मज़दूर दिवस की छुट्टी मुबारक ! आप घर पर रहें, मज़दूर काम पर

देश के जो बड़े मजदूर संगठन हैं, उनका काम सिर्फ शहरों तक और कारखानों से लेकर दूसरे श्रम के कामों में लगे लोगों के बीच ही है। खेत में काम करने वाले मजदूरों तक अपना आधार बढ़ाने के लिए मजदूर संगठनों के पास कोई योजना नहीं है, जिसका नतीजा है कि खेत मजदूर उपेक्षित हैं।

Update: 2019-05-01 05:30 GMT
 महोबा में चिलचिलाती गर्मी में पत्थर तोड़ती महिला। फोटो-विनय गुप्ता

लखनऊ। "हम लोग तो साल भर काम करते हैं। जिस दिन गाँव में काम नहीं मिलता है, बस उसी दिन हमारी छुट्टी होती है।" यह जवाब था कि गोरखपुर के ग्राम सैरो के बड़कापुरा टोला की मजदूर कमलावती देवी (40 वर्ष) का, जब उनसे मजदूर दिवस के दिन होने वाली छुट्टी के बारे में पूछा गया। गाँव और कस्बों में ज्यादा तर मजदूरों को पता ही नहीं कि एक दिन उनके लिए भी तय है जिसे मजदूर दिवस कहते हैं और उस दिन नियमत उनकी छुट्टी होनी चाहिए।

गोरखपुर से 40 किमी. दूर ग्राम सैरो के एक हजार की आबादी वाले बड़कापुरा टोला में अधिकतर लोग खेतिहर मजदूर हैं। ऐसा सिर्फ इनका ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के अधिकतर खेतिहर मजदूर का यही हाल है। प्रदेश सरकार के श्रम आयुक्त संगठन के अनुसार प्रदेश में 78 लाख खेतिहर मजूदर हैं। जिनको मजदूरी औसतन 58 रुपए ही प्रतिदिन मिलती है। इतने कम पैसे के बाद भी इन मजदूरों की आवाज उठाने वाला कोई नहीं है। उत्तर प्रदेश में बीड़ी, बंधुवा, बाल, सिने वर्कर्स, औद्योगिक ईकाइयों पर काम करने वाले और कॉल सेंटर और सॉफ्टवेयर में काम करने वाले के लिए नियम बने हैं, लेकिन मजदूर संगठनों के लिए कोई नियम नहीं है।

ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूरों की स्थिति भी काफी बदतर हैं। फोटो- विनय

मजदूरों को लेकर की जाएंगी बड़ी-बड़ी बातें

एक मई को पूरी दुनिया में मजूदर दिवस मनाया जाता है। मजदूरों को लेकर बड़ी-बड़ी बातें और कई घोषणा हुईं।, लेकिन सुदूर गाँव-देहात में दो जून की रोटी के लिए खून-पसीना बहा रहे खेतिहर मजूदरों पर यथार्थ में चर्चा नहीं हुई। ऐसा इसलिए है क्योंकि देश के अधिकतर जो मजदूर संगठनों के एजेंडे में खेतिहर मजदूर हैं ही नहीं। खेतिहर मजदूरों को सरकार की तरफ से जारी न्यूनतम मजदूरी भी नसीब नहीं हो रही है, लेकिन इसके बाद भी इस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। खेतिहर-मजदूरों के बीच लंबे समय से काम करने वाले अखिल भारतीय खेत एवं ग्रामीण मजदूर सभा के नेता विनोद भारद्वाज ने बताया ''गाँव में रहने वाले अधिकतर खेतिहर मजदूर भूमिहीन हैं। गाँव के बड़े किसान के खेत में काम करने वाली इन खेतिहर मजबूरों को बहुत कम पैसा या इसके बदले इतने मूल्य का धान और गेहूं मिलता है, जिससे इनकी आर्थिक स्थिति दयनीय है।''

देश के जो बड़े मजदूर संगठन हैं, उनका काम सिर्फ शहरों तक और कारखानों से लेकर दूसरे श्रम के कामों में लगे लोगों के बीच ही है। खेत में काम करने वाले मजदूरों तक अपना आधार बढ़ाने के लिए मजदूर संगठनों के पास कोई योजना नहीं है, जिसका नतीजा है कि खेत मजदूर उपेक्षित हैं।
प्रो. रमेश शरण, अर्थशास्त्री और रांची विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष 

