टोडरमल से होते हुए प्रधानमंत्री तक पहुंच गई फसल बीमा योजना, नहीं हो सका किसानों का बेड़ा पार

फसल से जुड़ा किसानों का ये जोखिम नया नहीं है। जब से इंसान ने खेती करना शुरू किया है, ये जोखिम तब से है। और जब से शहंशाहों ने इस जोखिम के बारे में सोचना शुरू किया है, तब से हैं फसल मुआवजा देने की योजनाएं और प्रावधान।

Update: 2019-03-29 10:33 GMT

किसान फसल को सोचता है। फसल को बोता है। फसल को काटता है। फसल को बेचता है। मगर भारत जैसे देशों में अक्सर बोने और बेचने के बीच उसे ऐसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ जाता है, जिनसे पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।

फसल से जुड़ा किसानों का ये जोखिम नया नहीं है। जब से इंसान ने खेती करना शुरू किया है, ये जोखिम तब से है। और जब से शहंशाहों ने इस जोखिम के बारे में सोचना शुरू किया है, तब से हैं फसल मुआवजा देने की योजनाएं और प्रावधान।

आज बेशक हर तरफ सिर्फ प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की ही बात हो, लेकिन बात ये है कि ये बात कोई नई नहीं है। विडंबना ये है कि फसल की बर्बादी और फसल का बीमा दोनों ही बातों के इतने पुराने होने के बावजूद भी किसान की स्थिति में कोई नयापन नहीं आया है। साल 2016 में जिस वक्त इस योजना की घोषणा की गई थी, उसी वक्त से विशेषज्ञों ने इसे खारिज करना शुरू कर दिया था।

कृषि मामलों के जानकार और प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक देविंदर शर्मा कहते हैं कि इस योजना के जरिये किसानों की समस्या नहीं सुलझेगी। इसमें फसल को कितना नुकसान हुआ है, ये पता लगाने के लिए कोई प्रावधान नहीं है। यदि सरकार प्रति यूनिट खेत का सर्वे करे, तब कहीं जाकर इसका फायदा सामने आ सकता है। इस योजना का नतीजा भी इन अंदेशों से कुछ अलग नहीं रहा है।


जहां से शुरू हुई, वहां भी नहीं हुई सुनवाई

मध्य प्रदेश के सीहोर जिले से जुड़े और कृषि जानकार भगवान मीना बताते हैं कि पिछले साल 2018 फरवरी में सियोल में ओलावृष्टि हुई थी और 90 प्रतिशत किसानों की फसल खराब हो गई। अब तक उन्हें फसल बीमा योजना का पैसा नहीं मिला है। भगवान मीनी एक विडंबना भी सामने रखते हैं।

वह कहते हैं, "बताइए, मध्य प्रदेश के सियोल जिले से ही प्रधानमंत्री फसल योजना लागू हुई थी। इसी जिले में एक साल बाद फसल बीमा का क्लेम अभी तक नहीं मिला है। ऐसे में क्या कहा जाए?"

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भगवान मीना का कहना है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना सिर्फ कंपनियों को ध्यान में रखकर बनाई गई है। जब इसका ड्राफ्ट तैयार किया गया, तब 22 कंपनियों के प्रतिनिधि शामिल थे, इनमें किसान प्रतिनिधि कोई नहीं था। आम एलआईसी पॉलिसी में डेडलाइन होती है कि छह महीने के अंदर क्लेम देना ही है, लेकिन फसल बीमा में कोई डेडलाइन नहीं है।

मीना बताते हैं कि आप इसके लिए आवेदन तो कर सकते हैं, लेकिन उसका प्रूफ नहीं मिलता है। किसान क्रेडिट कार्ड लिया हुआ है, तो वो उसमें आपको लोन के अनुसार इंश्योरेंस क्लेम काट लेती है। किसान को कोई रिसिप्ट नहीं दी जाती। कवर की भी कोई लिमिट नहीं दी जाती। इसमें रेगुलेशन नहीं है। इसमें कोई इंश्योरेंस रेगुलेटर नहीं है। आईआरडीए नहीं है इसमें शामिल। प्रीमियम इंश्योरेंस सरकार पर भी निर्भर है। राज्य सरकार ने कर दिया, तो केंद्र सरकार से नहीं आएगा। इसके कारण भी क्रॉप इंश्योरेंस उलझा हुआ है।'

