आदिवासी क्षेत्रों की समस्याओं को कैसे दूर किया जाए

आदिवासी समुदायों के लिए कार्यक्रमों और योजनाओं को प्रकृति और गैर शोषित कमाने के तरीकों के साथ इकट्ठा रहने के उनके मूल्यों के साथ जोड़ने की जरूरत है। आदिवासी जीवन शैली से समझौता किए बगैर आदिवासियों के सामने आने वाली चुनौतियों हल सुनिश्चित करने का यही एकमात्र तरीका है।

Update: 2022-06-10 11:35 GMT

ल ही में जारी रिपोर्ट Status of Adivasi Livelihoods 2021 में आय, खाद्य, आहार विविधता, पोषण और साक्षरता को आजीविका परिणामों के संकेतक के रूप में इस्तेमाल किया गया है। रिपोर्ट से पता चलता है कि आदिवासी समुदाय इनमें से कई विकास संकेतकों में पिछड़ रहा है। सभी फोटो: अभिषेक वर्मा

पारिजात घोष/दिबेंदू चौधरी

प्रदान (PRADAN), एक एनजीओ है जो ग्रामीण भारत में गरीबी कम करने के लिए काम करती है, हाल ही में इस संस्था ने आदिवासियों की आजीविका की स्थिति पर रिपोर्ट 2021 जारी की है। यह रिपोर्ट आदिवासी जीवन के दो विरोधाभासी पहलुओं को प्रस्तुत करती है।

एक तरफ, यह रिपोर्ट आदिवासियों को एक समृद्ध संस्कृति, परंपरा और विश्वदृष्टि वाले समाज की शक्ल में प्रस्तुत करती है जो प्रकृति के साथ, उन्होंने नेचर के साथ, आपस में और बड़े समाज के साथ अपने संबंधों को आकार दिया है। आदिवासी व्यक्तिगत तरक्की पर सामुदायिक भलाई को प्राथमिकता देते हैं, एक दूसरे का सहयोग करते हैं, इकट्ठा रहते हैं, प्रकृति के अनुसार जीवन जीते हैं और धन बटोरने को पसंद नहीं करते हैं।

दूसरी तरफ, 2021 की रिपोर्ट से पता चलता है कि आदिवासी ऐसे समुदायों का एक समूह है जो गरीब, अनपढ़, कुपोषित और कमजोर हैं।

क्या यह विरोधाभास अध्ययन डिजाइनर ग्रुप की मानसिकता को दर्शाता है, जो इस विचार से ग्रस्त है कि आदिवासी गरीब लोगों का एक समूह है? क्या यह विरोधाभास हकीकत में मौजूद है? अगर यह विरोधाभास हकीकत में मौजूद है तो इसके संभावित कारण क्या हैं?


इस मुद्दे की गहराई में जाने के लिए, हाल ही में जारी रिपोर्ट Status of Adivasi Livelihoods 2021 में आय, खाद्य, आहार विविधता, पोषण और साक्षरता को आजीविका परिणामों के संकेतक के रूप में इस्तेमाल किया गया है। रिपोर्ट से पता चलता है कि आदिवासी समुदाय इनमें से कई विकास संकेतकों में पिछड़ रहा है।

सवाल यह उठता है कि क्या आदिवासी समुदाय में पाई जाने वाली समस्याओं की वजह से यह विकास संकेतकों में पिछड़ रहा है। या कोई दूसरी वजह हैं। इस लेख में, हमने इस सवालों का बहुत गहराई से पता लगाया है।

छोटे भूमिधारक, मजदूरी करने वाले, जंगलों पर आश्रित आदिवासी

डिजाइन ग्रुप - जिसमें PRADAN (प्रोफेशनल असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन) और VAF (विकास अन्वेश फाउंडेशन) के स्टाफ सदस्य शामिल थे – जिनको आदिवासी स्कॉलर्स, एक्टिविस्ट और गैर सरकारी संगठनों के कार्यकर्ता निर्देशित कर रहे थे। फिर भी इस बात की उम्मीद है कि आम मानसिकता, जो जनजातियों को पिछड़े और शर्मीले लोगों का समूह मानती है, मुकम्मल तौर पर स्टडी ग्रुप के दिमाग पर हावी हो गई है। हालांकि, ऊपर उल्लिखित विरोधाभास केवल डिजाइनर की मानसिकता का परिणाम नहीं हो सकता है।

