दिल्ली के हजारों पल्लेदारों के सामने रोजी-रोटी का संकट, मजदूर का दर्जा न होने से नहीं मिलती सरकारी मदद

अपनी पीठ पर रोजाना कई कुंतल अनाज, फल और सब्जी ढोने वाले दिल्ली के पल्लेदारों की कोरोना महामारी में कमाई काफी कम हो गई है। सैकड़ों पल्लेदारों को रोज काम तक नहीं मिल पा रहा है। इन पल्लेदारों की समस्या ये भी है कि दिल्ली सरकार इन्हें मजदूर नहीं मानती इसलिए श्रमिकों को मिलने वाली मदद भी नहीं मिल पातीं।

Update: 2021-06-19 14:56 GMT

दिल्ली की आजादपुर फल और सब्जी मंडी में हजारों पल्लेदार मजदूरी करते हैं लेकिन उन्हें कानूनन मजदूर नहीं माना जाता है। फोटो- आकाश

आजादपुर मंडी (दिल्ली)। देश की राजधानी दिल्ली की सबसे बड़ी सब्जी मंडी में सब्जी-फल ट्रकों से उतारने और चढ़ाने वाले हजारों पल्लेदारों के सामने इन दिनों आजीविका का संकट है। लॉकडाउन में ज्यादातर समय बेरोजागरी में बिताने वाले पल्लेदारों के मुताबिक अनलॉक में भी उनके पास परिवार को पालने लायक काम और कमाई नहीं है।

बिहार में खगड़िया जिले के थाना अलौली के गांव मूजौना के रहने वाले पल्लेदार सियाराम यादव (55वर्ष) इन दिनों काफी परेशान हैं, क्योंकि मंडी में उनके पास काम नहीं है। जो पैसा बचाया था, उससे खाना खा रहे हैं। घर पैसे नहीं भेज रहे तो गांव में परिवार का खर्च कैसे चलेगा, ये सोचकर वो परेशान हो जाते हैं।

"काम ही नहीं है। पिछले लगभग 2 हफ्तों से खाली बैठा हूं। खाली बैठकर खाना है, जिससे घर पर भी कुछ पैसा नहीं भेज पा रहे हैं। यहीं मंडी में रहते हैं, यहीं खाना बनाते हैं और खाते हैं। जितनी बोरियां उठाएंगे उसके आधार पर हम लोगों को पैसा मिलता है। जो घर भेजने के लिए बचा रखे थे उसी में से खर्च हो रहा है। अब तो यही सोच रहे हैं कि भूख से अपनी जान बचाएं कि अपने परिवार की?" सियाराम कहते हैं।

बिहार में ही खगड़िया जिले के दलानहरिपुर गांव के अनिल सिंह (46वर्ष) एक आलू आढ़ती के यहां पल्लेदारी करते हैं। शरीर साथ नहीं देता कि वो कुंटलों का बोझ अपनी पीठ पर उठाएं लेकिन परिवार का खर्च चलाने के लिए वो ये काम रोज करते हैं। ऐसे हजारों मजदूरों की कहानियों का केंद्र है दिल्ली की आजादपुर मंडी, जहां इन्हें पल्लेदार के नाम से जाना जाता है। आजादपुर मंडी में सियाराम और अनिल सिंह जैसे हजारों लोग बिहार, पूर्वी यूपी और पश्चिम बंगाल, झारंखड के आकर यहां काम करते हैं।

आजादपुर फल सब्जी मंडी

कोरोना महामारी के भयानक दौर ने हर वर्ग को परेशान किया लेकिन पल्लेदारों के लिए ये स्थिति ज्यादा ही भयावह रही है।

"हम लोग यहां बहुत सालों से काम कर रहे हैं लेकिन आजतक किसी भी सरकार ने एक रुपए तक की मदद नहीं की। सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता कि मजदूर मरें या जिएं। 2019 में आजमगढ़ के रहने वाले अशोक, जो यहां मंडी में 20 सालों से काम कर रहे थे, उनकी डेंगू से मौत हो गई थी। कोई पूछने वाला नहीं था। यहां पीने का पानी तो शुद्ध रूप से मिलता नहीं है और चीजों की क्या ही बात की जाए।" बिहार के समस्तीपुर जिले में गांव कमलेश्वरी पोस्ट मर्थुआ के पल्लेदार अमोल यादव हालात पर गुस्सा दिखाते हैं। वो प्याज आढ़ती के साथ काम करते हैं।

