बाग प्रिंट में कब लौटेगी बहार, कारोबारियों ने कहा, " लॉकडाउन बढ़ता रहा तो मुश्किल होगा काम करना "

देश ही नहीं दुनिया भर में मशहूर मध्य प्रदेश के धार जिले के बाग प्रिंट से जुड़े लोग लगातार कोरोना की मार झेल रहे हैं। मार्च से मई का वक्त इनके लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, पिछले साल भी इस दौरान लॉकडाउन से काम प्रभावित हुआ और इस बार भी इसका असर दिखने लगा है।

Update: 2021-05-18 14:55 GMT

प्रिंटिंग के बाद कपड़ों की धुलाई करते बिलाल और दूसरे कारीगर। सभी फोटो: अरेंजमेंट

बिलाल खत्री के स्टॉक में इस समय 20 हजार मीटर के करीब बाग प्रिंट का कपड़ा इकट्ठा हो गया है। ज्यादातर राज्यों में लॉकडाउन के चलते न तो बाहर से खरीददार आ पा रहे हैं और न ही वो अपना माल बाहर भेज पा रहे हैं।

33 वर्षीय बिलाल खत्री मध्य प्रदेश के धार जिले के बाग गाँव में बाग प्रिंट का कारोबार करते हैं। अपनी परेशानी बताते हुए बिलाल कहते हैं, "सरकार की तरफ से कारखाना चलाने की अनुमति मिली हुई है, काम भी चल रहा है, लेकिन मार्केट बंद होने से बिल्कुल भी बिक्री नहीं हो रही है।"

आदिवासी बाहुल्य धार जिला मुख्यालय से लगभग 90 किमी दूर बाग गाँव के बाग प्रिंट में ठप्पे के जरिए छपाई होती है। इसमें छपाई से लेकर धुलाई तक सारा काम हाथों से कारीगरों द्वारा ही किया जाता है।

कपड़े को तैयार करने में लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।

अपनी बात को जारी रखते हुए आगे कहते हैं, "जब दुकान, शोरूम वगैरह बंद हैं तो कोई माल कैसे खरीदेगा, लेकिन फिर भी काम चल रहा है, क्योंकि हम कारीगरों को नहीं हटा सकते, इसी से इनका घर चलता है।"

आम दिनों में बिलाल के कारखाने में 150 से 200 लोग काम करते हैं, लेकिन इस समय बहुत काम लोग आ पा रहे हैं। काम तो चल रहा है, लेकिन मार्केट बंद होने के कारण जो व्यापारी पहले भी कपड़े ले गए थे, वहां से भी पेमेंट नहीं आ पाया है।

बाग के आसपास के आगर, उदियापुरा, महाकालपुरा, घटबोरी, बाकी, कदवाल, पिपरी, रायसिंहपुरा जैसे 20 से 25 गाँवों में आदिवासी इस काम से जुड़े हुए हैं। पांच किमी से लेकर कई कारीगर 20 किमी दूर से भी आते हैं।

उमर फारख खत्री (39 वर्ष) के यहां पहले कम से कम 15 कारीगर काम करते थे, लेकिन इस समय चार-पांच कारीगर ही आ रहे हैं।

आदिवासी बाहुल्य धार जिले के कई गाँव के लोग बाग प्रिंटिंग के काम से जुड़े हुए हैं।

उमर बताते हैं, "अभी प्रिंटिंग चालू है, लेकिन बहुत कम चल रही है, मान के चलिए कि अभी 25 परसेंट कारीगर ही आ रहे हैं। अगर एक कारीगर सुबह 9 बजे से 5 बजे तक काम करता है तो दिन का 400 से 500 रुपए कमा लेता है। हमारे पास दस हजार मीटर के करीब स्टॉक रखा हुआ है। मार्केट खुल नहीं पा रहा है, जिसकी वजह से माल सप्लाई नहीं हो पा रहा है, ऑनलाइन में बहुत कम सेल हो पा रही है।"

दूसरे गाँवों से आने वाले कारीगरों की अपनी मुसीबत हैं, कुछ कारीगर पास से आते हैं तो 20 किमी दूर के गाँव से भी आते हैं। उमर कहते हैं, "उद्योग में छूट तो मिली है, लेकिन कई कारीगर पुलिस के डर से भी गाँव से नहीं निकल रहे हैं। बहुत से लोग 10, 12 या 20 किमी दूर से भी आते हैं, उन्हें ट्रांसपोर्ट की दिक्कत होती है। अब जब बसें वगैरह चल नहीं रही तो कारीगर बाग तक कैसे पहुंचेंगे।"

कपड़ा तैयार करने के लिए सबसे सही मौसम मार्च से मई तक होता है, क्योंकि इस समय हवा में नमी भी नहीं रहती और अच्छी धूप भी रहती है। बिलाल कहते हैं, "हम इन कपड़ों को बारिश में तैयार नहीं कर सकते। बारिश के मौसम में बनेगा तो कपड़े में नमी आ जाती है और वह रंग फैल जाता है।"

