दिव्यांगों की मां: शरीर का 80 फीसदी हिस्सा काम नहीं करता, फिर भी टीचर बन संवारी सैकड़ों बच्चों की जिंदगी

एक ऐसी औरत जो कभी शादी के बंधन में नहीं बंधी, लेकिन उनके कार्यों की वजह से आज उनके हज़ारों हज़ार बेटे-बेटियां पूरे देश में फैले हैं, जिनकी ज़िंदगी आपने संवारी है। वह एक ऐसी महिला हैं, जिनको उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए देश के तीन राष्ट्रपति सम्मानित कर चुके हैं।

Update: 2018-11-14 08:25 GMT

''मुझे महज साढ़े तीन साल की उम्र में गर्दन से नीचे सारे शरीर में पोलियो हो गया था। यह एक इनाम था मेरे लिए, क्योंकि मैं एक डॉक्टर की बेटी थी। आज मेरे 80 प्रतिशत तक 'मसल्स लोस' हैं, फिर भी मेरे हौंसलों को देखते हुए डाॅक्टर यही बोलते हैं कि आखिर आप यह सब कैसे कर लेती हैं? आज मैं दोनों पांवों से चल नहीं सकती, हाथों से गिलास तक नहीं पकड़ सकती, बिना मदद के टॉयलेट तक नहीं जा सकती, अपने सारे कामों के लिए मैं किसी ना किसी पर निर्भर रहती हूं। कुछ कर गुजरने की ललक मुझमें मेरी मां ने पैदा की।" ये कहना है डॉक्टर कुसुम का।

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आज डॉक्टर कुसुम को 'विकलांगों की माता' कहकर पुकारा जाता है। एक ऐसी औरत जो कभी शादी के बंधन में नहीं बंधी, लेकिन उनके कार्यों की वजह से आज उनके हज़ारों हज़ार बेटे-बेटियां पूरे देश में फैले हैं, जिनकी ज़िंदगी आपने संवारी है। वह एक ऐसी महिला हैं, जिनको उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए देश के तीन राष्ट्रपति सम्मानित कर चुके हैं।


पहली बार 10वीं की प्राइवेट परीक्षा देकर प्रथम प्रयास में ही 58 प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण हो सफलता की इबारत लिखने वाली डॉ. कुसुम ने 1975 में बीए, 1977 में राजनीति शास्त्र में एमए किया और महिला वर्ग का स्वर्णपदक भी हासिल किया। 1987 में राजनीति शास्त्र में पीएचडी भी की। भारतीय इतिहास में चुनाव सुधार पर लिखी गई यह पहली पुस्तक है जिसे 'बिबिलियोग्राफी' तक ने रिकमण्ड किया है।

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डॉक्टर कुसुम ने बताया, ''पीएचडी करना मुश्किल है, यह सुन-सुनकर कान पक चुके थे। मैंने सोच लिया था कि इससे तो दो-चार होना है, सच में मैंने कर दिखाया। इसी दौरान एमए के बाद मैंने कॉलेज में पढ़ाना शुरू कर दिया। कॉलेज में स्थाई व्याख्याता का पद पाने के लिए मुझे कम मेहनत नहीं करनी। 1981 में मैंने एलएलबी की थी। वर्तमान में जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर में राजनीति विज्ञान विषय की एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हूं। "


उन्होंने आगे बताया, " अपनी जिंदगानी तो सभी जीते हैं, मेरा सपना है दिव्यांग आत्मविश्वास पाएं, पांवों पर खड़े हों और बाद में खुद मेरी तरह वो भी अपने भाई-बहनों-बच्चों के लिए लड़ें, जैसे मैं लड़ी उनके हक के लिए। पहले पहल दिव्यांगों को इधर से उठाके उधर पटकने का रिवाज था।

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तत्कालीन अशोक गहलोत सरकार में मैंने मामला उठाया कि आप दिव्यांगों को कुछ दे नहीं सकते, तो उनसे कुछ छिनिए तो मत, उन्हें उनके गृह जिलों में ही नियुक्ति देवें, जिन्दगी को तो हर पल चुनौती मिलती है। फिर दिव्यांगों का क्या जब वे किसी ओर पर आश्रित होते हैं, वहां उनकी सार-संभाल- देखभाल करने वाला कौन है? मैंने ही नेत्रहीनों को बीएड करने की अनुमति प्रदान करवाई वो भी 3 प्रतिशत आरक्षण के साथ।"

(लेखक कृषि-पर्यावरण पत्रकार हैं)

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