आजादपुर मंडी Azadpur Mandi  में सजग नाम की संस्था के माध्यम से पल्लेदारों के बीच काम करने वाले प्रकाश कुमार (45वर्ष) के मुताबिक मंडी में करीब 2500 आढ़ती (कमीशन एजेंट) हैं। हर आढ़ती के यहां औसतन 6-15 पल्लेदार काम करते हैं। कुछ मजदूर आढ़ती के बगैर भी काम करते हैं।

प्रकाश कहते हैं, "मंडी में फल-सब्जी सब मिलाकर करीब 40 हजार पल्लेदार जरुर होंगे। लेकिन इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद सरकार द्वारा इन पल्लेदारों को इस कोरोना काल में किसी भी प्रकार की कोई सहायता नहीं की गई।"

प्रकाश के मुताबिक काम बंद या कम होने से बहुत सारे लोगों के सामने खाने का संकट हो गया था। छात्रों के एक समूह 'फीडिंग वर्कर्स ऑफ दिल्ली' के नाम से कैंपेन चलाकर राशन बांटने का काम कर रहा है। इस ग्रुप में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र और स्वतंत्र पत्रकार शामिल हैं।

निर्माण मजदूरों से भिन्न है पल्लेदारों की स्थिति

असंगठित क्षेत्र के मजदूरों में तमाम क्षेत्रों के मजदूर हैं लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों के मजदूरों के हालात भी अलग हैं। निर्माण क्षेत्र के मजदूर भी असंगठित क्षेत्र में ही आते हैं लेकिन उनकी स्थिति पल्लेदारों से भिन्न है। निर्माण मजदूरों के लिए द बिल्डिंग एंड अदर्स कंस्ट्रक्शन वर्कर (REGULATION OF EMPLOYMENT AND CONDITIONS OF SERVICE) ACT, 1996 में पास किया गया था। इन कर्मचारियों की भलाई के लिए एक बोर्ड भी है, जिसने दोनों साल के लॉकडाउन में मजदूरों को तीन बार 5000-5000 रुपए दिए हैं।

निर्माण श्रमिकों के लिए इस कानून को पास कराने में अहम भूमिका निभाने वाले 'निर्माण' संस्था के संस्थापक सुभाष भटनागर गांव कनेक्शन को बताते हैं, "पल्लेदारों के लिए अभी दिल्ली में कोई कानून नहीं है जबकि कंस्ट्रक्शन वर्कर्स के लिए 1996 में कानून बना जिसके अंतर्गत 10 लाख से अधिक लागत के प्रोजेक्ट पर मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए 1-2 प्रतिशत सेस लगाकर उस पैसे को एक कमेटी के पास जमा करते हैं और वो कमेटी निर्माण मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा का ध्यान रखती है। दिल्ली के केंद्रीय कंस्ट्रक्शन वर्कर्स वेलफेयर बोर्ड के पास मजदूरों के 30-32 हजार करोड़ रुपए हैं और इस बोर्ड ने कोरोनाकाल में मजदूरों को तीन बार में 5000-5000 रुपए की मदद की है।"

पल्लेदारों के मुताबिक उन्हें नगद आर्थिक सहायता तो दूर की बात केंद्र या दिल्ली सरकार किसी से भी खाना या सूखा राशन तक नहीं मिला। क्योंकि मंडियों के पल्लेदारों को सरकार मजदूरों की श्रेणी में मानती ही नहीं है।

सरकार नहीं मानती इन्हें मजदूर

आजादपुर मंडी में पल्लेदारों को राशन बांटने वाले छात्रों में से एक रोशन पांडेय (25 वर्ष ) गांव कनेक्शन को बताते हैं, "2019 में एक मजदूर की ट्रक के नीचे आ जाने से मौत हो गई, लेकिन उसके पास एक सबूत भी नहीं था कि वो वहां मजदूरी करता है। पुलिस ने आंदोलन कर रहे मजदूरों को डरा-धमका कर मामला रफा-दफा कर दिया था।"