कपड़ों के प्रिंटिंग के लिए मार्च से मई महीना सबसे सही होता है, बारिश में नमी के कारण प्रिंट खराब हो सकता है।

हाथकरघा एवं हस्तशिल्प संचालनालय, मध्य प्रदेश के अनुसार, बाग प्रिंट का कार्य मुख्यतः खत्री (छिपा) वर्ग के लोगों द्वारा किया जाता है। इस समय यहां पर बाग प्रिंट के लगभग 14 छोटे-बड़े कारखाने संचालित है। जिनमे लगभग 1300 से अधिक ब्लॉकों (ठप्पों) का उपयोग हो रहा है। इस छपाई में पूरी तरह से प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता है। इन कपड़ों की एक विशेषता यह भी है कि छपाई के साथ-साथ इनकी चमक व रंगों में निखार आता है।

राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित शिल्प गुरु मोहम्मद यूसुफ खत्री (54 वर्ष) पिछले 44 साल से इस काम से जुड़े हुए हैं, लेकिन पिछले दो साल में जितना नुकसान हुआ उतना कभी नहीं हुआ है।

यूसुफ खत्री बताते हैं, "काम तो समझिए बंद ही है। कच्चा माल लेने जाओ तो महंगा मिलेगा और जब अपना माल बेचने जाओ तो सस्ते में बेचना पड़ता है। पिछले एक साल में 20 से 30 प्रतिशत महंगाई बढ़ गई है। कच्चे माल का तो दाम बढ़ गया, लेकिन हमें पुराने रेट में ही तैयार माल बेचना होता है। जो कपड़ा तीस रुपए मीटर मिल जाता था वो इस समय 52 रुपए मीटर तक मिलने लगा है। ऊपर से दो साल से ये मुसीबत आ रही है।"

राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित शिल्प गुरु मोहम्मद यूसुफ खत्री।

वो आगे कहते हैं, "काम अगर करते भी हो तो बचेंगे कहां। सरकार ने काम नहीं बंद किया, काम चल रहा है, लेकिन अगर माल ही बेच ही नहीं सकते तो माल बनाने का क्या फायदा। मजदूरों को तो काम देना ही है, क्योंकि इसी से उनका घर चल रहा है। धार जिला आदिवासियों का इलाका है और आदिवासी लोग ही हमारे यहां काम करते हैं। मजदूर कम आ रहे हैं, जिसका असर काम पर पड़ा है। अभी पहले के मुकाबले आधे लोग ही आ रहे हैं।"

मोहम्मद यूसुफ खत्री के अनुसार अभी भी उनके पास 60 से 70 लाख का माल पड़ा है, लेकिन खरीददार नहीं मिल रहे। कुछ लोग ऑनलाइन भी बेच रहे हैं, लेकिन उसका उतना अच्छा रिजल्ट नहीं है। यूसुफ कहते हैं, "मान के चलिए हमें माल बेचना है 20 लाख रुपए का, लेकिन ऑनलाइन में 30 हजार का ही माल बिकेगा। हम पूरे देश जैसे मद्रास, मुंबई, कलकत्ता, अहमदाबाद जैसे बड़े शहरों तक खुद माल भेजते हैं और कुछ छोटे व्यापारी यहां भी खरीदने आते हैं। अभी तो बिल्कुल आना बंद है।"

आखिर में यूसुफ की आवाज से उनकी परेशानी झलकती है, वो कहते हैं, "मुझे 44 साल हो गए यही काम करते हुए, बचपन से यही काम कर रहा हूं। पिछले साल लॉकडाउन के चार महीने के लगभग हो गए थे, इस बार तो अभी सवा महीने ही हुए हैं, लेकिन अगर इस बार भी ऐसे ही बढ़ता रहा तो ऊपर वाला ही मालिक है, क्या कर सकते हैं।"


यूसुफ के अनुसार पिछले कुछ साल में कई लोगों ने बाग प्रिंट कारोबार छोड़ दिया। पिछले साल भी कई लोग इससे दूर हुए थे, अगर ऐसा ही रहा तो बहुत से लोग इसे छोड़ देंगे।

ठप्पा छपाई का काम करने वाले 40 वर्षीय कारीगर देवी सिंह बाग से सटे महाकालपुरा झोझगिया गाँव से आते हैं। देवी सिंह कहते हैं, "हमारा गाँव पास में है, इसलिए साइकिल से आ जाते हैं, लेकिन बहुत से कारीगर दूर से आते हैं, वो नहीं आ पा रहे हैं। यहां साल भर काम चलता रहता है, लेकिन तीन महीने में ज्यादा काम होता है, कई गाँव के लोग आते हैं, इस समय तो बहुत से लोग पुलिस के डर से भी गाँव से नहीं निकल पा रहे हैं।"

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