''मेरे पास 9 ग्राम पंचायतों का काम है। इसमें कुल 13 गांव पड़ते हैं। अब आप खुद ही सोच लीजिए कि मुझ पर कितना भार होगा।'' यह बात उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले में तैनात ग्राम विकास अधिकारी मुख्तार अली कहते हैं। मुख्तार अली की इस बात से समझा जा सकता है कि सरकार की योजनाओं और गांव के बीच की पहली कड़ी कहे जाने वाले ग्राम पंचायत सचिव कितने बोझ तले काम कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में 58808 ग्राम पंचायते हैं। इन ग्राम पंचायतों में 'ग्राम विकास विभाग' और 'पंचायती राज विभाग' की ओर से सचिव के तौर 'ग्राम विकास अधिकारी' और 'ग्राम पंचायत अधिकारी' नियुक्त किए जाते हैं। प्रदेश में इन दोनों ही पदों पर 12802 लोग काम कर रहे हैं, ग्राम विकास अधिकारी के तौर पर 6802 लोग और ग्राम पंचायत अधिकारी कै तौर पर 6000 लोग काम कर रहे हैं। ऐसे में इन 12802 लोगों पर प्रदेश की 58 हजार से ज्यादा ग्राम पंचायतों के विकास की जिम्मेदारी है, जिसकी वजह से यह लोग काम के बोझ तले दबे हुए हैं और इसका सीधा असर गांव के विकास पर भी पड़ रहा है।
ऐसे में सरकार की योजनाओं और गांव के बीच की पहली कड़ी कहे जाने वाले इन सचिवों का हाल गांव कनेक्शन ने जाना है। इनसे समझा है कि उनपर किस तरह का दबाव है और इसका असर उनके काम और गांव के विकास पर कैसे पड़ रहा है।
ग्राम विकास अधिकारी मुख्तार अली बताते हैं, ''हम ग्राम विकास विभाग से हैं, लेकिन इस विभाग के काम के अलावा भी हमें तमाम काम सौंप दिए जाते हैं। जैसे अभी मिशन अंत्योदय का काम आया है, इसमें अलग-अलग 25 विभागों की सूची है, ऐसे में हम इन 25 विभागों का चक्कर लगा-लगाकर सूचना इकट्ठा करते हैं और फिर वेबसाइट पर अपलोड करते हैं। अब यह सब तो एक्सट्रा काम है न।''
मुख्तार अली की बात से ही जुड़ी बात उत्तर प्रदेश ग्राम पंचायत अधिकारी संघ के प्रदेश अध्यक्ष रजनीकान्त द्विवेदी बताते हैं। वो कहते हैं, ''सचिवों के भार को समझने के लिए आप बस हमारे काम को समझ लीजिए। हमारे जिम्मे समाज कल्याण विभाग, कृषि विभाग, स्वास्थ्य विभाग जैसे तमाम काम होते हैं। ऐसे लगभग 45 काम हमारे पास हैं। ग्राम पंचायतों में यह जो काम बढ़े हैं उसके मुताबिक स्वीकृत पद नहीं भरे गए हैं। ग्राम विकास विभाग और पंचायती राज विभाग की आरे से कुल 16,432 पद स्वीकृत हैं, लेकिन काम सिर्फ 12802 लोग ही कर रहे हैं। ऐसे में हमपर दबाव तो होगा ही।''
''सबसे बड़ी दिक्कत है कि अनावश्यक रूप से मानसिक दबाव बनाना। जैसे कोई काम आया और उस काम को कह दिया गया कि परसो तक चाहिए, तो इस परसो चाहिए में योजना को अमल कराने में गलती हो जाती है, गुणवत्ता पर असर पड़ता है और तमाम कल्याणकारी योजनाएं हैं जिसमें गलती होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।''
