बांस के झाड़ू बनाने को महिला ने बनाया रोजगार का जरिया

Update: 2018-11-22 09:09 GMT
बांस से झाड़ू बनाती महिलाएं

बबिता कुम्हारी मंडल, कम्यूनिटी पत्रकार

बाह्मनी (झारखंड)। झारखंड की कई ग्रामीण महिलाएं झाड़ू बनाने के काम को अपना रोजगार का जरिया बना रही हैं। बांस के झाड़ू बनाकर कई महिलाएं 1200-1500 रुपए महीने कमा रही हैं।

झारखंड में रांची से 55 किलोमीटर दूर सिल्ली प्रखंड के बाह्मनी गांव में रहने वाली गंगो देवी (35 वर्ष) अभी तक अपने पति वासुदेव नायक के साथ जंगल से लकड़ियां लाकर बेचने का काम करती थीं, लेकिन उससे घर का गुजारा नहीं हो पा रहा था। लेकिन आजकल वो जंगल के लकड़ियां लाने का काम छोड़ चुकी हैं और झाड़ू बनाती हैं।


इस बारे में बात करने पर गंगो देवी बताती हैं, " परिवार है और खेती भी नहीं थी तो घर चलाना मुश्किल हो रहा था, लेकिन समझ नहीं आ रहा था क्या करें। 2013 में मैं समूह (सखी मंडल) से जुड़ी। और वहां से 5000 रुपए का लोन लेकर झाडू बनाने का काम शुरु किया।"

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झाड़ू बनाने के लिए गंगो देवी गांव में ही बांस खरीदती हैं, जिन्हें फाडकर वो महीन-महीन तिल्लियां बनाती हैं। जिन्हें गूंथ (आपस में जोड़कर) कर वो झाडू बनाती हैं। बांस के बने होने के चलते ये काफी मजबूत होते हैं और पहाड़ी इलाकों में ज्यादा दिन तक चलते हैं।

बांस की टहनियों को आपस में जोड़ रही गंगो देवी आगे बताती हैं, "एक बांस 30-50 रुपए का खरीदते हैं। एक बांस से 3-4 झाडू बनते हैं और एक झाडू 25 से लेकर 45 रुपए तक बिक जाता है। अगर सारे झाडू बिक जाएं तो महीने में 1200-1500 रुपए मिल जाते हैं।'

जंगल के बीच बसे बाह्मनी के ज्यादातर लोग खेती बाड़ी और मजदूरी करते हैं। गंगो के काम में उनकी सास और पति भी साथ देते हैं। गंगों के गांव में अब कई समूह बन गए हैं। ये समूह झारखंड स्टेट लाइवलीवुड प्रमोशनल सोसायटी के तहत बनाए गए हैं। गंगो देवी के समूह का नाम बजरंगबली महिला समिति है।

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गांव में बने समूहों की बीओ अध्यक्ष (ग्राम समिति) लक्ष्मी देवी (23 वर्ष) बताती हैं, "हमारा गांव जंगल के बीच बसा है। यहां के लोग काफी गरीब हैं। समूह से जुड़ कई महिलाओं ने काम शुरु किए हैं। गंगो देवी ने 5 हजार रुपए का लोन लिया था, वो झाड़ू बनाकर जोन्हा बाजार में बेचती हैं। आने-जाने में किराया भाड़ा भी लगता है। अगर सारे झाड़ू बिक जाते हैं तो अच्छा रहता है।"

अपनी बात आगे बढ़ाते हुए लक्ष्मी देवी कहती हैं, ये पैसे बहुत ज्यादा तो नहीं हैं लेकिन कुछ न होने से कुछ तो बेहतर है।'  

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