ओडिशा: सड़कों पर कलाबाजी दिखाने से लेकर चटाई बनाने का सफर, एक आदिवासी समुदाय की कहानी

ओडिशा में मुंडापोटा केला जनजाति की युवा पीढ़ी अपने बड़ों को हमेशा रोजी रोटी के लिए अपनी सांस रोक कर अपने सर को मिट्टी में दबाते देखा है। लेकिन इस समुदाय के कई सदस्य अब खजूर के पत्तों से चटाई और झाड़ू बना रहे हैं ताकि रोजाना की मूलभूत जरूरतों को पूरा किया जा सके। हालांकि, ये समुदाय अभी भी पीने के साफ पानी के लिए तरस रहा है।

Update: 2022-04-26 11:03 GMT

चौबीस साल के बीजू प्रधान अपनी मुंडापोटा केला जनजाति के पुरुष सदस्यों को अपनी सांस रोककर और कुछ सिक्कों के लिए मिट्टी में अपना सिर दफनाते हुए देखकर बड़ा हुए हैं, क्योंकि तमाशाइयों की तरफ से चंद सिक्कों के लिए समुदाय की महिलाएं तमाशे के लिए भीड़ इकट्ठा करने के लिए ढोल बजाती हैं। शर्म की हद तक तमाशे की दर्दनाक यादें उनके दिमाग में गहराई तक बैठ गई हैं।

ओडिशा के नयागढ़ जिले के सोबलेया गांव में मुंडापोटा केला आदिवासी समुदाय के एक सदस्य प्रधान ने बताया, "यह ऐसा काम है, जिसको हमारा समुदाय पीढ़ियों से रोजी रोटी के कर रहा है... लेकिन मैं नहीं करना चाहता हूँ। मैं अपने जीवन को इस तरह जोखिम में डालने के लायक नहीं हूं, यहां तक कि अब लोग भी इस सार्वजनिक प्रदर्शन में रुचि नहीं रखते हैं और हम लोग मुश्किल से इससे कुछ कमा पाते हैं।"

मुंडापोटा केला जनजाति एक गैर-अधिसूचित जनजाति है, जिसका असल क्षेत्र पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश के रायलसीमा का इलाका है। समुदाय के मुख्य आधार के रूप में सड़कों पर जोखिम भरे प्रदर्शन के लिए जानी जाती है। इस जनजाति के लोग आंध्र प्रदेश से लेकर ओडिशा तक में फैले हुए हैं।


मुंडापोटा केला के 20 परिवारों का एक समूह ओडिशा के सोबालेया गांव के बाहरी इलाके में एक पहाड़ी की ढलान पर रहता है, जो बिजली या पेयजल जैसी बुनियादी सुविधा से महरूम हैं। इस जनजाति के सदस्य जीवन के लिए खतरनाक स्टंट करने से लेकर खजूर के पत्तों से झाड़ू और चटाई बनाने तक के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

एक 24 साल के नौजवान ने बताया, "मेरी उम्र के लोगों ने खजूर के पत्तों से झाड़ू बनाना शुरू कर दिया है। हम उन्हें साप्ताहिक हाट (स्थानीय बाजार) में बेचते हैं और हम उससे बेहतर कमाते हैं जो हमारे बुजुर्ग सड़क पर प्रदर्शन करके कमाते थे। मुझे यह काम अपमानजनक और अमानवीय भी लगता है"।

53 साल की गीता प्रधान जो सोबालेया गांव की रहने वाली हैं वह भी पिछले कुछ समय से खजूर का झाड़ू और चटाई बना रही हैं।

उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, "मैं पिछले 30 सालों से झाड़ू और चटाई बनाकर अपना जीवन यापन कर रही हूं। मेरी तरह, कई केला (आदिवासी लोग) पास के बाजारों में झाड़ू और चटाई बेचकर अपनी रोजी रोटी चला रहे हैं।" उन्होंने बताया, "अब बहुत कम लोग रोजी रोटी के लिए मिट्टी में दबते हैं। ऐसे मनोरंजन करने वालों की शायद ही कोई मांग होती है और लोग ऐसा करते समय हमारे आदमियों की नजर अंदाज कर देते हैं।"

