जिन कीड़ों के सामने बीटी कॉटन फेल, उनका मुकाबला करेंगी ओडिशा की ये उन्नत कपास प्रजातियां

ओडिशा के भवानीपटना सेंटर ने अब तब 20 प्रजातियां विकसित की हैं जिनका अलग-अलग रिसर्च सेंटरों पर मल्टी लोकेशन ट्रायल चल रहा है। 6 ऐसी प्रजातियां हैं जो जल्द ही जारी की जाने वाली हैं।

Update: 2018-08-06 08:20 GMT

ओडिशा के भवानीपटना कपास रिसर्च स्टेशन के वैज्ञानिकों ने कीड़ों के हमलों से बेअसर और अधिक उत्पादन देने वाली कपास की दो प्रजातियों का विकास किया है। बीएस 279 और बीएस 30 नाम की ये गैर बीटी कॉटन प्रजातियां कपास की पारंपरिक प्रजातियों से कई मामलों में बेहतर हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि यह उन कीटों से भी सुरक्षित है जो बीटी कॉटन के लिए बड़ा खतरा साबित हो रहे हैं।

केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान के ओडिशा के भवानीपटना रिसर्च स्टेशन के वैज्ञानिकों का दावा है कि इनके इस्तेमाल से किसानों को बेहतर उपज और अच्छी क्वॉलिटी का रेशा तो मिलेगा ही खेती की लागत में भी कमी आएगी। इसकी खेती कम पानी में भी हो जाती है और कीटनाशकों का भी कम से कम इस्तेमाल होता है। भारत में बीटी कॉटन की खेती की शुरुआत 2002 से हुई और धीरे-धीरे देश के बड़े हिस्से में इसे अपनाया गया लेकिन ओडिशा ने शुरू से ही बीटी कॉटन और दूसरी जीएम फसलों से दूर रहने की नीति अपनाई। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), गुजरात के पूर्व निदेशक एम. एस. बसु का कहना है, "यही वजह है कि ओडिशा के कृषि विश्वविद्यालयों में देसी फसलों की उन्नत प्रजातियां विकसित करने पर काम होता रहा है। इसलिए जब बीटी कॉटन के खिलाफ कीटों ने प्रतिरोधक क्षमता कर ली है और किसानों को नुकसान उठाना पड़ रहा है ऐसे में यही रास्ता देश के किसानों और खेती को बचा सकता है।" बसु बताते हैं, "ओडिशा ही नहीं राजस्थान में भी बहुत से इलाके हैं जहां अब देसी बीजों की उन्नत प्रजातियां उगाई जा रही हैं।"

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बीटी कॉटन पिंक बॉलवर्म कीड़े के हमले रोक पाने में विफल हो चुका है

देश में केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान या सीआईसीआर के 21 सेंटरों में से एक ओडिशा के भवानीपटना सेंटर ने अब तब 20 प्रजातियां विकसित की हैं जिनका अलग-अलग रिसर्च सेंटरों पर मल्टी लोकेशन ट्रायल चल रहा है। 6 ऐसी प्रजातियां हैं जो जल्द ही जारी की जाने वाली हैं। फिलहाल विकसित बीएस 279 प्रजाति में जैसिड नाम के चूषक कीट के हमलों के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता है इसी तरह बीएस 30 पर भी कीटों का असर नहीं होता।  

इन दोनों प्रजातियों से प्रति हेक्टेयर 20 से 25 क्विंटल उपज मिलेगी इसके अलावा किसानों को छूट है कि वे इनके बीज अगली फसल के लिए रख सकते हैं।

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कृषि विशेषज्ञ और खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक देविंदर शर्मा कहते हैं, "जो काम भवानीपटना के वैज्ञानिक और शोधकर्ता कर रहे हैं वह हमें आज से 10 साल पहले शुरू कर देना चाहिए था। मॉन्सेंटों का जीएम कपास बीटी कॉटन शुरुआती कामयाबी के बाद नाकाम हो गया। जिस कीड़े पिंक बॉलवर्म के खिलाफ इसे विकसित किया गया था उसी के हमले ये रोक पाने में विफल हो गया। इससे बचने के लिए किसानों ने बड़े पैमाने पर कीटनाशकों का इस्तेमाल किया। इसका हानिकारक असर किसानों और खेती दोनों पर देखा जा रहा है। दूसरों की देखादेखी जिन किसानों ने कपास की खेती की थी वे लगभग बरबाद हो गए। कंपनियों का कोई नुकसान नहीं हुआ। पर देर से ही सही हमारे वैज्ञानिक सही दिशा में बढ़ रहे हैं।"

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क्या होती हैं जीएम फसलें

जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसलें या आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलें ऐसी फसलें हैं जिनमें किसी दूसरी जाति या जीव के जीन्स कृत्रिम तरीके से डाले जाते हैं। जीएम फसलें अधिकतर कीट प्रतिरोधी या खरपतवार प्रतिरोधी होती हैं।

भारत में जीएम फसलें

भारत में वाणिज्यिक स्तर पर उगाई जाने वाली पहली जीएम फसल बीटी कॉटन थी। इसे बहुराष्ट्रीय कंपनी मॉन्सेंटो ने पिंक बॉलवर्म नामके एक कीड़े के हमलों से बचाव के लिए विकसित किया गया था। बीटी कॉटन के चलन में आने से भारत दुनिया में सबसे ज्यादा कपास उगाने वाला देश बना। 2016-17 में 5.8 मिलियन टन कपास के उत्पादन के साथ भारत दुनिया में नंबर एक स्थान पर रहा। एक समय में देश के कपास क्षेत्र के 90 फीसदी इलाके में बीटी कॉटन उगाई जाती थी। बीटी कॉटन के अलावा किसी और जीएम फसल की वाणिज्यिक खेती को अनुमति नहीं मिली है। हालांकि, बीटी बैंगन और सरसों के लिए कोशिश गई पर उनका काफी विरोध हुआ। 

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