इंदिरा गांधी ने कुछ ऐसा इंतजाम कर दिया है कि चुनाव का सिलसिला बन्द होता ही नहीं। पहले केंद्रीय और प्रान्तीय चुनावों का एक साथ माहौल आता था फिर पांच साल तक शान्ति रहती थी। जबसे इन्दिरा गांधी ने केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों के चुनाव अलग-अलग कर दिए तबसे चुनाव प्रक्रिया अन्तहीन हो गई है। देश पर इसका आर्थिक बोझ अपनी जगह है, राजनेताओं की विषाक्त भाषा सुनते-सुनते जनता के कान पक जाते हैं। इसे पटरी पर नरेन्द्र मोदी ला सकें तो भ्रष्टाचार, हिंसा, जातीय विग्रह और प्रशासनिक बोझ में राहत देने वाली कमी आ सकती है।
अमर सिंह का बयान सुना, नया जोश है, बोले मथुरा के जवाहर बाग की घटना के लिए केन्द्र सरकार जिम्मेदार है, अजीत सिंह ने कहा कैराना के दंगे भारतीय जनता पार्टी ने कराए, अमित शाह ने कहा था कि मथुरा की घटनाओं के लिए शिवपाल यादव जिम्मेदार हैं। यदि यह सब सही है तो सीबीआई की जरूरत क्या है। अब तक कांग्रेस के दिग्विजय सिंह, आप के अरविन्द केजरीवाल, जदयू के नीतीश कुमार और राजद के लालू यादव जैसे लोग बेलगाम प्रखर आलोचना करते रहे, अब संख्या बढ़ रही है। आलोचक यह नहीं समझ पातें कि प्रशंसा और आलोचना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वर्तमान व्यवस्था में जनता कड़क सरकार चाहती है इसलिए किसी को तानाशाह कहने से कभी-कभी उसको लाभ मिलता है।
जब 2014 के चुनाव में मोदी के आलोचक उन्हें तानाशाह कहते थे तो भारत का नौजवान इसे दुर्गुण नहीं मानता था। लोग इन्दिरा गांधी को इसलिए पसन्द करते थे कि उनमें निर्णय लेने की क्षमता थी, लागू करने का बूता था भले ही वह तानाशाह बन गईं। मोदी का रथ दिग्विजय सिंह जैसे लोगों ने उसी दिन आगे बढ़ा दिया था जिस दिन मोदी के लिए फेंकू, हत्यारा, मौत का सौदागर जैसे शब्दों का प्रयोग आरम्भ हुआ। ये आलोचक यह नहीं समझते कि भारत की जनता अभद्र आलोचना पसन्द नहीं करती।
सोनिया गांधी ने मोदी को मौत का सौदागर तथा लालू यादव ने नरभक्षी कहा था, इरफान हबीब ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना आतंकवादी इस्लामिक संगठन आइसिस से की और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य अब्दुल रहीम कुरेशी ने राम का जन्मस्थान अयोध्या नहीं, पाकिस्तान का डेरा इस्माइल खां बताया परन्तु सरकारी पक्ष को इन सब को नजरअन्दाज करना था, ईंट का जवाब पत्थर से नहीं देना था। बात-बात में मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की गिरिराज सिंह की सलाह की जरूरत नहीं, वह अब सम्भव भी नहीं है।
मोदी जब 125 करोड़ भारतीयों की बात कर रहे थे तो मुस्लिम समुदाय को भी अच्छा लग रहा था और वह तोगड़िया, साक्षी महराज, महंत अवैद्यनाथ और साध्वी निरंजन को नजरअंदाज कर सकता था लेकिन जब सरसंघचालक मोहन भागवत ने दिल्ली चुनाव के समय एलान कर दिया कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और बिहार चुनाव के समय कहा आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए और मोदी मौन रहे तो मुसलमानों और दलितों ने समझा कि यह मोदी द्वारा स्वीकृति का लक्षण है। सरकार का पक्ष देर से साफ हुआ और मुस्लिम समाज ने सब तरफ जाने वाले रास्ते छोड़ अपने कदम केजरीवाल और नीतीश कुमार की तरफ बढ़ा दिए। आसाम में कुछ डैमेज कन्ट्रोल हुआ है।
कुछ लोगों को अचानक हिन्दू राष्ट्र बनाने, गोहत्या रोकने, मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की जल्दी मच गई, मानो इससे अधिक वोट मिल जाएंगे। कुछ लोगों ने सोचा सरकार हिन्दुत्व के नाम पर बनी है और सबको हिन्दू बनाने में लग गए। यदि सभी ने तिलक लगा कर कह भी दिया कि हम हिन्दू हैं तो क्या अजूबा हो जाएगा। विरोधी दलों की बात अलग है लेकिन सत्तासीन लोगों द्वारा संविधान की लक्ष्मण रेखा लांघने का मतलब होगा एनार्की। एक केन्द्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ने राम भक्तों को रामजादा और बाकी को हरामजादा कहकर मोदी विरोधियों की संख्या बढ़ा दी। चुनाव प्रचार के समय गिरिराज सिंह का यह कहना कि शाहरुख खान पाकिस्तान चले जाएं ठीक नहीं था।
चुनाव प्रचार में मोदी ने कहा था कि संसद चलाने के लिए हमें दूसरों की आवश्यकता नही पड़ेगी परन्तु देश चलाने के लिए सबकी जरूरत होगी। देखना है कि संघ परिवार मोदी को देश चलाने देगा या फिर केवल संसद चलाने देगा। लोगों को समझना होगा कि मोदी के विकास मंत्र में ही समस्याओं का हल है।