खजूर के पेड़

दास पल्ला ब्लॉक के एक सामाजिक कार्यकर्ता कुंजाबिहारी पात्रा ने बताया, "खजूर का पेड़ करीब के जंगलों में सबसे महत्वपूर्ण पौधों में से एक है। आदिवासी लोग इसके पत्तों का इस्तेमाल हाथ के पंखे, झाड़ू, चटाई, टोकरी, बैग आदि बनाने के लिए करते हैं।"

उन्होंने बताया, "देहाती लोग पास के जंगल से खजूर के पत्ते एकत्र करते हैं। वह खजूर की शाखाओं को एहतियात से काटते हैं ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि शाखा वापस बढ़ सकती हैं।"


गीता प्रधान ने बताया, "पास के हाट में हम अपने झाड़ू बीस रुपये प्रति पीस बेचते हैं, जबकि एस चटाई पर खरीददारों से करीब सौ रुपये मिलते हैं। अपनी जान जोखिम में डालने के बजाय इन चीजों को बनाना और बेचना कहीं बेहतर है।"

पानी के लिए हर दिन की लड़ाई

जबकि मुंडापोटा केला के सदस्य रोजी रोटी के लिए नए साधन खोज रहे हैं, फिर भी वे साफ पेयजल से महरूम हैं। आदिवासी महिलाओं को पानी लाने के लिए अक्सर दिन में कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है।

ये आदिवासी, खास तौर से महिलाएं और बच्चे, आसपास के इलाकों से पीने का पानी लाने के लिए रोजाना तीन-चार घंटे चिलचिलाती धूप में बिताते हैं।

निकटतम तालाब, जिसका इस्तेमाल ये निवासियों पानी के लिए करते हैं, उनके घरों से लगभग एक किलोमीटर दूर है। और पानी अत्यधिक दूषित होता है। ऐसे दिनों में महिलाओं को पानी लेने के लिए 6 से 8 किलोमीटर तक चलना पड़ता है।

सोबालेया गांव के 48 वर्षीय निवासी महादेव प्रधान ने शिकायत की, "अधिकारी समस्या को हल करने के लिए काम नहीं कर रहे हैं। यहां पानी की स्थिति वास्तव में खराब है। हमारे पास पीने के लिए बिल्कुल पानी नहीं है। हम तालाबों और गड्ढों से पानी पीने के लिए मजबूर हैं। राजनेता सिर्फ वोट के लिए हमारे पास आते हैं लेकिन हमारी समस्याओं को हल नहीं करते हैं।"


मुंडापोटा केला समुदाय अलग थलग जीवन जीता है। यह सप्ताह में सिर्फ एक बार होता है जब कुछ आदिवासी लोग दासपल्ला ब्लॉक मुख्यालय में साप्ताहिक हाट से नमक, मिट्टी का तेल और खाना पकाने का तेल खरीदने के लिए पहाड़ियों से नीचे आते हैं, जो पहाड़ी से लगभग सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

एक पर्यावरणविद और ओडिशा के वन्यजीव सोसायटी के सचिव विश्वजीत मोहंती ने गांव कनेक्शन को बताया, "सोबालेया गांव की केला सबसे गरीब जनजाति है और ये पहाड़ियों में रहते हैं। मुख्य शहरों से भौगोलिक दूरी उनके विकास को बाधित करने वाला एक अन्य कारक है।" उन्होंने बताया, "पहाड़ियों पर उनके घर मुनासिब सड़कों के बिना हैं और इन आदिवासी निवासियों को बिजली, पेयजल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जैसी सुविधाएं अभी तक उपलब्ध नहीं कराई गई हैं।"

जब गांव कनेक्शन ने दासपल्ला ब्लॉक के ब्लॉक विकास अधिकारी (बीडीओ) से संपर्क किया तो अधिकारी ने बताया, इन हाशिए पर पड़े समुदायों को राहत देने के प्रयास जारी है।

विश्वरंजन विश्वास ने गाँव कनेक्शन को बताया, "प्राधिकारी मुंडा पोटा केलास को वृद्धावस्था पेंशन, विधवा पेंशन, राईज अंडर वन रुपए योजना प्रदान कर रहे हैं। समुदाय को सरकार की अन्य लाभकारी कार्यों के तहत भी कवर किया जा रहा है। हम जल्द ही उन्हें उनके गांव के पास ट्यूबवेल खोदकर पीने का पानी उपलब्ध कराएंगे।"

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अनुवाद: मोहम्मद अब्दुल्ला

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