राजस्थान: "मैं जानता हूं पत्थर काटते हुए मेरी मौत हो जाएगी लेकिन..."

Update: 2018-12-07 06:03 GMT

करौली/ सिरोही/ जयपुर। पूर्वी राजस्थान के एक छोटे से गांव ममचारी में रहने वाले मांग्या खदान में काम करते थे। 38 साल पहले, वह अपने 17 साल के बेटे राजूलाल का हाथ थामकर उसे भी पत्थर की खदान में ले गए, जहां वह अपने छह बेटों के साथ काम करते थे। उन्हें इस बात का अंदाज़ा भी नहीं था कि उन्होंने अपने साथ-साथ अपने बेटों की जान को भी खतरे में डाल दिया है। दस साल पहले मांग्या और उनके दो बेटे एक लाइलाज बीमारी सिलिकोसिस (silicosis) की चपेट में आ गए। उनकी जान चली गई। जबकि राजूलाल और उसके बाकी भाई आज भी अपनी ज़िंदगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हालांकि, वे जानते हैं कि वे एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं।

राजस्थान में चुनाव का समय है और राज्य के सिलिकोसिस से पीड़ित हज़ारों मरीज़ राहत और न्याय का इंतज़ार कर रहे हैं। ये वे मज़दूर हैं, जो खदानों से पत्थर निकालते हैं, उन पर कारीगरी करते हैं तो देशभर में महलनुमा घर बनते हैं। इन्हीं की काम की वजह से, लालकिला, राष्ट्रपति भवन और अक्षरधाम मंदिर जैसी ऐतिहासिक इमारतें बनी हैं, लेकिन फिर भी पत्थर खोदने वाले इन पुरुष और महिलाओं की उपेक्षा की गई है। इनके साथ घोर अन्याय हुआ है। 

राजूलाल (बाएं) अपने भाई शिवशरण के साथ। राजूलाल के सात भाई और उनके पिता सिल्कोसिस से ग्रसित रहे हैं। उनके पिता और दो भाईयों की इसी बीमारी से कुछ साल पहले मौत हो गई थी। फोटो- ह्दयेश जोशी

राजूलाल और उनके भाईयों की तरह कई खनन मज़दूरों के फेफड़ों में सिलिका भर चुकी है। अब वे काम करने लायक नहीं रहे। उन्हें भविष्य की जगह बस अंधेरा ही अंधेरा नज़र आता है। 25 सालों से रेत पत्थर का खनन करने वाले राजूलाल ने कहा, "कहां जाएं? क्या करें? मैं अब कुछ कदम भी नहीं चल पाता हूं। सिलिकोसिस की वजह से मेरा पूरा परिवार अपंग हो गया है। हम सब बेरोज़गार हो गए हैं। हम सिर्फ़ मौत का इंतज़ार कर रहे हैं।"

अपने अस्तित्व की इसी फिक्र को लेकर 1000 से ज़्यादा सिलिकोसिस मरीज़ इस साल अगस्त महीने में राजधानी जयपुर पहुंचे। वहां उन्होंने अपने अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शन किया। उनकी मांग है कि उन्हें विकलांगता पेंशन और हेल्थ कवर दिया जाए।

मौत के जाल में, ज़िंदगी की कमाई

सिलिकोसिस एक फ्राइब्रोटिक फेफड़े की बीमारी है, जो सिलिका को सांस के ज़रिए शरीर के अंदर लेने से होती है। इसके असर से पीड़ित लंबे वक्त तक बीमार रहता है और बहुत तकलीफदेह मौत मरता है। खदान से पत्थर खोदने और पत्थर तोड़ने वाले मरीज़ इस बीमारी का शिकार ज़्यादा बनते हैं। इसके अलावा, रत्न काटने, पत्थर पर नक्काशी करने, मूर्ति बनाने और पॉलिश करने वाले कलाकारों को भी इस बीमारी का जोखिम ज़्यादा होता है।

करौली जिले के कोसारा गांव के 50 वर्षीय नेकराम 32 सालों से पत्थर खोदने का काम करते हैं। कुछ सालों पहले उनकी सेहत तेज़ी से ख़राब होने लगी और उन्हें काम छोड़ना पड़ा। लेकिन, उनके 55 वर्षीय भाई रामप्रसाद अभी भी खदान में काम के लिए जा रहे हैं, यह जानते हुए भी कि उन्हें सिलिकोसिस नाम की जानलेवा बीमारी हो चुकी है। सौराया खदान क्षेत्र में काम करते हुए रामप्रसाद ने कहा, "मैं बीमार होकर भी खदान में काम कर रहा हूं, क्योंकि मेरे पास कमाई का कोई और ज़रिया नहीं है। मैं जानता हूं कि ये पत्थर काटते हुए मेरी मौत हो जाएगी लेकिन मैं काम करना छोड़ नहीं सकता।"