रजनीकान्त द्विवेदी कहते हैं, ''जैसे अभी आयुष्मान भारत के कार्ड बनने थे तो अधिकारियों को पात्र व्यक्तियों की सूचि तत्काल चाहिए थी। उन्हें इससे मतलब ही नहीं कि एक सचिव पर कितना बड़ा क्षेत्र है। ऐसे में पात्रता के चयन में गलती होगी ही और यह दिख भी रहा है। पात्रता के चयन से ही एक बात और आती है कि इसके लिए एक टीम बनाई जाती है, जिसमें राजस्व विभाग से एक व्यक्ति होगा, एक व्यक्ति स्वास्थ्य विभाग से होगा, लेकिन क्योंकि यह गांव का मामला होता है तो इन विभागों की ओर से ग्राम पंचायत पर ही इसकी जिम्मेदारी छोड़ दी जाती है।''
काम के इस दबाव का असर सचिवों के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। इस बारे में बताते हुए रजनीकान्त द्विवेदी कहते हैं, ''काम का इतना दबाव है कि सचिव मानसिक रूप से बीमार हो रहे हैं। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि उत्तर प्रदेश के गांवों में डमी प्रधान का चलन बहुत आम है। अब होता क्या है कि डमी प्रधान को चलाने वाले लोग सचिव पर दबाव बनाते रहते हैं, जब सचिव अपने ऊपर के अधिकारियों से बात करता है तो वहां सुनवाई नहीं होती है। यह सब फ्रस्टेशन का कारण ही है।''
ऐसा नहीं है कि सचिवों की कमी का असर आम लोगों पर नहीं पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश के बरेली जिले की पिपौली ग्राम पंचायत के रहने वाले राम पाल सागर की कहानी बहुत से लोगों की कहानी बयान करती है। 50 साल के राम पाल सागर अपने राशन कार्ड के काम को लेकर पिछले एक महीन से ब्लॉक के चक्कर लगा रहे हैं। उन्हें अपने कागजात पर गांव के सचिव के साइन चाहिए, लेकिन सचिव से उनकी मुलाकात नहीं हो पाती है। वो बताते हैं, ''मैं सचिव की तलाश में एक महीने में तीन बार ब्लॉक पर आ चुका हूं, लेकिन सचिव से मुलाकात ही नहीं होती है। हर बार पता चलता है कि सचिव किसी और पंचायत में गए हैं। देखते हैं कब तक साइन मिल पाता है।''
इस बारे में बात करते हुए ग्राम विकास अधिकारी संघ के प्रान्तीय अध्यक्ष गंगेश कुमार शुक्ला कहते हैं, ''कोई सचिव सात ग्राम पंचायत देख रहा है तो कोई आठ ग्राम पंचायत देख रहा है। क्षेत्र जब इतना बड़ा रहेगा तो सचिव हर टोले-मजरे में जा नहीं सकता, यानि वो क्षेत्र उससे अछूता है। इसका असर उस क्षेत्र के विकास पर भी पड़ेगा। हमने कई बार कहा भी कि पोस्ट बढ़ाई जाए और जो खाली पोस्ट हैं उसे भी भरा जाए, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही है।''
''इसका असर सचिवों के मानसिक स्तर पर भी पड़ रहा है। हमारा काम इतना ज्यादा है कि 13 से 14 घंटे काम करना होता है। सरकार की ओर से रविवार मिलाकर करीब 100 दिन की छुट्टी दी जाती है, लेकिन हमें इसमें से एक भी छुट्टी नहीं मिल पाती। रविवार को मीटिंग बुला दी जाएगी और दिवाली-होली के दिन हमें गांव में लगवा दिया जाएगा। यह सब मानसिक उत्पीड़न ही तो है।'' - गंगेश कुमार शुक्ला कहते हैं
इस बारे में पंचायती राज विभाग की उप निदेशक प्रवीणा चौधरी कहती हैं, ''सचिवों के पद कम हैं। इसका असर उनपर पड़ रहा होगा। हमने अभी सचिवों के स्वीकृत पद में से कुछ पर भर्तियां निकाली हैं। जल्द ही नए ग्राम पंचायत अधिकारियों की नियुक्ति होगी।''