वे पगडंडियां ही क्या, जहां से होकर कठपुतली वाला न गुजरा हो

Update: 2018-09-13 06:33 GMT

गांव की वे पगडंडियां ही क्या, जहां से कठपुतली वाला न गुज़रा हो। जिन पर से कठपुतली का खेल देखने बच्चे न दौड़े हों। बच्चे ही क्यों, घर का काम निपटा गृहणियां, खेत–ज्वार से निकल कर आदमी न चले हों देखने कठपुतलियों का नाच। गांव के बड़े–बूढ़े भी पोपली हंसी हंसते हैं, जब सारे कठपुतली राजा एक दूसरे पर धमाधम गिरते हैं। वह मेला ही क्या जिसमें कठपुतली वाला न आया हो? किसे नहीं लुभाता यह?

आप सब की तरह कठपुतलियों से मेरा भी खास लगाव है। बचपन का है यह लगाव। काठ की ये पुतलियां होती ही ऐसी हैं कि बचपन के मन पर जो धागा बांधती हैं, वह बड़े होने तक नहीं छूटता।


मेरा जन्म राजस्थान में हुआ है, जहां की कठपुतली कला ने विश्व में में अपनी जगह बनाई है। राजस्थान के कठपुतली वालों का सिर्फ खेल ही नहीं लोकप्रिय है, ये कठपुतलियां सजावट के लिए भी संसार भर में जानी जाती हैं। "मेरा नाम है चमेली, मैं हूं मालन अलबेली चली आई हूं अकेली बीकानेर से" तभी तो यह गीत कठपुतलियों के खेल में खूब प्रचलित है, क्योंकि राजस्थानी कठपुतलियों में मालन का खास रोल होता है। सर पर टोकरा लिए मटक कर नाचती, हंसती-खेलती मालन जब च्यूं च्यूं के साथ मंच पर आती है, सब दिल थाम लेते हैं। मंच पर उपस्थित कठपुतली राजाओं में तलवारें चल जाती हैं। नहीं?

मुझे याद है जब मैं 9वीं कक्षा में पढ़ती थी, तो हमारे स्कूल में कठपुतली कला के संरक्षक 'पद्मश्री देवीलाल सामर' जी आए थे जिन्होंने उदयपुर के लोक कला मंडल का निर्माण किया था। उनके तत्वावधान में हमारे स्कूल सहित जिले के कई स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियों में 'कठपुतली कला' का शिविर लगा था।

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मैं उस शिविर को लेकर इतनी उत्साहित थी कि उस वर्ष हमारे स्कूल से एक ग्रुप जो कठपुतली कला के प्रशिक्षण के लोककला मंडल भेजा गया था, उसमें मैं भी थी। वह प्रशिक्षण मुझे कठपुतलियों के और करीब ले गया। वहां मैंने पेपरमेशे और कपड़ों से 'ग्लव्ज़ पपेट' (दस्तानों की तरह पहनी जाने वाली कठपुतलियां) बनाना सीखा। गत्तों से इन हस्त कठपुतलियों के खेल का मंच भी बनाना सीखा। सबसे मजेदार मुझे लगा उसी शिविर के दौरान अपनी कठपुतलियों के लिए पंद्रह मिनट की स्क्रिप्ट लिखना। मेरी कल्पना को पंख तभी लगे। एक कहानीकार होने की नींव तभी पड़ी। शायद इसीलिए मेरी प्रतिनिधि कहानी का शीर्षक भी कठपुतलियां है।

आप कभी उदयपुर जाएं तो मेरा आपसे आग्रह है लोककला मंडल जरूर जाएं। पहले तो वहां राजस्थानी कठपुतलियों के खेल के साथ , रूसी कठपुतलियों के सर्कस का शो हुआ करता था। अब पता नहीं होता है कि नहीं। मगर वहां आपको कठपुतली कला के दर्शन जरूर होंगे। वह सर्कस देख कर मैंने जाना कि रूसी कठपुतली कला हमारी भारतीय कठपुतली कला से कितना आगे हैं कि वे पूरा का पूरा एक सर्कस शो कठपुतलियों के जरिए दिखाते थे। शेर, रिंगमास्टर, ट्रेपीज़ आर्टिस्ट, झूले, हाथी, जोकर। वह मेरे बचपन की यादों की दीवार पर आज भी हू–ब–हू अंका है।

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रुसी कठपुतली कला में बहुत निपुण हैं, वे इनके जरिए सर्कस शो तक दिखाते हैं।

कठपुतलियों की बात करें तो कोई देश इनके जादू से अछूता नहीं। इंडोनेशिया और श्रीलंका की छाया कठपुतलियां जिनमें रामायण की गाथा दिखाई जाती है। कठपुतलियों का इतिहास बहुत पुराना है यह 4000 साल पहले ही अस्तित्व में आ गई थीं। मिस्र में ये ईसा पूर्व दो हजार में अपने होने का सबूत देती हैं। तार से नाचने वाली ये कठपुतलियां मिट्टी और हाथी के दांत से बनाई जाती थीं। ये मिस्र के पिरामिडों में आज भी मिलती हैं। इन्हें इजिप्ट के धार्मिक नाटकों में इस्तेमाल किया जाता था। पुरानी ग्रीस सभ्यता में भी लिखित इतिहास है कि कठपुतलियां हेरोडोटस के समय में मिलती थीं। अफ्रीका के सहारा में आदिवासी कबीलों में कठपुतलियों की परंपरा मिलती है। भारत में भी महाभारत काल में कठपुतलियों का जिक्र मिलता है। अफगानिस्तान में जो कठपुतली कला है उसे बज़-बाज़ कहते हैं। तुर्की में भी कठपुतली कला का एक अपना आयाम है। अब अगर हम यूरोप की बात करें तो रूसी-फ्रेंच कठपुतलियों का अपना संसार है। आजकल तो गोद में बैठकर बोलने वाली कठपुतलियां बहुत चर्चित हैं। जिनमें बातचीत के दौरान आप अंदाज़ नहीं लगा सकते कि कलाकार कब अपनी आवाज़ में सवाल करता है और कब मुंह बंद किए-किए कठपुतली की आवाज़ में जवाब भी दे रहा है।

मेरे कहने का यह मतलब है की कठपुतलियां सारे संसार भर में प्रचलित हैं। इनका जादू कभी नहीं टूटने वाला।

(मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी की लोकप्रिय कथाकार हैं। अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों, सम्मानों, फैलोशिप्स से सम्मानित मनीषा के सात कहानी कहानी संग्रह और चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। मनीषा आज कल संस्कृति विभाग की सीनियर फैलो हैं और ' मेघदूत की राह पर' यात्रावृत्तांत लिख रही हैं। उनकी कहानियां और उपन्यास रूसी, डच, अंग्रेज़ी में अनूदित हो चुके हैं। गांव कनेक्शन में उनका यह कॉलम अपनी जड़ों से दोबारा जुड़ने की उनकी कोशिश है। अपने इस कॉलम में वह गांवों की बातें, उत्सवधर्मिता, पर्यावरण, महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा करेंगी।) 

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