देश कौन चलाएगा: सरकार, न्यायपालिका या सेना

Update: 2016-05-16 05:30 GMT
गाँव कनेक्शन

देश चलाने की नैतिक और वैधानिक जिम्मेदारी सरकार की रहती है और इसी काम के लिए देश की जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भेजती है लेकिन कई बार अदालतें कड़े शब्दों में सरकार को निर्देश देती हैं तो लगता है क्या सरकार अपना दायित्व नहीं निभा पा रही है। देश के वित्तमंत्री जब कहते हैं कि सरकारी कामकाज में न्यायपालिका का हस्तक्षेप बढ़ रहा है तो लगता है न्यायपालिका अपने कार्यक्षेत्र से बाहर जा रही है। ऐसा कोई भी टकराव देश के लिए शुभ संकेत नहीं है।

पड़ोसी देश पाकिस्तान में न्यायपालिका और कार्यपालिका में टकराव हुआ था और वहां पर सेना ने देश का कामकाज अपने हाथ में ले लिया था। उसके बाद प्रजातंत्र जो पटरी से उतरा तो दोबारा पटरी पर नहीं आ सका। बांग्लादेश का कमोवेश वही हाल है लेकिन पाकिस्तान से बेहतर है। म्यांमार में भी न्यायपालिका और कार्यपालिका की ताकत कमजोर रही और सेना ने कमान संभाल ली। अब लोकतंत्र वापस आता हुआ दिख रहा है।   

हमारे देश में सेना के विकल्प के विषय में सोचने का समय अभी तक नहीं आया है क्योंकि देश के संविधान निर्माताओं ने सूझ-बूझ के साथ सेना के तीनो अंगों जल, थल और वायु सेनाओं को बराबर का महत्व दिया और राष्ट्रपति को तीनों सेनाओं का सुप्रीम कमांडर बनाया। पाकिस्तान सहित अन्य देशों ने यह सावधानी नहीं बरती थी। आशा है भारत जैसे विशाल देश में तीसरे विकल्प की नौबत नहीं आएगी लेकिन सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव की स्थिति में तानाशाही का विकल्प खुल जाएगा।

इसमें विवाद नहीं कि सरकार का काम है कानून बनाना और न्यायपालिका का काम है उन कानूनों की व्याख्या करना लेकिन न्यायपालिका ने शाहबानो के प्रकरण में संविधान की व्याख्या करते हुए निर्णय दिया था और तब की सरकार ने उस कानून को ही बदल दिया जिसकी व्याख्या हुई थी। यदि सरकारें अपनी सुविधा के हिसाब से कानून बदलती रहेंगी तो न्यायपालिका किस नियम की और कैसे व्याख्या कर पाएगी। आजकल तटस्थ भाव से कानून बनाना सरल नहीं क्योंकि जिनके लिए कानून बन रहा होता है वे ही कानून बनाने वाले हैं और फिर शासक दल का बहुमत हमेशा दोनों सदनों में नहीं रहता। यूपीए सरकार ने भगवा आतंकवाद के नाम पर बहुत से लोगों को जेल में डाला था और उन पर मकोका लगाया था।

उनमें साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित के भी नाम थे और उन्हें आठ साल तक जेल में कहते है अनेक यातनाएं दी गईं। अन्त में जांच एजेंसी ने उनके खिलाफ़ कोई सबूत नहीं पाया और छोड़ने की तैयारी है। यह कैसी जांच है जिसमें आठ साल लग जाए यह कहने के लिए कि कोई सबूत नहीं है। बिना सबूत के मकोका जैसा कानून लगाना कितना न्यायसंगत है।अभी जल्दी में उच्चतम न्यायालय ने प्रान्तीय सरकारों को धन की कमी का बहाना न बताकर सूखा पीड़ितों को मुआवजा और भोजन देने का आदेश दिया है। इसके विपरीत सरकारों ने अति गर्मी के कारण स्कूल बन्द कर दिए हैं लेकिन न्यायालय का आदेश है कि गर्मी की छुट्टियों में भी दोपहर का भोजन बच्चों को दिया जाए। अब कौन सा आदेश चलेगा स्कूल बन्द करने का या मिड-डे मील खिलाने का। सत्तर के दशक में न्यायमूर्ति सिन्हा के निर्णय को चुनौती देते हुए देश में आपातकाल ही लगा दिया था।

उसके बाद इतना तीखा टकराव नहीं हुआ लेकिन असहज स्थिति बनी रहती है। नौबत यहां तक पहुंच गई है कि देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली को यह कहते सुना गया कि सरकारी काम काज में न्यायपालिका का हस्तक्षेप बढ़ गया है। उत्तराखंड में उच्च न्यायालय ने देश के राष्ट्रपति के निर्णय को बिना उनका पक्ष जाने खारिज कर दिया और उच्चतम न्यायालय ने तो अपनी देखरेख में बहुमत का फैसला किया और सरकार बहाल की। इसके पहले न्यायालय ने प्रमोशन में आरक्षण पर रोक लगाई थी, सूखा पर सरकारों को फटकारते हुए कहा कि धनाभाव का बहाना न बताएं और पिछले कुछ वर्षों में अनेक बार अपनी देख-रेख में एसआईटी बिठाकर मामलों की जांच कराई। कार्यपालिका, न्यायपालिका में परस्पर सम्मान का अभाव होना कोई शुभ संकेत नहीं है।   

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