पिछले दो दिनों में कई घटनाएं सामने आईं। एक तो 14 साल पहले घटी अहमदाबाद के गुलबर्ग की दर्दनाक घटना थी जिसमें काफी जन-धन की हानि हुई थी। कांग्रेस के सांसद एहसान जाफ़री और उनके परिवार वालों ने काफ़ी दर्द झेला है, बहुत कुछ गंवाया था। उस मामले में न्यायालय ने 24 को दोषी पाया और 36 को बरी किया। इस प्रकरण ने तूल इसलिए पकड़ा कि गुनहगारों को हिन्दू और पीिड़तों को मुसलमान के रूप में पेश किया गया। अभी हम 1947 के आगे बढ़ नहीं पाए हैं।
गुजरात के दंगे गोधरा कांड की प्रतिक्रिया थी या नहीं इसका फैसला अब नहीं हो सकता लेकिन गोधरा कांड भी कोई साधारण घटना नहीं थी और उस पर तुरन्त कार्रवाई की जरूरत थी। कार्रवाई के बजाय खूब राजनीति हुई और कारसेवकों के साथ कोई सहानुभूति नहीं दिखाई गई। यह ठीक नहीं था। रेल मंत्री के रूप में लालू यादव ने एक जांच कराई थी किसी बनर्जी द्वारा जिसमें इसे दुर्घटना बताया गया था। अब उस कांड का मुख्य आरोपी पकड़ा गया है और उसका फैसला कभी आएगा तो शायद सच्चाई सामने आए। अगर हमारे समाज के लोगों ने गोधरा कांड को अतिसामान्य घटना न समझा होता और उस समय के रेलमंत्री ने निष्पक्ष जांच कराई होती तो कड़वाहट को घटाया जा सकता था।
दूसरी बात सामने आई उस रिपोर्ट के रूप में जिसने बताया कि मुजफ्फरनगर के अख़लाक के घर में जो मांस रखा था वह वास्तव में गोमांस था। यहां भी हिन्दू और मुसलमान की दीवार सामने खड़ी की जा रही है। यदि किसी हिन्दू के घर में गोमांस रखा होता तो क्या उसे मार डालते। उत्तर पूर्व के प्रान्तों में कितनों को मारा है अब तक? यदि अखलाक ने बाजार से मांस खरीदा था और मान लें वह गोमांस निकला तो गुनाह किसका है, अखलाक का या उस कसाई का, जिसने गोवध किया था। यह कहना कि दिया गया मुआवजा लौटा लो और गोवध का मुकदमा चलाओ बचकानी दलील है। कौन साबित कर पाएगा अखलाक ने गोवध किया था। और क्या यह सच नहीं कि अखलाक मरा है तो उसके परिवार को गुजारा के लिए मदद देना अनुचित है क्या?
क्या मुसलमानों को अभी भी लगता है कि हिन्दू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते? और हिन्दुओं को लगता है भारत माता को खून-खच्चर कर दिया और मरहम पट्टी भी नहीं की। जब तक मज़हब के आधार पर अलग कानून होंगे, जातियों के आधार पर सुविधाएं होंगी और क्षेत्रों के आधार पर अलग व्यवस्था होगी, परिवार भाव आ ही नहीं सकता। मुसलमानों को अपने मन से निकालना होगा कि हम स्पेशल हैं अपना फैसला खुद करेंगे। हिन्दुओं को अपने मन से निकालना होगा कि हम मेजॉरिटी में हैं जो चाहेंगे करेंगे।
एक समझदारी की खबर आई है कि देश की 50000 मुस्लिम महिलाओं और पुरुषों ने प्रत्यावेदन दिया है कि तीन तलाक समाप्त होना चाहिए। यह समान नागरिक संहिता की दिशा में पहला कदम है। तीन तलाक कोई इस्लामिक व्यवस्था नहीं हैं, नहीं तो दुनिया के सभी मुस्लिम देशों में लागू होती। शायद इसी तरह और भी समझदारी के प्रस्ताव आएं दोनों ही समुदायों की ओर से, ऐसी आशा करनी चाहिए।