अब उपभोक्ता फोरम पहुंच रहे हैं किसान

हाल में बीमा नियामक आईआरडीएआई ने कहा है कि साधारण बीमा कंपनियों को किसानों के लिए हिंदी और अंग्रेजी के अलावा स्थानीय भाषाओं में फसल बीमा दावों के बारे में विवरण देना होगा। अगर पूछा जाए कि इसकी जरूरत क्यों पड़ी? तो इसका जवाब भी भारतीय बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (इरडा) ने दिया है।

उनका कहना है कि उन्हें फसल बीमा दावों के संबंध में विभिन्न शिकायतें और सुझाव प्राप्त हो रहे थे, इस खामी को दूर करने के लिए ये फैसला लिया गया है। दरअसल फैसले तो आदिकाल से लिए जाते रहे हैं, मगर धरातल पर जाकर देखते हैं, तो किसान इन फैसलों से कोई राब्ता रखते नजर नहीं आते हैं।

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शायद फसल बीमा से जुड़ी ऐसी ही शिकायतों को बीमा नियामक आईआरडीएआई ने भाषा की सुविधा देकर सुलझाने का मन बनाया है। हालांकि किसानों से बात करने पर पता चलता है कि शिकायत कहां करें और किससे करें, इसका भी कोई जरिया सामने नहीं आता है। बीमा कंपनी ज़िले में अपना प्रतिनिधि नहीं रखती हैं। इस सबसे तंग आकर किसानों ने उपभोक्ता फोरम में केस लगाया हुआ है।


ऐसे ही एक किसान हैं गोविंद सिंह मीणा। जिला सीहोर के ही ग्राम बकोट में रहने वाले गोविंद सिंह की फसल भी 14 फरवरी 2018 को हुई ओलावृष्टि में खराब हो गई थी। तीस एकड़ में लगी उनकी फसल में 70 प्रतिशत से अधिक नुकसान हुआ, लेकिन उन्हें भी एक साल पूरा होने के बाद अब तक फसल बीमा की राशि नहीं मिली है।

इस तरह के मामले एक-दो नहीं सैंकड़ों की संख्या में सामने आ रहे हैं। किसानों से बात करने पर फसल बीमा का नाम लेते ही उनकी आंखों में चमक नहीं एक भ्रम नजर आता है। वह योजना का नाम और उसके लाभ जानते हैं, मगर ज्यादातर को लाभ मिलने की कोई सूरत योजना लागू होने तीन साल बाद भी दिख नहीं पाई है।

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इस सबसे इतर फसल बीमा की अपनी भी एक कहानी है, जो विडंबना या यूं कहें कि किसी व्यंग्य से भरी लगती है। आपको जानकर शायद हैरानी हो कि मुगलों के समय से फसल बीमा किया जा रहा है, मगर आज तक हम फसल बीमा की ऐसी योजना तक नहीं पहुंच पाए हैं, जिसमें किसानों को वो फायदा हो, जिस उद्देश्य से इस योजना पर बार-बार मोहर लगती रही है।

तो फसल बीमा की ये कहानी शुरू होती है राजा टोडरमल के साथ। आपमें से कुछ लोग शायद टोडरमल के बारे में जानते भी नहीं होंगे। लेकिन ये जानना जरूरी है कि उन्होंने ही सबसे पहले भूमि कर ढांचे का पुनर्निमाण किया और फसल की क्षति के लिए मुआवजे देने की शुरुआत की। उनकी व्यवस्था इतनी प्रभावी और आधुनिक थी कि अन्य शासक और यहाँ तक कि अंग्रेजों ने भी इसका अनुसरण किया।

सबसे पहले बीमा की कहानी

कहा जाता है कि सबसे पहला फसल बीमा 1915 में शुरू हुआ। हालांकि यह सिर्फ एक प्रस्ताव के रूप में सामने आया था। सन 1915 में मैसूर के जे.एस. चक्रवर्ती ने रेन इंश्योरेंस स्कीम तैयार की थी। उन्होंने मैसूर इकोनॉमिक जर्नल में कई रिसर्च पेपर भी लिखे। सन 1920 में उन्होंने एग्रीकल्चर इंश्योरेंस- प्रैक्टिकल स्कीम सूटिड टू इंडियन कंडीशन नाम से एक किताब भी लिखी। इसके अलावा मद्रास, देवास और बड़ौदा जैसी रियासतों में भी फसल बीमा को लागू करने की कोशिश की गई, मगर बहुत सफलता नहीं मिल पाई।


