जलवायु परिवर्तन से देश में घट रहे हैं बांज के जंगल

Update: 2018-11-28 13:54 GMT

लखनऊ। अन्य देशों में ओक (बांज) वृक्षों को अनेकों आर्थिक महत्त्व के उत्पादों और सेवाओं के लिए प्रयोग किया जाता है, लेकिन भारत में इन वृक्षों का मुख्य उपयोग जलाऊ ईंधन की लकड़ी के रूप में ही होता है, जिसके चलते इनकी संख्या दिनों दिन घटती जा रही हैं।

आज के दिन पृथ्वी के उपोष्ण व उष्ण कटिबंधीय इलाकों में पाए जाने वाले ओक वनों पर जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और मानवीय गतिविधियों के प्रभावों पर एक विशिष्ट सत्र का आयोजन किया गया। बांज वन मुख्यतः पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में पाए जाते हैं एवं ठन्डे इलाकों से लेकर उष्ण कटिबंधीय एशिया और अमेरिका तक फैले हुए हैं।

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इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ एनवायरनमेंटल बॉटनिस्ट्स (आईएसईबी) और सीएसआईआर- राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान, लखनऊ (सीएसआईआर-एनबीआरआई) द्वारा आयोजित चार दिवसीय "पौधों एवं पर्यावरणीय प्रदूषण पर छठे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन" के दूसरे दिन विश्व के 21 देशों और भारत के अलग अलग हिस्सों से पधारे वैज्ञानिकों व शोधकर्ताओं के बीच प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर चर्चा जारी रही जिसके अंतर्गत कुल 9 विशिष्ट व्याख्यानों, 48 मौखिक प्रस्तुतियों और 73 पोस्टर प्रस्तुतियों के माध्यम से विभिन्न विषयों पर किये गए शोध कार्यों को प्रस्तुत किया गया।

पौधों एवं पर्यावरणीय प्रदूषण पर छठे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन" के दूसरे दिन विश्व के 21 देशों और भारत के अलग अलग हिस्सों से आए वैज्ञानिक

जर्मनी से आए हुए प्रो. अलबर्ट रीफ ने ओक वनों के पुनुर्त्पादन पर आधारित अपने विशिष्ट व्याख्यान में बताया कि ओक वन अनेकों उत्पादों एवं पारिस्थितिक सेवाओं का स्रोत हैं जिनमें जिनमें इमारती लकड़ी, जलाऊ ईंधन, छाल से प्राप्त होने वाले टैनिन आदि प्रमुख हैं।

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जीवों द्वारा फलों और बीजों का भोजन के रूप में उपयोग, परजीवी फफूंदों का संक्रमण, अन्य वनस्पतियों के साथ प्राकृतिक संसाधनों के लिए प्रतियोगिता, भू-जल की उपलब्धता जैसेअनेकों कारक इन वनों के अंकुरण, स्थापन और वृद्धि को प्रभावित करते हैं।

यह भी देखा गया है कि कई पर्णपाती ओक प्रजातियां तनाव सहन करने की क्षमता भी रखती हैं। इसी विषय पर भारतीय हिमालय में ओक वनों पर किये गए शोध कार्यों पर भी चर्चा हुई जिनमें बताया गया कि भारतीय हिमालय में ओक वन संकट ग्रस्त स्थिति से गुजर रहे हैं। हिमालयी ओक वनों की पुनुरुत्पादन क्षमता काफी अच्छी है, लेकिन अंकुरों के पूर्ण विकसित वृक्षों में बदल पाने की दर काफी कम है।

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इसके प्रमुख कारणों पर हुई चर्चा में बताया गया कि वनों की सतह से मनुष्यों द्वारा वन्य अवशेषों के एकत्रीकरण से अक्सर फल और बीज या तो जंतुओं द्वारा खा लिए जाते हैं। या जल्दी सूख जाते हैं जिनसे इनके अंकुरण और स्थापना पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह पाया गया है कि प्रत्येक 10,000 बीजों में से मात्र एक ही वृक्ष में परिवर्तित हो पाता है। हिमालय में चीड़ वृक्षों द्वारा ओक वनों के अतिक्रमण से भी इनके अस्तित्व पर आये संकट पर भी चर्चा हुई।

इसके पूर्व सत्र के आरम्भ में अपने संबोधन में सीएसआईआर-एनबीआरआई के निदेशक प्रो. एस के बारिक ने कहा कि भारत के ओक वनों की आबादियां घट कर मात्र 30 प्रतिशत रह गयी हैं।

उन्होंने कहा कि अन्य देशों में ओक वृक्षों को अनेकों आर्थिक महत्त्व के उत्पादों और सेवाओं के लिए प्रयोग किया जता है लेकिन भारत में इन वृक्षों का मुख्य उपयोग जलाऊ ईंधन की लकड़ी के रूप में ही होता है, जिसके चलते इनकी संख्या दिनों दिन घटती जा रही हैं।  

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