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खदान में काम करते नेकराम और राम प्रसाद। नेकराम ने अब काम बंद कर दिया है लेकिन बीमारी के बावजूद उसका भाई राम प्रसाद खदान काम जारी रखा है। 

इस बीमारी को डायग्नोस करने की कमी की वजह से सिलिकोसिस के मरीज़ों का सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। राजस्थान विधानसभा में इस साल जो राज्य सरकार की सीएजी (कैग) रिपोर्ट पेश की गई, उसके मुताबिक जनवरी 2015 और फरवरी 2017 के बीच 7959 सिलिकोसिस मरीज़ों का पता चला। इन दो सालों में राजस्थान के सिर्फ 5 ज़िलों में ही सिलिकोसिस से 449 मौत हो चुकी हैं। हालांकि ज़मीनी हक़ीकत यह है कि मरीज़ों और मरने वाले मरीज़ों की तादात इससे काफी ज़्यादा है।

राजस्थान के सिरोही ज़िले में इन मरीज़ों के अधिकार के लिए काम कर रहे समूह पत्थर घदई मज़दूर सुरक्षा संघ (पीजीएमएसएस) का दावा है कि श्रम और स्वास्थ्य विभाग की मदद से पिंडवाड़ा के एक ब्लॉक में 5373 मज़दूरों की सिलिकोसिस की जाँच की गई। इन 5373 मज़दूरों में 2098 मामले पॉज़िटिव पाए गए। पीजीएमएसएस के सरफराज़ शेख कहते हैं, "यह सर्वे दिखाता है कि कितनी ज़्यादा संख्या में मज़दूर (पत्थर तराशने और रेत पत्थर खोदने का काम करने वाले) इस बीमारी के शिकार हो रहे हैं। अगर आप करौली, धौलपुर, दौसा, भिलवाड़ा और जोधपुर्थे जैसे सभी ज़िलों के सिलिकोसिस मरीज़ों की संख्या जोड़ दें तो यह एक लाख से कम नहीं होगी।"

सीएजी रिपोर्ट का कहना है कि साल 2017 में राजस्थान में 2548 ऐसी खदान मौजूद थीं, जहां सिलिकोसिस का ख़तरा है। लेकिन, राज्य में बड़े पैमाने पर अवैध खनन का काम चल रहा है, जिसकी वजह से सही इसे सहीं आंकड़ा नहीं माना जा सकता। अवैध खदानों में काम कर रहे मज़दूरों के स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा का कोई हिसाब किताब नहीं है। अंदाज़ा है कि राजस्थान की सभी खदानों में तकरीबन 30 लाख लोग काम करते हैं।

बीमारी की पहचान के लिए लंबा इंतज़ार

सिलिकोसिस बहुत पुरानी बीमारी है लेकिन फिर भी इसके मरीज़ों को लंबे वक्त तक मालूम ही नहीं चलता कि वो किसी बीमारी की चपेट में है। कई मरीज़ों का इलाज सालों तक ट्यूबरक्लॉसिस (टीबी) के मरीज़ की तरह होता है। सरकार ने इस बीमारी से मरने वाले लोगों की संख्या हर साल बढ़ने के बावजूद इस दिशा में असरदार कदम नहीं उठाए हैं।

साल 2009 में, जोधपुर की एक एनजीओ माइन लेबर प्रोटेक्शन कैंपेन ट्रस्ट (एमएलपीसी) की शिकायत पर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने कार्रवाई की। राज्य सरकार ने सिलिकोसिस की वजह से मारे जा चुके 21 खनन मज़दूरों के परिवारों को 3-3 लाख रुपये का मुआवज़ा दिआ। लेकिन, दूसरे 52 मरीज़ों को न तो कोई मुआवज़ा दिया गया और न ही किसी और तरह की मदद की गई।

साल 2011 में एक दूसरी एनजीओ डांग विकास संस्थान (डीवीएस) ने राजस्थान के 101 खनन मज़दूरों की छाती का एक्स-रे निकलवाया और नागपुर स्थित नैशनल इंसीट्यूट ऑफ माइनर्स(एनआईएमए) को भेज दिया। एनआईएमएच ने इनमें से 73 को सिलिकोसिस का मामला बताया।