The Status of Adivasi Livelihoods 2021 रिपोर्ट ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों की आदिवासियों की तस्वीर प्रस्तुत करती है। शहरी क्षेत्रों में आय में भिन्नता देखने की उम्मीद की जा सकती है, क्योंकि शहरों में कई वेतनभोगी मध्यम वर्गीय आदिवासी परिवार हैं, और ग्रामीण क्षेत्रों कोई भी नहीं है।

आय के मामले में भी आदिवासी एक रूपी ग्रुप नहीं है। हालांकि, रोजी रोटी के स्रोतों के मामले में समानता है। ग्रामीण क्षेत्रों में आदिवासी ज्यादातर अपनी रोजी रोटी चलाने के लिए छोटी जोत वाली खेती और मजदूरी पर निर्भर रहते हैं। इसके अलावा कुछ जंगली उत्पादों का संग्रह और मवेशी पालन भी उनकी आय में काफी हद तक योगदान करते हैं।


मध्य भारतीय पठार के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश आदिवासी छोटे जोत वाले किसान होने के साथ साथ मजदूरी कर के कमाने वाले हैं। आम तौर पर उनके सामने ये मुद्दे हैं - आय की कमी, खाद्य असुरक्षा, कुपोषण, आदि। फिर भी, ग्रामीण क्षेत्रों में आदिवासी मुल्क के दूसरे किसानों की तरह नहीं हैं। जंगल के साथ उनका रिश्ता आदिवासियों को रोजी-रोटी के मामले में देश के अन्य किसानों से अलग बनाता है।

एक ही समय में, बांधों के निर्माण, खदानों और खनिज कारखानों की स्थापना और वन्यजीव अभयारण्यों को बढ़ावा देने के लिए आदिवासियों को विस्थापित और बेदखल किया गया है। इसने आदिवासियों को उन लोगों की तुलना में अधिक असुरक्षित बना दिया है जो कोयले और खनिजों से समृद्ध क्षेत्रों में नहीं रहते हैं और जंगल से ढके हुए हैं।

इस प्रकार मध्य भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आदिवासियों की आजीविका के परिणामों को समझने के लिए आय, खाद्य सुरक्षा, भूमि जोत, जंगल तक पहुंच, कुपोषण वगैरह और ज्यादा प्रासंगिक सवाल बन जाते हैं।

अभाव के कारण

हालांकि The Status of Adivasi Livelihoods 2021 की रिपोर्ट आदिवासी समुदायों में अभाव होने के विस्तृत कारणों की पड़ताल नहीं करती है, लेकिन यह कुछ संभावित कारणों की तरफ इशारा करती है। आदिवासी सबसे अधिक संसाधन संपन्न क्षेत्रों में रहते हैं और अभी भी उन संसाधनों तक उनकी पहुंच और नियंत्रण नहीं है। कोलोनियल काल से ही जंगलों तक उनकी पहुंच कम होती जा रही है। जिस जमीन पर उन्होंने अपने घर बनाए हैं, वह उद्योगपतियों और राज्य के लिए आकर्षण का केंद्र रही है।

आदिवासियों को दशकों से विस्थापित और बेदखल किया गया है। आदिवासी क्षेत्रों को सरकारी कार्यक्रमों और सुविधाओं से आजादी के बाद से ही अनदेखा किया जा रहा है।चुनावी राजनीति में आदिवासी इतने अहम नहीं हैं क्योंकि भारत में अनुसूचित जनजाति की आबादी केवल आठ प्रतिशत है। चुनावी राजनीति में उनकी संख्या बहुत कम है। आदिवासियों के लिए सभी कारण बाहरी हैं।

आदिवासियों के पास एक वैश्विक नजरिया है जो गैर-आदिवासियों से अलग है। आदिवासी खुद को प्रकृति के अन्य जीवों से श्रेष्ठ नहीं मानते और मानव उद्देश्यों के लिए धन के बटोरने और प्रकृति के दोहन में विश्वास नहीं करते हैं।

