मेरा बेटा शैलेश 16 दिन के लिए अमेरिका गया था और हम उससे बिना खर्चा रोज बात कर पाते थे, पोता भी अपना प्रोजेक्ट लेकर अमेरिका जाने वाला है और उसे स्काइप पर बात करने का शौक है जिसमें लगता ही नहीं हम इतनी दूर हैं। दो साल पहले मेरा दूसरा बेटा और बहू ग्रीस व टर्की घूमने गए थे और मेरा परिवार उनसे ऐसे बात कर लेता था मानो सामने बैठे हों। शहरवालों ने गाँववालों के लिए एक नई मंजिल बना दी है जहां तक पहुंचना होगा। सचमुच दुनिया छोटी हो गई है।
समाचार भेजने के लिए तरह-तरह के तरीके अपनाए जाते रहे हैं। सत्तर के दशक में मध्यप्रदेश के आदिवासी बस्तर इलाके में भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण करते हुए एक रात कैंप से देखा कि एक पहाड़ पर जोर-जोर से नगाड़ा बज रहा था। यह कोई नौटंकी का नगाड़ा नहीं था बल्कि जमात को इकट्ठा करने के लिए बजाया जा रहा था। एक-दूसरे अवसर पर पहाड़ी पर आग जलते और नगाड़ा बजते देखा। यह क्या एक पहाड़ी से दूसरी और दूसरी से तीसरी पहाड़ी पर आग जलाकर नगाड़े बजने लगे। थोड़ी ही देर में पूरे इलाके में समाचार पहुंच गया। लोग इकट्ठे हो गए थे। न चिट्ठी, न टेलीफोन और न ई-मेल।
काफी समय तक पक्षी भी डाकिए का काम करके मनुष्य की मदद करते रहे हैं। तोता-मैना के किस्सों में बहुतों ने हीरामन तोता का नाम सुना होगा जो प्रेमपत्र पहुंचाया करता था। सुना है पाकिस्तानी कबूतर भारत से खुफिया जानकारी ले जाया करते थे औ ऐसा ही एक कबूतर भारतीय जेल में बन्द है।
उत्तर प्रदेश में आजादी के पहले सरकारी और गैरसरकारी पत्र पहुंचाने के लिए हलकारे होते थे। हलकारे के कंधे पर बल्लम और बल्लम से लटकते हुए घुंघरू रहते थे। खेतों की मेड़ों पर दौड़ते हुए जब हलकारा निकलता था तो लोग घुंघरू की आवाज सुनकर किनारे हट जाते थे। बहुत ही मेहनत का काम था क्योंकि निर्धारित समय में पत्र पहुंचाना होता था।
समय बदला, डाक-तार विभाग बना, डाकघर बने और डाकिए नियुक्त हुए। डाकघरों में और जगह-जगह पर भी लेटरबॉक्स लगाए गए, अब पत्र भेजना कितना आसान हो गया था। पत्र लिखो लेटर बॉक्स में डालो बाकी काम डाकिया करता था। लेटरबॉक्स से पत्रों को निकालना, डाकखाने ले जाना छंटनी करना और सही जगहों पर पहुंचाना। यह सब काम मुख्यरूप से आजादी के बाद हुए। जहां तक याद है बाबू जगजीवन राम डाकतार विभाग के पहले मंत्री बने थे। ऐसा लगा मानो, सारा देश संपर्क सूत्र में बंध गया था। सत्तर के दशक में जब डाकिया मेरा पत्र लेकर मेरे गाँव जाता था तो मेरी पत्नी दुकान से गुड़ या बताशा मंगाकर सम्मानपूर्वक उसे पानी पिलाती थी।
विकास का चक्का आगे बढ़ा और लोगों ने तुरन्त समाचार भेजने के लिए तार भेजना आरम्भ किया जो टेलीप्रिन्टर की मदद से भेजा जाता था। केवल दो आवाजों से बड़ी से बड़ी बातें कही जा सकती थीं- गिट और गर। उदाहरण के लिए गिट गिट गर का दूसरा मतलब होता है और गिटगरगर का दूसरा। यह बात अलग है कि कभी-कभी अर्थ का अनर्थ लिख जाता था और ढोलक बजने की जगह चिल धड़ाम मच जाती थी। कुछ दशक पहले तक मध्यमवर्गीय परिवारों में दूरभाष यानी टेलीफोन बहुत कम होते थे। करीब 35 साल पहले जब मैं नैनीताल के किसी पब्लिक बूथ से लखनऊ फोन करना चाहता था तो पड़ोस के एक मुस्लिम परिवार में करता था क्योंकि मुहल्लेभर में केवल उन्हीं के घर फोन था। वह मेरी पत्नी या बच्चों को बुला दिया करते थे। टेलीफोन होना वैसे ही प्रतिष्ठा का विषय था जैसे आज बड़ी कार होना। कुछ दिनों बाद लखनऊ में मेरे ससुर जी ने टेलीफोन लगवा लिया था। जिस दिन टेलीफोन का डब्बा घर में आया था तो लाइनमैन की खातिरदारी तो हुई ही थी उस बक्सेनुमा टेलीफोन की भी पूजा हुई थी। गाँव से सीधा सम्पर्क अभी भी नहीं था।
अस्सी के दशक में शहरों में टेलीफोन के साथ ही फैक्स की सुविधा भी उपलब्ध हो गई थी। हाथ से लिखी या फिर टाइप की हुई चिट्ठी कुछ ही मिनट में दूर से दूर पहुंच जाती थी, अभी भी यह सुविधा उपलब्ध है लेकिन ‘‘गिट-गर” वाला विभाग बन्द हो गया है। कम्प्यूटर के माध्यम से आप दुनिया के किसी कोने में सेकंडों मे ई-मेल यानी पत्र भेज सकते हैं। गाँवों में अब बैलगाड़ी हांकते हुए और हल चलाते हुए किसानों के हाथ में मोब़ाइल फोन देख सकते हैं। मानो सारी दुनिया उनकी मुट्ठी में आ गयी हो। शहरों में ऐसे टेलीफोन आ गए हैं जिनमें फोन करने वाले का नम्बर तो दिखाई पड़ ही जाता है उसकी फोटो भी दिख जाती है। फोन की घंटी बजे आप नम्बर और फोटो देखकर चाहें तो बात करें या न करें।
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