सेहत ही नहीं खाद्य सुरक्षा के लिए भी बड़ा ख़तरा है दुनिया में बदलता मौसम

जलवायु परिवर्तन हमारे जीवन को भी बदल रहा है। जी हाँ, एक नहीं कई रिपोर्ट ये चेतावनी दे रही हैं कि अब भी नहीं चेते तो आने वाले समय में कई परेशानियों से दो चार होना पड़ सकता है। ये दिक्कतें बीमारी के रूप में भी हो सकती हैं।

Update: 2024-02-06 13:02 GMT

विश्व के सभी देश इंसानी लापरवाही की सजा भुगत चुके हैं, कुछ अब भी भुगत रहे हैं, लेकिन बढ़ते ख़तरे को लेकर जो कदम उठने चाहिए थे अबतक नहीं उठे हैं। एक नई रिसर्च से पता चला है कि जलवायु में आते बदलावों के कारण डायरिया संबंधी बीमारियों के फैलने का ख़तरा बढ़ सकता है। अमेरिका के जर्नल प्लोस कम्प्यूटेशनल बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट कहती है कि तापमान, आर्द्रता और दिन की लम्बाई जैसे कारक डायरिया संबंधी बीमारियों के बढ़ते प्रसार से जुड़े हैं।

सारे विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं ने इस बात की जाँच की है कि कैसे मौसम में आया बदलाव कैम्पिलोबैक्टीरियोसिस के प्रसार से जुड़ा है। कैम्पिलोबैक्टीरियोसिस जीवाणु से होने वाला संक्रमण है, जो दस्त और पेट दर्द का कारण बनता है।

एक दूसरी रिपोर्ट कहती है तेज़ी से हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण जीवन प्रत्‍याशा में कमी हो रही है। न्यूयॉक के द न्‍यू स्‍कूल फॉर सोशल रिसर्च और बांग्‍लादेश की शाहजलाल यूनिवर्सिटी की शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर सालाना जलवायु परिवर्तन सूचकांक 10 अंक बढ़ता है तो पुरुषों की जीवन प्रत्‍याशा 5 और महिलाओं की 7 महीने घट जाएगी। इसका असर खेती बाड़ी पर पहले से ही पड़ता रहा है। अब तो यहाँ तक कहा जा रहा है कि इससे हो रहे फंगल रोग के कारण गेहूँ की उपज में 13 फीसदी की कमी आ सकती है। यानी साफ़ है खाद्यान्न की पैदावार और खाद्य सुरक्षा भी ख़तरे में है।

मौसम में हो रहे इस बदलाव को अपने उत्तर, मध्य राज्यों के शहरों में आसानी से देख सकते हैं। कल जहाँ तेज धूप गर्मी जैसी स्थिति दिख रही थी, वहीँ शाम से आसमान में बादल घिर आते हैं और फरवरी के महीने में बूंदाबांदी पारा फिर गिरा देता है।

बेशक सरसों, गेहूँ, गन्ना और आलू समेत दूसरी फसलों के लिए यह बारिश किसी संजीवनी से कम नहीं है लेकिन इसी बारिश से मसूर और अरहर की फसल को नुकसान होने के भी आसार हैं। इस साल भारत के मौसम में बड़ा बदलाव देखने को मिला। 123 सालों में जनवरी में सबसे कम बारिश हुई। पहाड़ी इलाकों में बर्फबारी की बात करें तो पिछले 20 सालों में ये सबसे कम हुई। लेकिन क्या हम ये जानने की कोशिश करते हैं कि अचानक ये सब कैसे हो रहा है ? क्या है इस बदले मौसम के पीछे के कारण? इसका और क्या असर हो सकता है देश दुनिया पर ?

क्या है बदले मौसम के पीछे के कारण

साल 2000 के बाद से कई बार रिकॉर्ड ठंड भी पड़ी है। अगर 72 साल का ठंड का आंकड़ा देखें तो 1950 से 2000 तक सिर्फ पाँच बार ही न्यूनतम तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे और एक बार माइनस में गया।

ब्रिटेन के नेशनल मेट्रोलॉजिकल लाइब्रेरी एंड आर्काइव (एनएमएलए) के मुताबिक औद्योगिक क्रांति के बाद से हम हवा में अधिक से अधिक ग्रीनहाउस गैसें जोड़ रहे हैं, जिससे गर्मी और अधिक बढ़ रही है। पृथ्वी को गर्म, स्थिर तापमान पर रखने के बजाय, ग्रीनहाउस प्रभाव पृथ्वी को तेज़ रफ़्तार से गर्म कर रहा है, जो जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण है।


