्बेडकर का कानून था संविधान की धारा-44 में उल्लेखित समान नागरिक संहिता। दोनों देशों में कमोबेश शरिया कानून लागू हो गए। कई मुस्लिम धर्मगुरु ठीक ही कहते हैं मुसलमानों से अधिक हिन्दू समाज के लोग कामन सिविल कोड का विरोध करते हैं, शायद राजनैतिक कारणों से।

समान नागरिक संहिता यानी सभ्य समाज का कानून, लागू कराना जवाहर लाल नेहरू की जिम्मेदारी थी। नेहरू ने अम्बेडकर के माडर्न संविधान को पूरी तरह लागू करने का प्रयास ही नहीं किया। जवाहर लाल नेहरू तो संविधान सभा के सदस्य भी थे और यदि संविधान को पूरी तरह लागू करना ही नहीं था तो दिखावे के लिए धारा-44 के रूप में संविधान में कामन सिविल कोड को रखा हीं क्यों। जहां तक मुझे याद है भारतीय मुसलमान वर्ष 1956 तक पर्सनल लॉ के लिए उद्वेलित नहीं थे क्योंकि वे मानकर चल रहे थे सेकुलर भारत में इसकी गुंजाइश नहीं है। उस समय भारत का मुसलमान यूनिफार्म सिविल कोड राजी खुशी स्वीकार कर लेता यदि नेहरू ने ऐसे कानून की पेशकश की होती।

हमें ध्यान रखना चाहिए कि सभ्य समाज में सभी के लिए एक जैसा कानून होता है जिसमें बेडरूम छोड़कर कुछ भी पर्सनल नहीं होता। तमाम कानून जैसे आबादी पर नियंत्रण, तलाक सहित महिलाओं की दशा, बच्चों को उपयोगी शिक्षा, बढ़ती आबादी के लिए पोषण, टीकाकरण जैसे सैकड़ों विषयों का सरोकार पूरे समाज से है, जिम्मेदारी पूरे समाज की है। इन कार्यक्रमों में पैसा सबका खर्च होता है। ऐसी व्यवस्थाओं को पर्सनल नहीं कहा जा सकता। यदि हम सेकुलरवादी और समाजवादी व्यवस्था का दम भरते हैं तो समाज को टुकड़ों में बांटकर नहीं देख सकते। लेकिन मोदी सरकार भी समाज को सम्पूर्णता में देख सकेगी इसमें बहुत सन्देह है । 

अस्सी के दशक में शाहबानो का प्रकरण बहुत मशहूर हुआ था जब उच्चतम न्यायालय ने तीन तलाक के बाद गुजारा मांगने वाली शाहबानो को गुजारा मंजूर कर दिया था और लगा था कि राजीव गांधी इतिहास रचेंगे। लेकिन गुब्बारे की हवा निकल गई और संविधान का संशोधन कर दिया गया। आखिर कामन सिविल कोड के विरोधी क्या चाहते हैं शाहबानो जैसी शरिया कानून की शिकार महिलाएं भारत के माथे पर कलंक बनकर घूमती रहें सड़कों पर। 

यह तो समझ में नहीं आता कि लोग कामन सिविल कोड का विरोध क्यों करते हैं। उनकी इबादत में खलल कोई नहीं डाल पाएगा और उनके खान-पान भोजन को कोई नहीं बदल पाएगा। तब विरोध क्यों? मनमाने तरीके से एक से अधिक शादियां करने के लिए, जितने चाहें बच्चे पैदा करने के लिए और उसके बाद सच्चर कमीशन के हिसाब से सबसे पिछड़ी जमात में खड़े होने के लिए? बहुत से मुस्लिम देशों ने शरिया कानूनों में बदलाव किया है और तमाम मुसलमान जो सेकुलर देशों में जाकर रहते हैं, शरिया के हिसाब से नहीं बिताते जीवन। अब देखना होगा क्या मोदी सरकार अखंड भारत की तरह कामन सिविल कोड का नारा भी भूल जाएगी या भारत को एक सभ्य कानून देकर जाएगी । 

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