आजादी के बाद

सन 1947 में मिली आजादी के बाद फसल बीमा की बात काफी जोर-शोर से शुरू हुई। इसके लिए 1947-48 में एक विशेष शोध की भी शुरुआत की गई। इस रिपोर्ट के पहले ड्राफ्ट में सवाल सामने आया कि यह बीमा योजना प्रत्येक व्यक्ति के निजी अनुभव पर आधारित होनी चाहिए या एक समान क्षेत्र पर।

निजी अनुभव पर योजना बनाई जाए, तो इसमें हर एक किसान की पूरी फसल का सही-सही आंकड़ा सामने होना चाहिए और उसी के आधार पर नुकसान की भरपाई और प्रीमियम की राशि तय होनी चाहिए। वहीं एक समान क्षेत्र की बात करें, तो इसमें हरेक किसान से जुड़े आंकड़े जुटाने की बजाय गांव का एक समान क्षेत्र शामिल है, जिसमें सालाना फसल उत्पादन भी एक समान रहता है।

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इसे एक यूनिट के तौर पर योजना के अंतर्गत शामिल किया जा सकता है। इस शोध ने एक समान क्षेत्र के पक्ष में तथ्य पेश करते हुए रिपोर्ट तैयार की। इस योजना को राज्य सरकारों को भेजा गया, मगर राज्यों से इसे मंजूरी नहीं मिली।

अक्टूबर 1965 में भारत सरकार ने फसल बीमा विधेयक और फसल बीमा के लिए एक योजना लाने का फैसला किया। सन 1970 में इसे डॉ. धर्म नारायण की अध्यक्षता वाली एक समिति को सौंप दिया गया। इस तरह दो दशकों तक फसल योजना पर काम हुआ, विचार हुआ और विवाद हुआ।

सन 1972 में लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के जनरल इंश्योरेंस विभाग ने गुजरात में एच-4 कॉटन पर पहला फसल बीमा कार्यक्रम पेश किया। इसके बाद इसी योजना को गुजरात के साथ महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में भी लागू किया गया। इसमें कॉटन यानी कपास के साथ-साथ गेहूं और आलू की फसल को भी शामिल किया गया।

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ये योजना किसान के निजी अनुभव पर आधारित थी। एक रिपोर्ट के अनुसार ये योजना 1978-79 तक लागू रही, लेकिन इससे सिर्फ 3110 किसानों को ही लाभ हुआ। किसानों के 37.88 लाख के दावों पर सिर्फ साढ़े चार लाख का ही प्रीमियम प्राप्त हुआ। इससे ये निष्कर्ष निकला कि किसानों के निजी अनुभव पर आधारित फसल योजना देश की परिस्थिति के अनुकूल नहीं है।

पायलट क्रॉप इंश्योरेंस स्कीम (पीसीआईएस) 1979

प्रोफेसर वी.एम. दांडेकर को भारत में फसल बीमा का जनक कहा जाता है। उन्होंने 70 के मध्य में एक समान क्षेत्र की व्यवस्था के आधार पर इस योजना का प्रस्ताव फिर से पेश किया। इसी के आधार पर जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया ने सन् 1979 में पायलट क्रॉप इश्योरेंस स्कीम ऑफ इंडिया लॉन्च की।

इसमें राज्य सरकारों की भागेदारी जरूरी नहीं थी। इसमें अनाज, दालें, कपास, आलू, चना और ज्वार जैसी फसलें भी शामिल थीं। इसमें भुगतान की राशि जनरल इंश्योरेंस ऑफ कंपनी और राज्य सरकार को 2:1 में बांटी गई। कुल बीमित राशि का 5-10 प्रतिशत इंश्योरेंस प्रीमियम के तौर पर तय किया गया।

एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड के अनुसार यह योजना 1984-85 तक चली। तेरह राज्यों में लागू हुई। इसमें 6.27 लाख किसानों को लाभ हुआ और 1.57 करोड़ के दावों पर 1.97 करोड़ का प्रीमियम मिला था। 

(लेखिका युवा पत्रकार हैं)

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