देश के जो बड़े मजूदर संगठन हैं, वह किसी न किसी राजनीतिक पार्टियों से संबद्ध हैं। देश का सबसे बड़ा मजूदर संगठन भारतीय मजदूर संगठन, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़ा हुआ है, वहीं देश का सबसे पुराना मजदूर संगठन ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस यानि एटक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्ध है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के पास ताकतवर सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन यानि सीटू नामक मजदूर संगठन है, वहीं कांग्रेस से इंटक नाम से मजदूर संगठन है। कम्युनिस्ट पार्टियों से अपनी स्थापना के शुरुआती दिनों में खेतिहर मजूदरों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने के लिए खेतिहर मजूदर सभा और संगठन नाम से संगठन बनाई, लेकिन बदलते समय के अनुसार यह संगठन गाँवों में अपना वजूद खो बैठे।

मजदूर दिवस, मजदूरों की स्थितियों में क्या बदलाव आएगा ?

कोई भी नहीं देता ध्यान

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) से जुड़ा अखिल भारतीय खेत एवं ग्रामीण मजदूर सभा जरूर उत्तर प्रदेश में समय-समय खेतिहर मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी 692 रुपया करने, हर परिवार के दो सदस्यों को एक वर्ष में 300 दिन काम देने, खाद्य सुरक्षा के तहत प्रत्येक परिवार को 50 किलो अनाज और ईंधन देने की मांग करते हुए आवास व रोजगार को अधिकार बनाने की मांग को लेकर धरना-प्रदर्शन करता रहता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में इसका मजबूत आधार नहीं होने के कारण इसकी आवाज नक्कार खाने में तूती की आवाज तक है। इसपर सरकार से लेकर श्रम विभाग तक कोई ध्यान नहीं देता।

क्यों जारी है गाँव से शहरों की तरफ मजदूरों का पलायन

लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास से महज़ कुछ दूरी पर सड़क किनारे एक ऐसा घर हैं, जिसे आप घर नहीं कह सकते है। पुल निर्माण में इस्तेमाल होने वाले सीमेंट पाइप को मजदूर घर बनाकर रहने को मजबूर हैं।

सीमेंट पाइप को अपना घर बनाकर रहने वाले रामू (19 वर्षीय) को आज काम नहीं मिला है, गमछा से अपना पसीना पोछते हुए बताते हैं, '' मजदूरी के लिए शहर आना हमारी मजबूरी है। हमको गाँव में 250रूपए मजदूरी मिलती है, लेकिन जरूरी नहीं है कि रोज वहां पर काम मिल ही पाए। शहर में काम करने पर मजदूरी 350 रूपए मिलती है और यहां रोजाना काम भी मिल जाता है।''

रामू आगे बताते हैं, ''सरकार हमारे लिए कुछ नहीं करने वाली है। सरकार अगर कोई ऐसा काम करे जिससे हम लोगों को अपने गाँव से शहर के लिए पलायन न करना पड़े। कोई अपने परिवार से दूर रहना नहीं चाहता है। मजबूर हैं पलायन के लिए क्या करें?"

ऐसे लखनऊ में कटती हैं हजारों मजदूरों की रातें। फोटो बसंत

'गाँव में काम करने से पैसा बिल्कुल ही नहीं बचता, जितना कमाओ उतना खत्म हो जाता है। पहले गाँव में खेतो में काम करता था, लेकिन परेशान होकर शहर चले आए। यहां पर पैसे बचत जाते है। हम ही नहीं हमारे जैसे कई और मजदूर हैं जो खेतो से मजदूरी छोड़कर शहर आ गये हैं।

भारतीय जनगणना 2011 के अनुसार देश में वर्ष 2011 तक 45.36 करोड़ लोगों ने काम की तलाश में पलायन किया है। इससे में 68 प्रतिशत ऐसे लोग शामिल थे, जिन्होंने काम के लिए गाँवों से शहर में पलायन किया।

नोट: ये खबर 1 मई 2017 की है। आज मजदूर दिवस है, यानि मजदूरों का दिन, मजदूर दिवस। इसीलिए इस खबर को दोबरा शेयर की जा रही है।

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