'नोटबंदी, गांव बंदी के बाद अब वोटबंदी होगी'

किसान नेता और कृषि जानकार केदार सिरोही पिछले कई वर्षों से मध्य प्रदेश में किसानों की आवाज़ उठा रहे हैं। गांव बंद को लेकर वो चर्चा में रहे।

Update: 2018-06-18 05:36 GMT

हरदा (मध्य प्रदेश)। "पहले देश में नोटबंदी हुई, जिसने अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया, किसानों को नुकसान हुआ। फिर सरकारों और प्रशासन के नजरिए से परेशान होकर किसानों ने 'गांव बंदी'की, अगर अब भी किसानों की आवाज़ नहीं सुनी गई तो अब 'वोटबंदी'होगी। चुनावों में किसान उसे ही अपना समर्थन देंगे जो उनके हक की बात करेगा।" केदार सिरोही, कोर सदस्य आम किसान यूनियन कहते हैं।

किसान नेता और कृषि जानकार केदार सिरोही पिछले कई वर्षों से मध्य प्रदेश में किसानों की आवाज़ उठा रहे हैं। गांव बंद को लेकर वो चर्चा में रहे। भारत में खेती और किसानों की समस्याओं को लेकर गांव कनेक्शन के डिप्टी न्यूज एडिटर अरविंद शुक्ला ने उनसे खास बातचीत की।

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किसान और सरकार के बीच खाली जगह थी, उसे भरना था

"देखिए खेती की तकलीफ आज से नहीं है। देश ने आज़ादी के पहले नील आंदोलन समेत कई आंदोलन देखे हैं। आजादी के बाद भी कई आंदोलन हुए। किसान सड़कों पर उतरें, रोड जाम किया। लेकिन उन्हें वो फायदा नहीं हुआ। पिछले वर्ष भी किसानों ने आंदोलन किया। किसानों के सड़क पर उतरते ही हंगामा हुआ और पुलिस ने हमारे 6 लोगों को गोली मार दी। उग्र होने के बाद दूसरी तरफ मुड़ गया। काफी लोगों को नुकसान हुआ,किसानों की मांगों से लोगों का ध्यान हट गया।

ये सब देखकर हमें लग ना तो हम दिल्ली घेर सकते हैं, और न ही लाखों लोगों को लेकर सड़क पर उतर सकते हैं। किसान संगठनों के पास पैसा नहीं है। हमारी ताकत गांव में हैं। तो क्यों न हम गांव में बैठकर अपनी आवाज़ उठाएं।

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किसान देश के सबसे बड़े उत्पादक हैं। किसान खेती करता है तो देश खाता है। तो क्यों न किसान अपनी उसी ताकत का इस्तेमाल करें। यूरिया को दूध पीकर कोई पहलवान नहीं बन सकता है। इसीलिए हम लोगों (किसान संगठनों) ने मिलकर सोचा कि गांव के महत्व को जगाते हैं। बिना किसी शोर-शराबे के, हिंसा के गांव बंद करते हैं।

खेती-किसानी की बात नहीं करते


गांव का महत्व खत्म हो रहा है। गांव में चौपालें आज भी लगती हैं, लेकिन वहां बैठने वाले लोग खेती किसानी की बातें नहीं करते, सबके मुद्दे अलग-अलग होते हैं। देश को बांट दिया गया है, राजनीति, जाति और पार्टियों के नाम पर । लेकिन हमारे गांव ने काफी किसानों को एक मंच दिया है। किसानों की असल समस्याओं पर चर्चा होने लगी हैं।

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शहर सब्जियां-दूध, अनाज न भेजने का फैसला इसलिए जरुरी था क्योंकि इसके पीछे इकनॉमिक्स जुड़ी है। किसान की सब्जी थोक में 2 से 3 रुपए किलो बिकती है। शहर और कस्बे में रहने वाले उपभोक्ता को 60 रुपए किलो मिलती है। कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश में किसान का लहसुन 3 रुपए किलो बिक रहा था, उस वक्त दिल्ली और मुंबई की बाजार में ये 90 रुपए किलो था। मतलब 30 गुना मुनाफा कोई और खा रहा। गांव के बाजार को विकसित कर इसे कम किया जा सकता है। गांव के लोग मिलकर एक इंटर्नल मार्केटिंग चैनल बनाए। गांव में बेरोजगारी है, तो हम यहीं रोजगार पैदा करें।

हमारे लोगों ने नहीं फेंका दूध और सब्जियां…

हम लोग इसका समर्थन नहीं करते। गांव बंद के दौरान की जगह से दूध-सब्जियां भेजने की तस्वीरें आईं, जिस पर आम लोग नाराज हुए। लेकिन इस बात के भी दो नजरिए हैं। दूध गिरता देख जिन्हें दुख हुआ, उन्हें किसान को फांसी पर लटका देख भी दुख होना चाहिए। एक दिन में 10-12 लोगों ने दूध बहाया लेकिन उसी दौरान पूरे देश में 35 किसानों ने आत्महत्या के भी आंकड़ें हैं।

गांव बंद कितनी सोच बदली और सरकार का क्या रवैया रहा ?

एक आम किसान तहसीलदार के सामने खड़ा रहता था और वो उसकी सुनता नहीं था पर अब किसान जब अपनी सुनाने लगा है तो तहसीलदार उसे कुर्सी देता है और उसकी बात सुनता है। किसान जागरूक हुआ हैं अपने अधिकारों के लिए अब किसान गुमराह होने वाला नहीं है। हमारा उद्देश्य जन जागरण करना है हम मुद्दों के हर पक्ष को सामने रखते हैं ताकि हमारा अवाम किसान उसपे बात करने लगे। इसका परिणाम ये हैं कि मंत्री और नेता एसी ऑफिस छोड़कर चौपाल लगा रहे हैं। अधिकारी गांव-गांव घूम रहे हैं। इस बार किसान गांव में रहे और पुलिस सड़क पर।

आगे की क्या रणनीति है

देखिए हमने अपने मुद्दों को पटल पर रख दिया है। किसान यूनियन (संगठन) का जन्म ही इसलिए होता है क्योंकि वो मुद्दों को समस्याओ को उठाने में सक्षम होते हैं। अब किसान संहठन हो गए हैं और ये साफ़ है कि जो पार्टी हमारी मांगे समझेगी उसको ही हमारा समर्थन मिलेगा। पहले नोट बंदी हुई जो अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं थी, फिर गांवबंदी जो प्रशासन के नजरिए से ठीन नहीं थी। अब अगर इन्होने हमारी नहीं सुनी तो वोट बंदी होगी जो राजनीतिक पार्टियों के लिए ठीक नहीं होगी।

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