वो आगे बताते हैं, "दिल्ली कृषि उपज विपणन विनिमयन अधिनियम- 1998 के अनुसार एपीएमसी ( APMC) 07 तरीके का लाइसेंस जारी करती है। जिसमें पल्लेदारों के लिये G श्रेणी के लाइसेंस का प्रावधान है। लेकिन कभी संसाधनों और मैन पावर की कमी, तो कभी तकनीकी खामियों का हवाला देकर पल्लेदारों को लाइसेंस देने के सवाल को टाल दिया जाता है।"

इस G श्रेणी का लाइसेंस पल्लेदारों को एक पहचान देता है। इस लाइसेंस के मिल जाने के बाद पल्लेदारों को एक पहचान मिल जाती है कि वो एक मजदूर हैं। अगर उनके साथ कोई दुर्घटना होती है तो वो इस लाइसेंस के आधार पर मुआवजे की मांग कर सकते हैं।

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केजरीवाल सरकार पर बिल लटकाए रखने का आरोप

नागरिक समाज के संगठनों, एनजीओ आदि के द्वारा दिल्ली मथाड़ी कानून तैयार किया गया है। The Delhi Mathadi, Palledars And Other Unprotected Manual Workers' (Regulation Of Employment And Welfare) Bill, 2019 नाम से आए इस बिल में असंगठित मज़दूरों के रोज़गार और जीवन की सुरक्षा की गारंटी के लिए कई सारे प्रावधान किए गए थे, लेकिन राजनीतिक उदासीनता के चलते ये बिल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने इसको 2020 के विधानसभा से पहले पेश किया लेकिन एलजी (उपराज्यपाल) द्वारा इसे रोक दिया गया। जिसके बाद करीब डेढ साल का समय हो गया है, इस किसी ने कोई कदम नहीं उठाया।

क्या कहता है विपक्ष

दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता मनीष सिंह गांव कनेक्शन से कहते हैं, "केजरीवाल सिर्फ विज्ञापनों में और टीवी पर दिखते हैं, ग्राउंड पर उनकी पार्टी का कोई नेता नहीं दिखा। स्कूलों में केंद्र सरकार से आया अनाज सड़ रहा है लेकिन केजरीवाल कह रहे हैं कि अनाज बाट रहे हैं। कंस्ट्रक्शन वर्कर्स के लिए केंद्र सरकार से आए 2700 करोड़ रूपए में लगभग आधा तो केजरीवाल ने सिर्फ विज्ञापन पर खर्च कर दिया, अब राशन बांटने का दिखावा कर रहे हैं।"

वो आगे कहते हैं, "विधानसभा चुनावों में मजदूरों का वोट लेने के लिए केजरीवाल ने मजदूरों के हित के लिए बिल लाने का नाटक किया और चुनाव बीत जाने के बाद उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।"

ऑल इंडिया मजदूर कांग्रेस के अध्यक्ष अरविंद सिंह भी अरविंद केजरीवाल सरकार पर निशाना साधते हैं। वो कहते हैं, "मथाड़ी कानून महाराष्ट्र में काफी सफल रहा है। केजरीवाल जब सरकार में आए थे तो उन्होंने इसे दिल्ली में भी लागू करने का वादा किया था लेकिन आज तक मजदूरों को केवल झांसा ही दे रहे हैं।"

गांव कनेक्शन ने इस संबंध में आम आदमी पार्टी के नेताओं से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने बात करने से मना कर दिया। सरकारी पक्ष के लिए संपर्क किया गया है, किसी तरह का जवाब आते ही खबर में जोड़ दिया जाएगा।

इस मुश्किल वक्त में पल्लेदारों के मुताबक आढ़तियों ने भी उनकी मदद नहीं की। समस्तीपुर जिले में मोरकाही गांव के राजाराम यादव (40 वर्ष) पहले दिन भर में 400-500 रुपए कमा लेते थे। अब रोज काम की तलाश में रहते हैं।

"बिहार से यहां हम लोग रोजी-रोटी कमाने आएं हैं। लेकिन यहाँ काम ही नहीं है। पहले काम भी रहता था तो भी 400-500 रूपए कमाने के लिए 16-16 घंटे तक बोरियां उठानी पड़ती थी। मंडी में गाड़ियां आने का कोई समय नहीं है, इसलिए यहीं रहते हैं दिन-रात जब गाड़ी (ट्रक) आती है तो काम करते हैं। व्यापारी तो कहते हैं कि मजदूर शिफ्ट में काम करते हैं लेकिन हमारा काम 24 घंटे का है।"

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