डांग विकास संस्थान के सेकेटरी विकास भारद्वाज ने कहा, "तब तक सिलिकोसिस के मरीज़ों का इलाज टीबी के मरीज़ों की तरह किया जा रहा था। उन्हें उस इलाज से कोई फायदा नहीं हो रहा था। खनन मज़दूर अपनी आमदनी का 60 से 70 प्रतिशत तक इस इलाज पर खच्र कर रहे हैं। जब एनआईएमएच ने अपनी रिपोर्ट हमें सौंपी जिसमें बताया गया था कि इन मज़दूरों की बीमारी का गलत डायग्नोस किया गया है, तो हमने इनके अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई।"

उन दिनों एनआईएमएच के निर्देशक और वर्तमान में ऑक्यूपेशनल हेल्थ, बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स बोर्ड के कंसल्टेंट डॉक्टर पी. के. सिशोदिया का मानना है कि पिछले कुछ सालों में चीज़ें बेहतर हुई हैं। जो मरीज़ सिलिकोसिस की जाँच कराना चाहता है, उनके लिए

राजस्थान सरकार के सिलिकोसिस पोर्टल के मुताबिक, 21000 से ज़्यादा लोगों ने सिलिकोसिस की जाँच के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया है। पोर्टल के मुताबिक, 5026 मामले सर्टीफाइड हैं और 12000 मामले सर्टिफिकेशन का इंतेज़ार कर रहे हैं। राजस्थान सरकार के अधिकारियों का कहना है कि वेबसाइट नई है इसलिए पुराने सर्टिफिकेशन दिखाई नहीं दे रहे, जो कि 12000 के आसपास हैं। इन खनन मज़दूरों के हालात में सुधार के लिए बहु आयामी रणनीति की ज़रूरी है।

राजस्थान में सिलिकोसिस के शिकार लोगों की पहचान और उनकी स्थिति सुधारने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डॉक्टर पी. के. सिसोदिया का कहना है कि राज्य स्तर पर सिलिकोसिस की पहचान, बचाव, नियंत्रण, सुधार के प्रोग्राम चलाए जाने की ज़रूरत है। इसके लिए खास ट्रीटमेंट की सुविधाएं भी होनी चाहिए जो कि अभी उपलब्ध नहीं है। सिलिकोसिस के मरीज़ों के लिए एक पुनर्वास कार्यक्रम भी होना चाहिए क्योंकि सिर्फ़ पैसे से मदद करने से बात नहीं बनेगी। सिलिकोसिस से बचाने के लिए मज़दूरों के काम करने के हालात को बेहतर बनाना होगा।

नई मशीनों की वजह से हो रही है जल्दी मौत

पत्थर काटने की नई मशीनों और उपकरणों की वजह से मज़दूरों और कारीगरों को सिलिका धूल का सामना ज्यादा करना पड़ रहा है। हाथ से रेत पत्थर काटने वाले राजूलाल 25 साल काम करने के बाद बीमार हुए, जबकि उनके छोटे चार भाई सिर्फ 6 सालों में ही सिलिकोसिस की गिरफ्त में आ गए।

राजूलाल के चारों भाई सिरोही ज़िले के पिंडवाड़ा ब्लॉक में मशीन से पत्थर की नक्काशी और मूतियां बनाने का काम करते थे। उनमें से दो भाई सुरेश और कमलेश की मौत पिछले महीने हो गई, वहीं बाकी दो गंभीर रूप से बीमार हैं। सुरेश और कमलेश के सिलिकोसिस का मरीज़ होने की पुष्टि हो चुकी थी लेकिन अभी तक यह साफ नहीं है कि उनके परिवार को सरकार द्वारा मुआवज़ा मिलेगा या नहीं।

जयपुर के करीब नेशनल हाईवे पर पत्थर को तराशने का काम कर रही एक यूनिट के सुपरवाइज़र रवि मित्तल ने कहा, "मशीन की वजह से इन कारीगरों और मज़दूरों के शरीर में ज़्यादा धूल जाती है। इससे इन लोगों को जान का ख़तरा है, लेकिन कॉन्ट्रैक्टर और कारोबारियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें बस जल्दी अपना काम पूरा करवाना है।"

साफतौर पर, मशीनीकरण से लोगों की मरने की संख्या में तेज़ी से इज़ाफा हुआ है। अब खनन से ज़्यादा मौतें पत्थर तोड़ने या कारीगरी करने वाली जगहों पर हो रही हैं। सिलिकोसिस की वजह से कई छोटे-छोटे गांल अब "विधवा गांव" कहलाने लगे हैं, जहां कम उम्र की लड़कियों के पतियों की मौत हो रही है।