यह वैश्विक नजरिया प्रकृति और समाज के साथ उनके संबंधों को आकार देती है और रोजी-रोटी सहित उनकी प्रथाओं को प्रभावित करती है। इस तरह, रोजी रोटी की स्थिति में यह भी शामिल है कि आदिवासी इस वैश्विक नजरिया को किस हद तक बनाए रख सकते हैं और उस काम कर सकते हैं।

शहरों के आदिवासियों में भी वही वैश्विक नजरिया हो सकता है, भले ही वे अपने जीवन में इस पर कार्य करने में सक्षम न हों। तो, शहरों और गांवों में रहने वाले आदिवासियों के बीच समानताएं हैं, लेकिन असमानताएं भी हैं क्योंकि उनकी रोजी रोटी के मार्ग अलग अलग हैं।

स्वस्थ जीवन की परिभाषा

प्रदान (PRADAN) संयुक्त रूप से अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के साथ एडेप्टिव स्किलिंग थ्रू एक्शन रिसर्च (एएसएआर) नाम से एक एक्शन रिसर्च प्रोजेक्ट चला रहा है। इस एक्शन रिसर्च के तहत, ग्रामीणों के विभिन्न वर्गों को एक अच्छे जीवन के अपने संस्करण को स्पष्ट करने में मदद करने के लिए कई अभ्यास किए गए हैं।

उन्होंने जिन सबसे आम क्षेत्रों के बारे में बात की, वे थे जंगलों और जल निकायों की कायाकल्प, साल भर की फसल के साथ खेतों को उपजाऊ बनाना, पौष्टिक भोजन प्राप्त करना, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचना, एक-दूसरे के साथ रहना, एक-दूसरे की मदद करना आदि। कुछ वर्गों, विशेष रूप से युवा पीढ़ी द्वारा बुनियादी जरूरतों में से एक के रूप में आय का भी उल्लेख किया गया है।


एक तरफ, ये इशारा करते हैं कि बुनियादी मूल्य, जैसे एकजुटता, एक-दूसरे की मदद करना या जंगल के साथ रहना, अभी भी आदिवासी जीवन जगत का मार्गदर्शन कर रहे हैं, और दूसरी तरफ, ग्रामीण क्षेत्रों के आदिवासियों को बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच की कमी का सामना करना पड़ रहा है। जैसे भोजन, पोषण, शिक्षा और आय।

The Status of Adivasi Livelihoods 2021 ने इस वास्तविकता को उद्धरणों, संख्याओं और आंकड़ों के साथ प्रतिबिंबित किया है।

आदिवासियों को अपने विकास के रास्ते खुद तय करने होंगे

2021 की रिपोर्ट बताती है कि आदिवासियों को अधिक सुरक्षित फूड, नकद कमाने वाला, साक्षर या स्वस्थ बनाने के लिए 'विकास' योजनाओं को लागू करना समाधान नहीं है। इसके विपरीत, आदिवासियों के पास अपने वांछित जीवन को परिभाषित करने और वांछित जीवन तक पहुंचने के रास्ते तय करने की अनुमति होनी चाहिए।

ऐसे मामलों में इस बात का अधिक इमकान होगा कि कार्यक्रम और योजनाएं एकजुटता के अपने मूल्यों, प्रकृति के साथ सद्भाव में रहने और गैर-शोषणकारी आजीविका प्रथाओं के साथ रहने में अधिक होंगी। यह सुनिश्चित करने का एकमात्र तरीका है कि वे आदिवासी जीवन शैली से समझौता किए बिना अपने मुद्दों का समाधान कर सकें।

आदिवासी जीवन शैली कमजोरी स्वीकार किए बगैर उनकी सिर्फ प्रशंसा आदिवासियों को और ज्यादा हाशिये पर ले जा सकती है।

पारिजात घोष और दिबेंदू चौधरी  प्रदान (PRADAN) के साथ काम करते हैं, और उस कोर ग्रुप का हिस्सा थे जिसने आदिवासी आजीविका की स्थिति 2021 रिपोर्ट के लिए काम किया था। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं।

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