पृथ्वी के वायुमंडल में कुछ गैसें गर्मी के साथ उसे अंतरिक्ष में जाने से रोकती हैं। इन्हें हम 'ग्रीन हाउस गैस' कहते हैं। ये गैसें पृथ्वी के चारों ओर एक वार्मिंग कंबल के रूप में काम करती हैं, जिसे 'ग्रीन हाउस प्रभाव' के रूप में जानते हैं। ग्रीनहाउस गैसें इंसान और प्राकृतिक दोनों स्रोतों से आती हैं। कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसें वायुमंडल में प्राकृतिक रूप से पाई जाती हैं। अन्य, जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) इंसान गतिविधि से पैदा होती है।

हमें समझना होगा कि तेल, गैस और कोयले जैसे जीवाश्म ईंधन में कार्बन डाइऑक्साइड होता है जो हजारों साल से ज़मीन में 'बंद' है। जब हम इन्हें ज़मीन से बाहर निकालते हैं और जलाते हैं, तो हम जमा कार्बन डाइऑक्साइड को हवा में छोड़ देते हैं। वनों की कटाई को भी हल्के में मत लीजिए। वन वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड को हटाते हैं और जमा करते हैं। उन्हें काटने का मतलब है कि कार्बन डाइऑक्साइड तेज़ी से बनेगा क्योंकि इसे अवशोषित करने के लिए पेड़ नहीं हैं। इतना ही नहीं, जब हम पेड़ों को जलाते हैं तो वे अपने पास जमा कार्बन भी छोड़ते हैं।

साल 2023 क्यों था सबसे गर्म

इसे समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा। पृथ्वी पर जलवायु 4.5 अरब वर्ष पहले बनने के बाद से बदल रही है। हाल तक, प्राकृतिक कारक ही इन परिवर्तनों का कारण रहे हैं। जलवायु पर प्राकृतिक प्रभावों में ज्वालामुखी विस्फोट, पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन और पृथ्वी की पपड़ी में बदलाव (प्लेट टेक्टोनिक्स) शामिल हैं। पिछले दस लाख सालों में, पृथ्वी ने हिम युगों की एक श्रृंखला का अनुभव किया है, जिसमें ठंडी अवधि (हिमनद) और गर्म अवधि (इंटर ग्लेशियल) शामिल हैं। सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन के कारण हिमनद और अंतर-हिमनद काल लगभग हर 100,000 सालों में चक्रित होते हैं। पिछले कुछ हज़ार वर्षों से, पृथ्वी स्थिर तापमान के साथ अंतर-हिमनद काल में रही है।

हालाँकि, 1800 के दशक में औद्योगिक क्रांति के बाद से, वैश्विक तापमान तेज़ी से बढ़ा है। जीवाश्म ईंधन को जलाने और ज़मीन का इस्तेमाल करने के तरीके को बदलकर, मानव गतिविधि तेज़ी से हमारी जलवायु में परिवर्तन का प्रमुख कारण बन गई है।


विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की वैश्विक जलवायु रिपोर्ट पर नज़र डाले तो स्थिति और साफ़ हो जाती है। रिपोर्ट की माने तो साल 2023 रिकॉर्ड पर सबसे गर्म साल रहा। अक्टूबर के अंत तक के आंकड़ों से पता चलता है कि साल पूर्व-औद्योगिक 1850-1900 बेसलाइन से लगभग 1.4 डिग्री सेल्सियस ऊपर था। पिछले नौ साल, 2015 से 2023, भी रिकॉर्ड पर सबसे गर्म थे। “ग्रीनहाउस गैस का स्तर रिकॉर्ड ऊंचाई पर है। वैश्विक तापमान रिकॉर्ड ऊंचाई पर है। समुद्र स्तर में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है, जबकि अंटार्कटिका समुद्री बर्फ रिकॉर्ड कम है।

डब्ल्यूएमओ 192 सदस्य राज्यों और क्षेत्रों की सदस्यता वाला एक अंतर सरकारी संगठन है। भारत भी इसका सदस्य है। इसकी स्थापना 1873 वियना अंतर्राष्ट्रीय मौसम विज्ञान कांग्रेस के बाद की गई थी।

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सभी देश योजनाबद्ध तरीके से काम करने का दावा कर रहे हैं लेकिन वो ना काफी हैं। यूरोप के देशों में इसे लेकर जितना कुछ होना चाहिए था नहीं हो रहा है।

जलवायु में बदलाव से होने वाले ख़तरों का सामना करने के लिए, भारत ने अपनी राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपीसीसी) जारी की है। इसके 8 उप मिशन हैं जिनमें राष्ट्रीय सौर मिशन, राष्ट्रीय जल मिशन शामिल हैं। लेकिन भारत सहित कुछ देशों की कोशिश से बात नहीं बनेगी। ज़रूरत है साहसिक नीतियों और समाधानों पर ध्यान केंद्रित किया जाए; जो संसाधनों के उत्पादन और उपभोग के तरीके को तेज़ी से बदल सकते हैं। सभी देशों को समझना होगा कि ये समस्या किसी एक की नहीं, पूरी दुनिया की है जिसका हम भी हिस्सा है।  

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