कमज़ोर नीतियां और सरकार की उदासीनता

पड़ोसी राज्य हरियाणा में सिलिकोसिस के पीड़ितों के लिए खास नीति की घोषणा की गई है लेकिन राजस्थान में अभी भी इन पीड़ितों के लिए कोई मुआवज़ा नीति नहीं है। हालांकि, राजस्थान सरकार ने सिलिकोसिस प्रभावित लोगों के लिए राहत और पुनर्वास की कुछ योजनाएं बनाई हैं। इन योजनाओं के अंतर्गत, न्यूमोकोनिओसिस बोर्ड (Pneumoconiosis Board) जब किसी मरीज़ को सिलिकोसिस होने की पुष्टि कर देता है तो उसे 1 लाख रुपये और उसकी मौत होने पर उसके परिवार वालों को 3 लाख रुपये की राहत राशि दी जाती है। जानकारों का कहना है कि ये मुआवज़ा अपर्याप्त और अन्यायपूर्ण है।

मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के निखिल डे इस अनिवार्य राहत राशि को "ब्लड मनी" कहते हैं क्योंकि रेत की खान के मज़दूर हमारे सुख साधन की कीमत अपनी जान से चुकाते हैं। इन कामगारों के लिए काम करने का सुरक्षित माहौल बनाने की बात पर ज़ोर देते हुए निखिल डे कहते हैं, "उनकी खोदी गई चीज़ों से बड़े-बड़े स्मारक, मंदिर और हमारे घर बनते हैं। यहां तक कि जिस ग्रेनाइट की स्लैब पर हम सब्ज़ियां काटते हैं, वो भी वही खोदते हैं। हमारे लिए यह सब करते हुए वे बीस से तीस की उम्र के बीच ही मर रहे हैं। उनकी बाकी की पूरी ज़िंदगी का हिसाब लगाकर उन्हें उचित मुआवज़ा दिया जाना चाहिए। सरकार को उन्हें 3-4 लाख जैसा कम रकम का मुआवज़ा नहीं देना चाहिए।

राजस्थान के कुछ गांवों को विधवाओं का गांव कहा जाने लगा है। इन महिलाओं के पतियों की खदान में हुई बीमारियों से मौत हो गई। इनमें कई महिलाएं खुद गंभीर बीमारी से ग्रसित हैं। फोटो- हृदयेश जोशी

हालांकि राजस्थान में दूसरे कैंपेन जिनमें भ्रष्टाचार की खिलाफत और विकास की मांग का इतना शोर है कि उनके बीच इन पीड़ितों की मांगें दब गई हैं। कांग्रेस ने अपने मेनिफेस्टो में इस मामले का ज़िक्र किया है और वादा किया है कि सिलिकोसिस के मरीज़ों को दिव्यांग का दर्जा दिया जाएगा। लेकिन, बीजेपी ने अपने 'संकल्प 2018' में इस पर कुछ नहीं कहा। इसकी दो वजह हो सकती हैं। नेता इन मज़दूरों और कामगारों के हालात से अनजान हैं या फिर उन्हें यह मामला इतना बड़ा नहीं लगता जिससे वे राजनैतिक फायदा हासिल कर पाएं।

ऐसा इसलिए भी है क्योंकि ये लोग न सिर्फ़ बहुत ज़्यादा ग़रीब हैं, बल्कि इनका सामाजिक स्तर भी सबसे कमज़ोर है। इस खतरनाक क्षेत्र में काम करने वाले 80 प्रतिशत से ज्यादा मज़दूर और कारीबगर ट्राइबल (कबायली) हैं या फिर दलित। राजस्थान स्टेट ह्यूमन राइट्स कमिशन के पूर्व सदस्य और सिलिकोसिस पीड़ितों के कल्याण के लिए काम कर चुके डॉक्टर एमके देवराजन का कहना है, "राजनैतिक और प्रशासनिक जमात में इनका कोई प्रतिनिधि नहीं है। इसीलिए इनकी समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं देता। अगर सरकार ने इनकी थोड़ी भी परवाह की होती, तो इन बड़ी समस्या से बचा जा सकता था।" 

ये खबर मूल रूप से मोगाबे में प्रकाशित की जा चुकी है। खबर पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें https://bit.ly/2KTDcPIFull View

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